अपने आप को लेखक मानने की ग़लती नहीं कर सकता लेकिन भूले बिसरे ये जो ब्लॉग पोस्ट लिखना होता है, तो इसलिए स्वयं को एक अदना सा ब्लॉग लिखने वाला ज़रूर बोल सकता हूं। अब लिखने में जो आलस हो जाता है उसके बहुत से कारण हैं। आप अगर मुझसे साक्षात मिलें हों तो शायद आपको ये और बेहतर दिखाई भी देगा और समझ भी आएगा।
आज से लगभग पच्चीस साल पहले एक अंग्रेजी फ़िल्म आई थी Finding Forrester फाइंडिंग फॉरेस्टर। ये फ़िल्म है एक लेखक के बारे में जिसने एक बहुत सफ़ल किताब के बाद अब लिखना छोड़ दिया है और शहर के अच्छे घरों वाले इलाके से दूर एक इलाके में फ़्लैट लेकर रहते हैं। वहां इनकी मुलाक़ात एक ग़रीब घर के लड़के से होती है जो कुछ लिखता रहता है। कैसे ये दोनों दोस्त बनते हैं और कैसे दोनों की ज़िंदगी में एक घटना के बाद भूचाल सा आ जाता है – ये इसकी कहानी है।
चलना शुरू करें
मैं आज इसका ज़िक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि इसमें लेखक कैसे कहीं अटक जाता है, कैसे उसके विचार आगे नहीं बढ़ते इसका बख़ूबी चित्रण किया है। बहुत से लेखक इसको Writers ब्लॉक भी कहते हैं। जब आप बस सामने रखे कागज़ को देखते रहते हैं और कुछ लिख नहीं पाते।
फ़िल्म में इसका एक बड़ा अच्छा उपाय बताया गया है। उनके अनुसार जब लिखना शुरू करें तो बस लिखें। उस समय सोचना छोड़ दें। ये बात जीवन में किसी भी काम के लिए सभी है। हम अकसर किसी काम को तबतक टालते रहते हैं जब तक हमारे हिसाब से सब कुछ सही नहीं हो जाता। नतीजा ये होता है की हम इंतज़ार ही करते रह जाते हैं। इसी तरह फ़िल्म में जमाल वालेस जब विलियम फॉरेस्टर के घर पर कुछ लिख नहीं पाता तो विलियम उसको अपनी एक किताब के कुछ शुरुआती अंश से लिखने की सलाह देते हैं। जब जमाल ऐसा करना शुरू करता है तो उसके बाद वो उसी शुरुआत को अपने शब्दों में कहीं और ले जाता है।
ये सुझाव कितना कारगर है इसका मुझे पता नहीं। लेकिन मेरे साथ अक्सर ये होता है और ये मेरे पत्रकारिता की शुरुआती दिनों से चल रहा है। जब तक समाचार लिखना है तब तक तो गाड़ी ठीक चलती है। क्योंकि उस समय आप सिर्फ़ एक काम कर रहे होते हैं – अपने पाठकों तक ख़बर पहुंचाना। लेकिन जब कोई स्पेशल स्टोरी या फीचर लिखना हो तो श्रीमान असीम बस ढूंढते रहते हैं प्रेरणा को।
अच्छी बात ये रही कि इस पूरे कार्यक्रम में प्रेरणा नाम की कोई सहयोगी नहीं मिलीं। अगर वो होतीं तो लोगों को खामखां बातें बनाने का अवसर मिलता।
फ़िल्म पर वापस आते हैं। जमाल पढ़ाई में ठीक ठाक ही हैं लेकिन वो बहुत बढ़िया बास्केटबॉल खेलते हैं। अमरीका में अगर आप खेलकूद या अन्य किसी विधा में अच्छे हैं तो अच्छे कॉलेज/स्कूल आपको स्वयं अपने यहां दाखिला देते हैं। इसके चलते एक अच्छे स्कूल में उनकी आगे की पढ़ाई सुनिश्चित होती है।
लेखक और इनके शागिर्द के बीच एक बात तय होती है कि जो भी इनके फ़्लैट में लिखा जाएगा वो बाहर नहीं ले जाया जाएगा। लेकिन जमाल स्कूल में एक लेखन प्रतियोगिता में घर पर लिखा हुआ एक निबंध जमा करा देते हैं। इस निबंध की शुरुआत उन्होंने विलियम की एक किताब के अंश से शुरू करी लेकिन बाक़ी अपने शब्दों में लिखा। प्रतियोगिता के नियम के अनुसार अगर आपके पास लेखक की अनुमति नहीं है तो इसके लिए आपको स्कूल से निकाल भी सकते हैं।
जमाल के शिक्षक राबर्ट अपने आप को एक तुर्रम लेखक मानते हैं। विलियम जो बरसों से घर से बाहर नहीं निकले थे, अपने दोस्त जमाल के लिये घर से निकलते हैं और उनका लिखा एक दूसरा निबंध सभी के सामने पढ़ते हैं।
अपना अपना नॉर्मल
कहानी में इन दो किरदारों के तरह मैं भी कभी विलियम तो कभी जमाल बन जाता हूँ। जब मेरी टीम के सदस्य लिखते हैं तो मैं विलियम बन उनकी मदद करता हूँ। मगर जब अपने लिखने की बारी आती है तो मैं जमाल बन जाता हूं।
भारत में लेखक या उनके ऊपर बहुत कम फ़िल्में बनी हैं। जो हैं, वो बहुत कुछ ख़ास नहीं लगती। लेकिन जब इस फ़िल्म को मैंने मुंबई के सिनेमाघर में देखा तो लगा था ये लिखने वालों के ऊपर उम्दा कहानी है। शॉन कॉनरी जो विलियम का किरदार निभा रहे हैं, इससे पहले जेम्स बॉन्ड के रोल में ज़्यादा याद थे। लेकिन इस फ़िल्म में लेखक की भूमिका में उनका यादगार अभिनय था। जमाल के रोल में रॉब ब्राऊन भी बहुत जंचे हैं।
इस फ़िल्म को हिंदी में भी डब किया गया है और यूट्यूब पर भी उपलब्ध है।
Come Independence Day and everything and everyone around just goes super patriotic. This was not the case before the advent of social media and various sarkari campaigns to mark the occasion. It used to be a very routine day. Flag hoisting, getting couple of laddoos and come back home to watch reruns of any classic on the good old Doordarshan. Now the OTT platforms have also embraced this change and the result is Saare Jahan Se Accha and Salakaar.
Available on Netflix and Jio Hotstar, both the shows are about – you guessed it right, its about our not so friendly neigbour Pakistan and its nuclear programme.
Since Salakaar was available first, I will start with this show which travels back and forth in time. It shows how the agent Adheer Dayal (Naveen Kasturia) back then sabotaged Pakistan’s nuclear programme. The same agent is now heading the intelligence unit and trying to find out Pakistan’s nuclear strategy now with the help of agent Mariam (Mouni Roy) who honey traps a Pakistani Colonel.
While the plot does sound very interesting, its the execution that leaves a bad taste. The first part set in 1978 is indeed very gripping with General Zia (Mukesh Rishi) and his attempts to make Pakistan a nuclear state, its the present day story that just doesn’t hold. The five-episode series can be watched even if you are swiping on your mobile.
Saare Jahan Se Accha on Netflix definitely is better of the two. It has good actors, good direction and better script too. This six-episode series has Pratik Gandhi playing Vishnu Shankar who is sent to Pakistan to unearth their nuclear programme. Sunny Hinduja plays Pakistani army office Murtuza Malik who tries his best to counter Indian plans.
Unlike Salakaar, where its female agent who is leading the operations, the female actors dont have much to do. Kritika Kamra does have some scenes towards the end, but thats about it. Tilotma Shome as Vishnu’s wife feels wasted. The scenes between the couple also don’t come out well. Pratik Gandhi has that awkward look on his face when he with his wife.
Surprisingly, it is not Pratik Gandhi who wins the show. Its Sunny Hinduja and Suhail Nayyar who plays Rafiq. Because we have already seen Gandhi in Scam, he feels a bit out of place as a spy. There is a scene where he orders a martini and I was like – WTF!!!.
Unlike a K K Menon or Manoj Bajpayee, who suit the role of a spy or intelligence officer, Gandhi just doesn’t look the part. Hinduja on the other hand is miles ahead of Gandhi, as is Nayyar.
काम के सिलसिले में काफ़ी लोगों से मिलना होता है। बहुत से लोगों के नाम, शक्ल कुछ भी याद नहीं रहती। कई लोगों से दुबारा बरसों बाद किसी दूसरी जगह मुलाक़ात होती है तो वो बताते हैं आपसे वो पहली बार कब मिले थे और किस सिलसिले में। पिछले एक बरस में मेरी ऐसे कई लोगों से मुलाक़ात हुई जिनसे, उनके अनुसार, पहले भी मिलना हुआ था। मुझे तो सच में बिलकुल याद नहीं, कब, कहां, क्यूं।
लेकिन कुछ लोगों से एक छोटी सी मुलाक़ात भी याद रहती है। इस साल मार्च के महीने में मेरे एक सहयोगी मुझसे किसीको मिलवाना चाहते थे। मैंने भी हामी भर दी और एक दिन मेरे सहयोगी और उनके जानकार, शिवा देवनाथ, दोनों सामने बैठे हुए थे।
अच्छा हम जो पत्रकार होते हैं, हमारे पास बहुत सारी कहानियां होती हैं। कुछ हम बता देते हैं, कुछ बहुत से कारणों से अनकही रह जाती हैं। शिवा जो कि एक क्राइम रिपोर्टर रहे थे, उनके पास कहानियों का ढ़ेर था। मुंबई में क्राइम रिपोर्टर के पास ढ़ेरों मसालेदार ख़बरें होती हैं। शिवा का बहुत बढ़िया नेटवर्क था ख़बरियों का। शायद ही ऐसी कोई ख़बर जिसके बारे में उन्हें मालूम नहीं हो।
जिन दिनों शिवा से मुलाक़ात हुई, मैं भी कुछ नई कहानियों के बारे में सोच रहा था। शिवा से मिलने का उद्देश्य भी यही था कैसे हम साथ में आयें और क्राइम से जुड़ी कहानियां लोगों तक पहुंचाएं।
शिवा से मिले तो उन्होंने बहुत सारी बातें करी। उस समय जो हिंदी फ़िल्म कलाकारों के केस चल रहे थे उस पर भी उन्होंने कुछ अंदर की ख़बर साझा करी। शिवा दरअसल जे डे के सहयोगी रह चुके हैं। मुंबई में अगर कोई क्राइम रिपोर्टर हुआ है तो वो जे डे सर थे। उनके काम के ऊपर वेब सिरीज़ बन चुकी हैं और मुझे उनके सहयोगी के साथ काम करने का एक मौक़ा मिल रहा था।
क्राइम से संबंधित ख़बरें लोग बड़े चाव से पढ़ते या अब देखते हैं। उस पर अगर कोई पुराने केस के बारे में ऐसी बातें हों जो लोगों को पता भी नहीं हो, तो उन ख़बरों का चलना तो तय है। इस मुलाक़ात के बाद इस बात की कोशिश शुरू हुई कि कैसे शिवा भाई को संस्था से जोड़ा जाये। ये थोड़ा टेढ़ा काम था क्योंकि मैनेजमेंट के अपने विचार होते हैं। उस पर आज जब AI का ज़ोर है तो ये समझाना कि जो ख़बर लिखी ही नहीं गई है उस पर AI क्या ही करेगा, मतलब मशक्कत वाला काम।
इस बीच शिवा का मैसेज, कॉल आता रहा जानने के लिए कि कुछ बात बनी क्या। लेकिन अब ये सब नहीं होने वाला। शिवा अब हमारे बीच नहीं हैं। अपने साथ वो कितनी ही सारी कहानियां भी लेकर चले गए। उनके साथ काम नहीं करने का अफ़सोस ताउम्र रहेगा। लेकिन उससे भी ज़्यादा अफ़सोस रहेगा एक बेबाक आवाज़ का शांत हो जाना। पत्रकारिता में बहुत कम लोग बचे हैं जो सच बोलने का साहस रखते हों। शिवा उनमें से एक थे।
Israel-Iran conflict is nothing in front of the war going on in the multiplex near you.
Aamir Khan’s much awaited Sitaare Zameen Par released on June 20 and since then social media is going crazy. There is a huge section of so called business analysts who analyse the daily booking trends and predict fate of the movie released.
Which is not the problem. The problem is these so called arm-chair analysts are biased and actually run a campaign for or against any film based on – err who pays and how much.
Some of them post multiple videos during the day – the ones if support of good cinema praising the collection. But those against the film, come up with all sorts of theories why the film is getting the numbers.
Hai La
Since June 20, there is a virtual war going on. Twitter and YouTube is full of it. As all it takes is a mobile and camera, everyone has jumped into the online war. A certain Dhruv Rathee sitting in Germany has also joined the gang. Why because – dollars ka mamla hai bhai.
For the past few days I have been watching this circus and its quite funny how a group of people for reasons best known to them are leaving no stone unturned to bring down the film. So much hatred? Against Aamir Khan?
But look at the video below. It surely is not AI generated or planted.
There are all sorts of theories doing the rounds. A Twitter user alleged a big production house behind the campaign.
And then I randomly watched an interview of producer Pahlaj Nihalani. The man behind many successful Hindi films revealed the ugly face of the industry.
He said it is actually people in the industry who bring down their colleagues. He also gave examples of how veteran actors indulged in this game during time. He also recalled how his films were not given screens following threats by other producers.
So this thing has been going on. While in the past it was not known to the world, thanks to technology and yes, the YouTubers, its all in the open. Now we have these hired analysts who pull down a movie if its doing well or is doing better than that of a particular actor.
Well nothing new here either. As a fan of actor ‘A’ I want his films to do well at the box office. But if the film itself is bad, I just cannot ignore the harsh reality.
The fate of any film good or bad should rest in the hands of the audience. Running a campaign – for or against – cannot make a bad film work on box office or tank a good film.
पिछले लगभग बीस वर्षों से अपने शहर से नाता टूट सा गया है।
कभी शहर की गलियों में ऐसे ही घूमने निकल जाओ तो समय जैसे ठहर सा जाता है। आता जाता हर शख़्स जाना पहचाना लगता है। पिछली बार जब भोपाल गया था तो घर से निकलना बहुत ज़्यादा तो नहीं हुआ लेकिन जब कहीं जाना हुआ हर शक्ल कुछ जानी पहचानी सी लगी। एक दो को तो बस नाम लेकर पुकारने ही वाला था। बस ज़ुबान पर नाम आते आते रुक गया।
कुछ को तो मैने आंखों से ओझल होने तक देखा। इस उम्मीद में की शायद वो दिलवाले दुल्हनियां की काजोल की तरह पलट कर शाहरुख ख़ान को देख लें। अब यहां मामला गड़बड़ हो गया। मतलब ये उम्मीद थोड़ी ज़्यादा हो गई थी। खुद की काया दो राज के बराबर हो गई होगी लेकिन उम्मीद ये की कोई काजोल हमको पहचान ले। वैसे सामने वाले भी अब सिमरन कहां।
इसके पहले की बात बिगड़े, ये बता देना उचित होगा परिचित सिर्फ़ महिला नहीं बल्कि पुरुष भी लग रहे थे। पिछले लगभग बीस वर्षों से अपने शहर से नाता टूट सा गया है। हर बार जाना होता है तो कुछ कड़ी ढूंढते रहते हैं। इसी तलाश में समय निकल जाता है और वहां से मायानगरी वापस। यहां वो कड़ियां कभी बनी ही नहीं, या ये कहूं की मैंने इसमें कभी कोई रुचि नहीं दिखाई।
विदेश में जो लोग जाकर बसते हैं उनकी मनस्थिति क्या होती है? जब ये निश्चित हो जाता है अब यही शहर, देश उनका रहेगा तब उनके लिए कितना आसान या मुश्किल होता है? क्या जब कभी वो देस वापस आते हैं तो कुछ पहचाने हुए चेहरे खोजते रहते हैं? क्या अपने नए देस में वो जाना पहचाना ढूंढ़ते हैं?
रेल यात्रा के दौरान पढ़ने की आदत पता नहीं कबसे शुरू हुई, लेक़िन आज भी जारी है। पहले जब ऐसी किसी यात्रा पर निकलते तो घर से कुछ भी पढ़ने के लिये नहीं लेते थे। स्टेशन पहुँचने के बाद सीधे किताब की दुकान पर औऱ वहाँ से एक दो नई मैग्ज़ीन खरीद लेते औऱ उनके सहारे सफ़र कट जाता। कभी कभार अख़बार भी खरीद लेते। अगर रविवार की यात्रा रहती तो बस यही प्रयास होता की स्टेशन पर उस दिन के कुछ अख़बार मिल जायें। रेल की यात्रा औऱ उसके बाद घर पर भी पढ़ना हो जाता। रविवार को अखबारों में वैसे भी कुछ ज़्यादा ही पढ़ने की सामग्री रहती है।
जबसे रेल से यात्रा शुरू करी है, कुछ स्टेशन जहाँ।पर ज़्यादा आना जाना होता है, वहाँ पर तो पता रहता है किताब कहाँ मिलेगी। कई बार अग़र ट्रेन का प्लेटफार्म किताब की दुकान के प्लेटफार्म से अलग होता है तो पहले किताब खरीदते उसके बाद ट्रेन वाले प्लेटफार्म पर। बीच यात्रा में अगर कहीं ट्रेन ज़्यादा देर के लिये रुकने वाली हो तो वहाँ भी किताब की दुकान देख लेते। कई स्टेशन पर तो चलती फ़िरती किताब की दुकान होती तो इधर उधर भागने से बच जाते। कई स्टेशन पर हर प्लेटफार्म पर ये सुविधा रहती।
बसों में यात्रा कम ही हुई हैं। लेक़िन जितनी भी बस यात्रा हुई हैं उसमें पढ़ने का काम थोड़ा मुश्किल भी लगा। हाँ बस स्टैंड पर भी कभी किसी को छोड़ने जाते तो वहाँ भी क़िताब की दुकान ज़रूर देख आते। बस स्टैंड पर खानेपीने की दुकाने ज़्यादा होती थीं औऱ किताबों की केवल एक।
जब हवाई यात्रा का शुभारंभ हुआ तो बहुत सी नई बातें हुईं इस पढ़ने पढ़ाने के मामले में। हर हवाईअड्डे पर आपको अख़बार रखे मिल जायेंगे। आप अपनी पसंद का उठा लें औऱ अपनी यात्रा के पहले, दौरान औऱ बाद में इसको पढ़ते रहें। इसके अलावा आपको उड़नखटोले में भी एक मैग्ज़ीन मिल जाती है पढ़ने के लिये। ये सभी पढ़ने की सामग्री बिल्कुल मुफ़्त।
लगभग सभी बड़े हवाईअड्डे पर एकाध बड़ी सी किताबों की दुकान भी रहती। वहाँ से भी आप कोई नॉवेल या मैग्ज़ीन ख़रीद सकते हैं। अब अगर कभी हवाई यात्रा करना होता है तो पढ़ने की सामग्री की कोई ख़ास चिंता नहीं रहती। कई राजधानी ट्रैन में भी मुफ़्त में अख़बार मिलते हैं।
कोविड के चलते एक लंबे अरसे के बाद ट्रेन से यात्रा का प्रोग्राम बना। चूँकि मुझे मुम्बई छत्रपति शिवाजी महाराज स्टेशन की जानकारी है तो मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा था जब एक बार फ़िर किताबों से मिलना होगा। स्टेशन समय से पहले पहुँचे तो क़दम दुकान की तरफ़ चल पड़े। मग़र ये क्या। उस जगह पर तो खानेपीने की नई दुकान खुल गई थी। आसपास देखा शायद दुकान कहीं औऱ खुल गई हो। लेक़िन क़िताबों की दुकान का कोई अता पता नहीं था।
जब आख़री बार इस स्टेशन से यात्रा करी थी तब यहीं से क़िताब, अख़बार ख़रीदे थे। ये कब हुआ था ये भी याद नहीं। कोविड के कारण लोगों का पढ़ना अब मोबाइल पर बढ़ गया था औऱ मैं ये बात सभी को बताता था। मुझे इस बात का अंदाज़ा ही नहीं था कि इस बदली हुई आदत का खामियाज़ा इन किताबों की दुकानों को चुकाना पड़ेगा।
बाक़ी यात्रियों की तरह मुझे सफ़र के दौरान भी मोबाइल में ही व्यस्त रहना अच्छा नहीं लगता। हाँ अगर कुछ लिखने का काम करना हो तो मोबाइल देख लेते हैं। लेक़िन अब तो लोग मोबाइल/टेबलेट पर फ़िल्में डाऊनलोड करके रखते हैं ताक़ि सफ़र के दौरान उनके मनोरंजन में कोई रुकावट पैदा न हो।
अब कुछ दिनों बाद फ़िर से एक रेल यात्रा का प्रोग्राम बना है। इस बार फ़िर इन्तज़ार रहेगा क़िताबों से मुलाक़ात का।
पिछले दिनों परिवार में एक शादी में शामिल होने का मौक़ा मिला। ख़ास बात इस बार ये थी की शादी के बहाने अयोध्या जाने का मौक़ा मिल रहा था। इस लिहाज़ से ये तो तय था की यात्रा यादगार होगी और यादगार बनी भी। जब किसी और के यहां शादी में जाओ तब लगता है लोग क्या क्या कारण से शादी को याद रखते हैं। उन्हीं मापदंडों के अनुरूप शादी तो यादगार बन गई। लेकिन यात्रा का जो अनुभव रहा, विशेषकर मुंबई वापस लौटने में, वो आपसे साझा कर रहा हूं।
बड़े शहरों में जिस तरह डिजिटल लेन देन का चलन बढ़ा है उसके चलते अब कैश रखने की आदत लगभग ख़त्म सी हो गई है। पिछले तीन वर्षों में जो भी यात्रा हुईं वो भोपाल या दिल्ली तक ही सीमित रहीं तो यही लेन देन का ज़रिया भी बना रहा। जिस तरह से सब जगह ये डिजिटल चल रहा था, उससे अयोध्या को लेकर भी बहुत आशान्वित थे। ये थी पहली भूल जो मुंबई वापसी के दिन बड़ी खटकी।
ऐसा नहीं है की रामजी की नगरी में डिजिटल नहीं चलता। शादी वाले दिन केश कर्तनालय में रूप सज्जा के लिए यही तरीका काम आया। विवाह के अगले दिन लखनऊ से दोपहर का उड़नखटोला पकड़कर मुंबई वापस आना था। इस १३५ किलोमीटर के सफ़र में तीन गाड़ियां बदलनी थी। जहां रुके थे वहां से टैक्सी स्टैंड, फ़िर टैक्सी से लखनऊ और आखिरी चरण था लखनऊ शहर से हवाई अड्डा। कैश के नाम पर बमुश्किल ₹१०० थे।
पहले चरण में ही गलती का एहसास हो गया था। जब बड़े शहर में ओला, उबर लोगों को परेशान करती हैं तो हम तो अयोध्या में थे जहां ये चलती नहीं है। क़िस्मत अच्छी हुई तो कोई लखनऊ से आई गाड़ी आपको मिल जायेगी। नहीं तो आप एप्प को देखते रहें और वो आपको झूठी आशा देती रहेगी।
अच्छी बात ये हुई की नज़दीक ही एक ई-रिक्शा मिल गया। बैठने से पहले पूछा नहीं और जब उतरने की बारी आई तो चालक ने डिजिटल तरीके से पैसे लेने से साफ़ इंकार कर दिया। मेरे साथ एक और सज्जन भी लखनऊ जा रहे थे। बेंगलुरू में रहते हुए वो भी मेरी तरह डिजिटल लेन देन में ही यकीं रखते हैं लेकिन अच्छी बात ये थी उनके पास एक ₹५०० का नोट था। अब समस्या थी छुट्टे पैसे की। चालक महोदय ने दस मिनिट इधर उधर पूछा और अंत में अपनी शर्ट और पतलून की सभी जेबों को खालीकर दस-बीस रुपए कम ही सही, पैसे दिए। बाद में ये विचार आया की अगर उन सज्जन के पास ₹ २००० का नोट होता तो।
अब दूसरे चरण में जब टैक्सी मिली तो वहां फ़िर वही कड़क नोट की मांग। जब उन्हें बोला नहीं है लेकिन बहुत जल्दी लखनऊ पहुंचना है तो उन्होंने कहा आप पूरी गाड़ी बुक कर लें। मैंने पूछा पैसा कहां से आयेगा? तो उन्होंने उसका उपाय भी सूझा दिया। नज़दीक के पेट्रोल पंप से स्कैन कर पैसे ले लिए और इस तरह लखनऊ का सफ़र शुरू हुआ।
अंतिम चरण का ड्रामा अभी बाक़ी था। जब टैक्सी से उतरे तो ऑटो वाले लाइन से खड़े थे। लेकिन समस्या जस की तस। डिजिटल पैसा नहीं लेंगे। वो तो भला हो उस ऑटो ड्राइवर का जिसने अपने अन्य चालक भाइयों से पूछा और अंततः एक चालक को डिजिटल लेन देन में कोई आपत्ति नहीं थी।
अब नजरें घड़ी पर और सामने दिखने वाले साइन बोर्ड पर थी जो ये बताता आप हवाई अड्डे पहुंच गए हैं। मैं तो ये मान बैठा था की अब उड़नखटोले को नीचे से उड़ते हुए ही देखूंगा। दूसरी फ्लाइट देखना भी शुरू कर दिया था।
जब हवाई अड्डे के नज़दीक पहुंचे तो ऑटो चालक जिसके लिए मन से सिर्फ़ दुआ निकल रही थी, उसने यू टर्न लिया और बोला पहुँच गए। मैंने कहा भाई अंदर तक तो छोड़ दो। महाशय बोले हम अंदर नहीं जायेंगे। हवाई अड्डा मुश्किल से ३०० मीटर दूर था। लेकिन इस भीमकाय शरीर को तो किसी तरह ले जाते, साथ में श्रीमती जी ने एक सूटकेस भी दिया था। उसके साथ दौड़ लगाना मुश्किल ही नहीं बहुत मुश्किल था। उसपर मई महीने की दोपहर।
किसी तरह पहुंचे तो वहां हवाई अड्डे में अंदर जाने के लिए लंबी लाइन लगी हुई थी। थोड़े अदब से वहां के कर्मचारी और बाक़ी यात्रियों से गुज़ारिश करी और सबने जाने दिया। मुझे अभी भी यही लग रहा था काउंटर पर जो भी होगा वो अफ़सोस जताते हुए कहेगा आप की फ्लाइट तो उड़ने को तैयार है।
मगर ये हुआ नहीं।
एयर इंडिया के स्टाफ को देखते ही मैने कहा मुंबई। उन्होंने कहा आइए। बस वही अजय देवगन वाली फीलिंग आ रही थी। आइए आपका इंतज़ार था। ताबड़तोड़ सूटकेस लिया गया, वज़न तौला गया और मुझे सिक्योरिटी के लिए जाने को कहा।
बस एक समस्या थी। मेरे पास बोर्डिंग पास का प्रिंटआउट नहीं था। लेकिन उन्होंने कहा ई टिकट चलेगा। ये मेरे लिए पहली बार था। मुझे लग रहा था सिक्योरिटी वापस भेजेगा। लेकिन नहीं। उन्होंने तो मेरी टिकट स्कैन करने में मदद करी। आगे खड़े यात्रियों से फ़िर दरख्वास्त करी। सिक्यूरिट के उस तरफ़ भी एयर इंडिया की एक कर्मचारी मुझे पार करवाने में मदद के लिए तैयार थीं।
अगले दो मिनिट में बस में बैठे थे हवाई जहाज में जाने के लिए। साथ में मेरे जैसे चार लेट लतीफ़ और थे। जब अंदर पहुंचे तो बाक़ी सभी यात्री जो शायद पिछले दस पंद्रह मिनट से बैठे थे, हम लोगों को देख रहे थे। मारे खुशी के बस नाचना ही बाकी रह गया था। मगर जब एक दिन पहले बारात में साली साहिबाओं के इसरार से नहीं मटके तो अब क्या ख़ाक कमरा हिलाते (कमर के लिए गुलज़ार साहब ने कहा है ।
परिचारिका ने भी पसीने से लथपथ यात्री पर रहम खाते हुए पानी पिलाया। जब उड़ गए तब स्वादिष्ट भोजन भी कराया। एयर इंडिया के सभी कर्मचारियों को सलाम!
इस पूरे प्रकरण से सीख या सीखें
— किसी नई जगह जा रहें हों तो कैश ज़रूर साथ में रखें
– जहां जा रहे हों वहां अपनी वाहन की ज़रूरत पहले से बता दें ताकि कुछ इंतज़ाम किया जा सके
– फ्लाइट में वेब-चेकिन ज़रूर से करवाएं। एयरपोर्ट में अंदर जाने के बाद मेरे बोर्डिंग पास के कारण सारे काम जल्दी जल्दी हो गए।
सबसे बडी सीख़: जब मौक़ा मिले लोगों की मदद करिए। आप किसी की मदद करेंगे, कोई और आपकी मदद करेगा। मेरी पूरी यात्रा में किसी न किसी ने मदद करी जिसके चलते फ्लाइट पकड़ पाये। और लोगों का शुक्रिया, धन्यवाद भी करते रहिए।
कुल मिलाकर यात्रा विवाह से ज़्यादा बाकी अनुभव के चलते यादगार बन गई।वैसे अयोध्या और इससे पहले भोपाल प्रवास के दौरान बहुत से लोगों से मिलना हुआ जो मेरे ब्लॉग के नियमित पाठक भी हैं। अगर आप लिखते हों और कोई पढ़ता है – ये जानकर अच्छा लगता है। उसपर ये भी सुनने को मिल जाये की अच्छा लिखते हो तो जलेबी संग रबड़ी वाली बात हो जाती है।
स्कूल के समय एक चलन था रोज़ाना एक सुविचार सबके साथ साझा करना। कई बार ये पूरे स्कूल के साथ होता तो कभी आपकी कक्षा के सहपाठियों के साथ। इससे इतर एक और काम करते – इन अच्छे विचारों को लिख कर कक्षा में टांगने का काम करते। स्कूल में एक स्थान भी नियत था जहां रोज़ ऐसा ही कोई सुविचार बोर्ड पर लिखा होता जो आने-जाने वाले सभी को दिखाई देता। इसको पढ़ना भी अच्छा लगता और देखना भी।
वैसे ये सुविचार वाला विचार ही कमाल का है। अब तो वॉट्सएप पर ख़ूब सारे ग्रुप हैं जो अलग अलग तरह के सुविचार शेयर करते हैं। कुछ बहुत ही ज़्यादा गहरे सुविचार भी होते हैं और कुछ मज़ेदार। कुछ संगीत के साथ भी होते हैं। मतलब हर तरह के विकल्प होते हैं। ज्यादातर ये संदेश एक ग्रुप से दूसरे ग्रुप में प्रेषित करे जाते हैं। कई लोग थोड़ी ज़्यादा मेहनत करते हैं और इसको अपना स्टेटस भी बना देते हैं।
पिछले दिनों दिवाली के उपलक्ष्य में भोपाल जाना हुआ। मुंबई से जब निकलते हैं तो ढेर सारे प्रोग्राम बनते हैं। इनसे मिलेंगे, उनसे बात करेंगे। कुछ खाने पीने का कार्यक्रम भी बन जाता है। लेकिन घर पहुंच कर सब कार्यक्रम धरे के धरे रह जाते हैं। इसके पीछे दो मुख्य कारण रहते हैं। एक तो घर में ही कुछ न कुछ काम चलते रहते हैं और दूसरा घर पर माता पिता के साथ समय बिताने की इच्छा। कहीं जाना होता तो प्रयास रहता सब लोग साथ में ही जायें। बाक़ी फ़िर त्यौहार के चलते कुछ न कुछ काम लगा ही रहता।
बहरहाल दिवाली पर सब इक्कठा हुए और सबने त्यौहार अच्छे से मनाया। इसी दौरान शायद मैंने फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ी जिसमें कहा गया क्या अब ड्राइंग रूम को हटाने का समय आ गया है। तर्क ये दिया गया की अब सब सोशल मीडिया पर ही त्यौहार की शुभकामनायें दे देते हैं। घर पर आना जाना अब उतना नहीं होता। मैंने जब ये पोस्ट पढ़ी थी तब इसके बारे में इतना सोच विचार नहीं किया था।
लेकिन कुछ दिनों के बाद वही फेसबुक वाली पोस्ट फ़िर से दिखाई दी। ऐसा अक्सर होता है सोशल मीडिया पर कोई पोस्ट देखी – पढ़ी और कुछ दिनों बाद अलग अलग वॉट्सएप ग्रुप में इसका आदान प्रदान चल रहा होता है। जिसकी ये पोस्ट होती है उनका नाम सब जगह से गायब होता है। वैसा ही कुछ इस पोस्ट के साथ भी हुआ। मुझे बिल्कुल नहीं पता इसके मूल रचनाकर कौन हैं।
वापस आते हैं पोस्ट में व्यक्त किए गए विचार के पास। तो पोस्ट का सार जैसा मैंने पहले बताया ड्राइंग रूम की अब क्या ज़रूरत जब सब मिलना मिलाना सोशल मीडिया पर ही हो रहा है। इस पोस्ट पर बहुत से लोगों ने अपने विचार रखे। ज्यादातर लोग इससे सहमत दिखे। कुछ ने इसको कोविड और उसके बाद मोबाइल पर इस कम मिलने का दोष मढ़ा। कुछ समझदार लोगों ने बाकी सबसे पूछ लिया आप कितने लोगों से मिलने गए थे जो आपके यहां लोगों के नहीं आने पर इतने व्यथित हो रहे हैं?
लोगों की टीका टिप्पणी ने मुझे भी सोचने पर मजबूर कर दिया। बाकी लोगों से पूछने से पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। मुझे तो अपना ड्राइंग रूम लगभग हर दिन मेहमानों से भरा दिखा। कुछ ड्राइंग रूम की शोभा मैंने अपने बेडौल शरीर से बढ़ाई। इस बात से सहमत हूं की अब आना जाना कम हो गया है। लेकिन परिवार के सभी सदस्यों ने ये प्रयास किया की जहां जाना ज़रूरी है वहां कोई न कोई जाये। जैसे जहां मेरा जाना किसी भी कारण से नहीं हो पाया तो मेरे अनुज ने ये काम कर दिया। जहां हम दोनों का जाना नहीं हो पाया वहां अगली पीढ़ी को ज़िम्मेदारी दे दी। कुल मिलाकर मिल बांटकर सबसे मिलने का प्रयास किया गया। कुछेक ऐसे भी न्योते थे जिनको किसी भी तरह से अस्वीकार ही करना था और ऐसा बहुत अच्छे से किया। लेकिन हर बार से इस बार ज़्यादा लोगों से अलग अलग जगह पर मुलाक़ात हुई, ये भी सच है। कई पुराने लोगों से इसलिए मिलना नहीं हुआ क्योंकि वो या तो शहर मैं नहीं थे या व्यस्त थे। लेकिन कुछ नए लोगों से भी मिलना हुआ।
बहुत से लोगों से फोन से बात भी नहीं हुई न ही किसी वीडियो कॉल पर। बस दीवाली की शुभेच्छा का आदान प्रदान हुआ। जब परिवार में हम बच्चे लोग ही थे तब माता पिता के लिए सबको साथ लेकर जाना शायद ज़्यादा मुश्किल नहीं होता होगा। अब बच्चों के बच्चे हो गए हैं तो सबको साथ में लेकर जाना एक बड़ा काम हो जाता है। और यहीं से मुझे याद आते हैं वो पिताजी के सरकारी घर वाले दिन। जब दो बेडरूम एक गुसलखाने वाले घर में सब आराम से तैयार भी हो जाते थे और मिलना जुलना भी हो जाता था।
हमारे घर में शुरू से लोगों का ख़ूब आना जाना रहा है। मतलब घर के दरवाज़े पर कभी किसी रिश्तेदार की गाड़ी या कभी किसी के दोस्त की गाड़ी या साइकिल खड़ी रहती। मोहल्ले में हमारा घर जाना जाता था वही जिनके यहां बहुत लोग आते हैं’। हम लोगों को भी इस माहौल से कोई परेशानी नहीं थी। अलबत्ता कुछ करीबी रिश्तेदारों को इससे बड़ी आपत्ति थी।
श्रीमती जी की सखी के भांजे से मुलाक़ात हो गई जब ड्राइंग रूम में भाईदूज के टीके का काम चल रहा था। ये मिलने मिलाने के मामले में श्रीमती जी बहुत आगे हैं। मुंबई में अपनी प्रिय सखी से वो महीनों नहीं मिल पाती हैं लेकीन भोपाल के एक हफ़्ते के प्रवास में वो रिश्तेदार, अड़ोसी पड़ोसी सभी से मिलने के बाद अपनी स्कूल की सखियों से भी मिलने का कार्यक्रम बना लेती हैं। ये सब मिलने मिलाने के बाद जब मुंबई वापस पहुंचे तो लगा इतने दिन दौड़ते भागते ही निकल गए। उसपर किसी से किसी कारण से मिलना नहीं हो पाया तो वो ड्राइंग रूम ही हटाने का विचार कर रहे हैं। वैसे ये पूरी तरह आपका निर्णय होना चाहिए। लेकिन अगर कुछ समय पश्चात लोगों का आना हुआ तो उनको कहां बैठाईएगा इस पर भी विचार कर लेते तो अच्छा होता।
बात ये नहीं है की कोई मिलना नहीं चाहता। बस समय के साथ मिलने जुलने वालों की संख्या बढ़ जाती है। समधियाने जुड़ जाते हैं, सहकर्मी बढ़ जाते हैं, आप किसी पर निर्भर हो जाते हैं किसी के यहां जाने के लिए और कई बार आप तैयार होते हैं जाने के लिए और कोई आपके यहां मिलने आ जाता है। जैसे त्यौहार वाले दिन आप भी कहीं निकल नहीं पाते, वैसी ही मजबूरी किसी और के साथ भी तो हो सकती है। जब आपको समय मिले तो आप मिलने निकल जाएँ और जब उनको समय मिलेगा तो वो आपके ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाएंगे। और ये मिलने के लिए त्यौहार का इंतजार क्यूं? जब अपने प्रियजन, इष्ट मित्रों से मिलें वही एक त्यौहार है।
आप सभी को दीवाली एवं नव वर्ष की ढ़ेरों शुभकामनायें।
स्क्रिप्ट की डिमांड के नाम पर निर्माता निर्देशक बहुत कुछ करा ले जाते हैं। लेकिन जब डिमांड हो और आप इनका इस्तेमाल नहीं करते हैं तो?
मुझे ठीक ठीक याद नहीं किस अख़बार में पढ़ा था लेकिन पढ़ा ज़रूर था। हालिया रिलीज खाकी सीरीज बनाने वाले नीरज पांडे से पूछा गया था की क्या ये सीरीज परिवार के साथ देख सकते हैं। वैसे तो ये सवाल इन दिनों बनने वाली सभी सिरीज़ पर लागू होता है। इस वेबसरीज को बनाने वाले निर्माता निर्देशक से ही ये सवाल क्यों पूछा गया इसका कारण मुझे नहीं पता।
मुझे जो कारण समझ आये वो दो थे। एक तो ये पुलिस से संबंधित सीरीज है। दूसरा ये कि ये बिहार के ऊपर है। मतलब करेला और नीम चढ़ा। जब वेबसरीज़ का आगमन नहीं हुआ था तब किरदारों को और पूरे माहौल का एक बहुत ही सजीव चित्रण दिखाने के लिए कुछ फ़िल्म निर्देशकों ने गालियों और सेक्स सीन का सहारा लिया। इसकी कीमत उन्हें A सर्टिफिकेट से चुकानी पड़ी और इसके लिए वो तैयार भी थे। फ़िल्में चल पड़ी और ये चलन और बढ़ गया।
जब वेब सिरीज़ का आगमन हुआ तो सबको खुली छूट मिल गई। सारे सर्टिफिकेट यहां से गायब थे। बहुत से हिंदी फ़िल्म के निर्माता निर्देशक को जैसे एक शॉर्टकट रास्ता मिल गया था। एकता कपूर जैसे निर्माताओं ने तो इस तरह के शो से एक अलग तरह से तबाही मचा रखी है।
बहरहाल, इससे पहले की और ज़्यादा भटकें, विषय पर वापस आते हैं। मैं नीरज पांडे जी के काम का ज़बरदस्त प्रशंसक रहा हूं। उनके नए काम का इंतजार रहता है। तो जब ये सवाल पढ़ा तो मुझे लगा इनसे ये सवाल क्यों किया गया। इनके पुराने काम को देखकर आपको पता चल जायेगा की इनका जोर कहानी पर रहता है। अगर ज़रूरत नहीं है तो कोई चीज़ ज़बरदस्ती नहीं डाली जायेगी।
ख़ैर। सवाल का जवाब इन्होनें वही दिया जिसकी उम्मीद थी। \”हां ये सिरीज़ पूरे परिवार के साथ देखी जा सकती है।\” फ़िर इसका ट्रेलर देखा और इंतज़ार करने लगे कब ये सिरीज़ देखने को मिलेगी। ये संभव हुआ इस शुक्रवार/शनिवार को। परिवार के साथ तो नहीं देखी क्योंकि बच्चों की पसंद कुछ अलग तरह की है।
पुलिस को मैंने बहुत करीब से देखा है। मेरे मामाजी भारतीय पुलिस सेवा में कार्यरत थे और बहुत से संवेदनशील केस उनके पास थे। जब तक पत्रकारिता से नाता नहीं जुड़ा था तब तक पुलिस के काम का एक अलग पहलू देखा थे। जब पत्रकारिता में आए तब एक अलग पहलू देखने को मिला। इसलिए जब पुलिस से संबंधित कोई फ़िल्म या सिरीज़ देखने को मिलती है तो ज्यादातर निराशा ही हाथ लगती है। बहुत कम इसके अपवाद हैं। हाल के वर्षों में \’दिल्ली क्राइम\’ ही सबसे अच्छा बना है।
‘खाकी’ भी अब इस लिस्ट में शुमार है।
किसी भी निर्देशक के लिए गाली या सेक्स का अपनी फ़िल्म में इस्तेमाल करना कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन क्या आप अपनी बात इन दो चीज़ों के बगैर भी कर सकते हैं? ये उन लोगों के लिए एक चैलेंज रहता है। बहुत से निर्देशक इससे बच नहीं पाते।
इसका एक और उदाहरण है फ़िल्म ‘ऊंचाई’। फ़िल्म के निर्देशक सूरज बड़जात्या अपने फ़िल्म कैरियर का पहला गाना जिसमें शराब पीना दिखाया गया है, वो शूट किया है। इससे पहले भी उन्होंने कई फ़िल्में बनाई हैं लेकिन बेहद साफ़सुथरी। रोमांस को दिखाने का उनका एक अलग अंदाज़ है जो आम हिंदी निर्देशकों से बहुत अलग है। शायद इसी वजह से आज भी उनकी फ़िल्में पसंद की जाती हैं।
‘खाकी’ में इसकी पृष्ठभूमि और पुलिस के चलते दोनों ही चीज़ों के इस्तेमाल को ठीक भी ठहराया जा सकता था। लेकिन जब आपकी कहानी दमदार हो तो आपको इन सभी चीज़ों की ज़रूरत महसूस नहीं होती। इस सिरीज़ में भी पति-पत्नी हैं, गैंगस्टर की महबूबा भी है। पूरी कहानी गांव के किरदारों पर है। तो जिस तरह फ़िल्मों में ये तर्क दिया था गालियों के ओवरडोज़ के लिए, वही सारे यहाँ भी बिलकुल फिट बैठते हैं। लेकिन निर्देशक महोदय ने कहानी पर ही ध्यान बनाए रखा और इन सबके इस्तेमाल से बचे हैं।
जहां तक इस सीरीज के कलाकारों की बात करें तो सभी ने बहुत ही बढ़िया काम किया है। हिंदी फिल्मों में पुलिस को एक बहुत ही अजीब ढंग से दिखाया जाता है। कुछ निर्देशक चूंकि पुलिस को दिखा रहे हैं तो उनको एक एक्शन हीरो की तरह दिखाते हैं। चलती गाड़ी से कूद जाना या फालतू की मारधाड़ – ये कुछ ऐसी चीज़ें बन गई हैं जिनके बिना काम नहीं चलता इन निर्देशकों का। जब आप खाकी देखते हैं तो यहां मामला थोड़ा नहीं बहुत अलग है। यहां गाड़ियां उड़ती नहीं हैं। यहां इसको सच्चाई के जितने करीब रखा जा सकता है वो रखा गया है (बिना गाली गलौच के)।
सिरीज़ में अच्छे बुरे सभी तरह के पुलिसवाले दिखाए गए हैं। लेकिन कहानी उन अच्छे पुलिसवालों के बारे में जो बस अपना काम करना जानते हैं। ठीक वैसे ही जैसे नीरज पांडे जी और उनके सहयोगी अच्छी कहानी दिखाने के प्रयास में लगे रहते हैं। अगर अभी तक नहीं देखी और साफ़ सुथरी सिरीज़ से परहेज़ नहीं है तो ज़रूर देखें। पूरे परिवार के साथ।
सालगिरह मुबारक। पहले तो सोचा जो दो साल पहले तुम्हारे पहले जन्मदिन पर (मतलब तुम्हारे नहीं होने के बाद) जो लिखा था उसी से काम चला लेते हैं। फ़िर सोचा अब ये कोई नया सोनी का मंहगा म्यूजिक सिस्टम तो है नहीं जो नया लिख दिया तो तुम गुस्सा हो जाओगी और लड़ाई करने लगोगी। लेकिन फ़िर मेरी पसंदीदा जूही जी का QSQT का डायलॉग याद आ गया। क्या ऐसा हो सकता है। और आमिर ख़ान का जवाब \’नहीं\’। तो बस ये नई ताज़ा जन्मदिन की ढ़ेरों शुभकामनायें तुम्हारे लिए।
जब हम लोग पापा का सरकारी घर छोड़कर अपने घर में शिफ्ट हुए थे तब उस घर में पहला जन्मदिन तुम्हारा ही मनाया था। ये अलग बात है की 27 के बाद 28 आती है और नये घर में जाने के बाद दूसरे ही दिन तुम्हारा हैप्पी बर्थडे था। बस कह रहे हैं।
वैसे इस साल दिवाली में जब सब उसी घर में इकट्ठा हुए तो कोरम पूरा तो था लेकिन अब हमेशा के लिए अधूरा ही रहेगा। कोरम का कैरम से कोई लेना नहीं। बस बता रहे हैं। तुम सोचो कैरम के चार खिलाड़ियों की बात कर रहे हैं। वैसे कैरम से याद आया हम चारों ने कैरम साथ में कम ही खेला है या कभी खेला ही नहीं। ज्यादातर तो ताश ही खेलते थे। बस तीन पत्ती नहीं खेली, क्लब इस्टाइल में।
ये कहना ग़लत होगा तुम्हारी याद आती है। याद तो उनकी आती है जिन्हे भूल जाते हैं। तुम्हारा ज़िक्र तो बस ऐसे ही होता रहता है। कभी गाना देखलो तो तुम्हारी बात निकल पड़ती है, कोई उटपटांग नाम सुनो तो ये सोचने लगते हैं तुम्हारी इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी। कभी किसी जानने वाले की ताज़ातरीन हरक़त के बारे में कुछ बात होती है तो तुम्हारा क्या कहना होगा इस पर भी बात कर लेते हैं।
दो साल। 365*2। पता है तुम्हारा गणित मुझसे बेहतर है और मेरे पास होने के लाले पड़े रहते थे। लेकिन इसका जवाब तुम्हारा गलत होगा। ये महज़ 730 दिन की बात नहीं है। हर चीज़ गणित नहीं होती, गुणा भाग नहीं होती। ज़िंदगी इससे कहीं ऊपर है। और अब तुम्हारे पास तो टॉप फ्लोर से देखने का विकल्प भी है। वैसे नीचे से भी इतना कुछ बुरा नहीं दिखता है। हाँ दिल्ली में प्रदूषण कुछ ज़्यादा हो गया है।
गिरते संभलते हम लोग फ़िर से चल तो पड़े हैं, लेकिन मुड़ मुड़ के देखते रहते हैं। नादिरा और राज कपूर के पहले धीरे धीरे और बाद में थोड़ी तेज़ी में समझाने के बाद भी। वैसे इन दिनों गानों को बिगाड़ने का काम ज़ोरशोर से चल रहा है। कल ही मैंने \’आप जैसा कोई\’ का नया बिगड़ा हुआ रूप देखा। लेकिन 1980 की ज़ीनत अमान आज की नचनियों से मीलों आगे हैं। इस नए गाने के बजाय सिगरेट फूंकते फिरोज़ ख़ान को देखना ज़्यादा मज़ेदार है।
बचपन में एक गाना सुनते थे। जन्मदिन तुम्हारा मिलेंगे लड्डू हमको तो बस तुम्हारे जन्मदिन पर भी मुंह मीठा कर लिया। ज्यादा नहीं बस थोड़ा सा। बाक़ी खट्टी मीठी पुरानी यादों का अंबार है जिससे काम चल ही रहा है। शायद इसलिए शुगर कंट्रोल में आ रही है। बस ये कमबख्त वज़न का मुझसे इश्क कम हो जाये तो बात है। किसी ने सच ही कहा है इश्क़ और मुश्क छुपाए नहीं छुपते। और अपना तो ऐसे दिख रहा बायगॉड की क्या बताएं।
एक बार पुनः ढेर सारी बधाई। तुम जहां हो खुश रहो। सिर्फ़ तुम्हारा
पिछले दिनों भोपाल से वापसी के समय स्टेशन पर ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे। एक सज्जन सामने प्रकट हो गए। मुझे बिल्कुल जाने पहचाने नहीं लगे लेकिन वो साहब ने बात शुरू कर दी। मुझे लगा शायद वो मुझे पहचान गए हैं और थोड़ी देर में किसी परिचित के ज़िक्र से मुझे उनका नाम याद आ जायेगा।
पहला सवाल था आपकी ट्रेन आने वाली है क्या। ट्रेन आने में समय था तो उनको बता दिया थोड़ी लेट चल रही है। मुझे लगा शायद वो भी उसी गाड़ी से यात्रा कर रहे होंगे। लेकिन उनके पास कुछ सामान भी नहीं था। बाकी लोगों की तरह मैं मोबाइल में गुम नहीं था और शायद यही गलती मुझे आगे भारी पड़ने वाली थी।
इसके बाद वो मुद्दे की बात पर आ गए। पतलून की जेब से कुछ रुपए निकाले और कहने लगे बस इतने पैसे हैं कुछ कम हैं। उन्हें इंदौर जाना था लेकिन किराये के पैसे नहीं थे। मुझसे उन्होंने कहा की क्या मैं उनकी कोई मदद कर सकता हूं।
मैंने कहा मेरे पास पैसे नहीं है। वो सज्जन कहने लगे आप जितने पैसे देंगे उसके दुगने मैं आपको किसी एप्प के ज़रिए भेज दूंगा। मैने उन्हें कहा मैं दरअसल अपने साथ पैसे नहीं रखता। सारा लेनदेन मोबाईल के ज़रिए ही होता है (ये सौ आने सच बात है)।
मुझे ऊपर से नीचे तक देखने के बाद बोले आप तो मेरे पिता की उमर के हैं। देखिये आपके पास इतने पैसे तो रखे ही होंगे। मुझे अभी तक जो भी थोड़ी बहुत संवेदना उनके लिए थी वो हवा हो चुकी थी। वो स्वयं मुझसे कोई बहुत ज़्यादा छोटे नहीं दिख रहे थे और उन्होंने चंद रुपयों के लिए मुझे अपने पितातुल्य कह दिया था। मैंने उन्हें सलाह दी आपको जो रकम चाहिए वो या तो रेलवे के पुलिसकर्मी या जो आसपास होटल हैं वहां से ले लें। शायद वो आज़मा चुके थे और बात कुछ बनी नहीं थी।
उन्हें लगा (ऐसा मुझे लगा) शायद उनकी पिता की उम्र वाली बात से मैं आहत हो गया था। उन्होंने अगले ही पल कहा आप तो कॉलेज में पढ़ने वाले लगते हैं। कौन से कॉलेज से पढ़ाई करी है। अब मुझे उनकी बातों में रत्तीभर भी रुचि नहीं थी। आसपास खड़े बाकी यात्री भी देख रहे थे ये बात कहां खत्म होती है।
मैने भोपाल के किसी कॉलेज का नाम लिया। कहा वहां से पढ़ाई करी है। लगा अब बात खत्म। लेकिन सज्जन व्यक्ति कहां रुकने वाले थे। उन्होंने अपना बटुआ निकाला और दिखाया। इसके साथ जो उन्होंने कहा वो सुनकर हंसी भी आई और आश्चर्य भी।
उन्होंने बताया उनका उनकी पत्नी से किसी बात पर झगड़ा हो गया था। पत्नी ने बटुए से सारा पैसा निकाल लिया था और उन्हें घर से बाहर निकाल दिया था। तो महाशय ने सोचा क्यूं ना इसी बहाने दोस्तों से इंदौर मिलकर आया जाए। तब तक उनकी पत्नी का गुस्सा भी शांत हो जायेगा।
ये सब बताते हुए उनके मुख से एक बार फ़िर से वही आहत करने वाली बात निकल गई। वो बोले वो आपकी बहू ने…
अभी कुछ दो महीने बाद धरती पर प्रकट हुए पचास वर्ष हो जायेंगे। लेकिन बहु के आने में समय है। मुझे अब उस व्यक्ति से ज़्यादा अपनी काया की चिंता हो रही थी। अंकल तक तो ठीक था। ये कुछ ज़्यादा हो गया था। ये बात सही है पिछले दिनों कुछ वज़न बढ़ा है। लेकिन आज लग रहा है वो कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया है। माँ के दो दिन पहले वज़न कम होने की बात की सारी ख़ुशी किसी कोने में दुबक गई थी।
इस पूरे वाक्ये में जो एक बात जिससे मुझे थोड़ी राहत मिली वो ये थी की सज्जन भोपाल की बढ़ती हुई सर्दी से बचने के लिए मदिरा का सेवन किये हुए थे। शायद वो अपना चश्मा भी घर पर ही छोड़ आये थे! (ऐसा सोचने में कोई नुकसान भी तो नहीं है)।
थोड़ी देर में गाड़ी आई उससे अपनी वापसी प्रारंभ करी। उन सज्जन को आईना दिखाने के लिए धन्यवाद। भले ही उन्होंने जो कहा वो नशे की हालत में कहा। लेकिन बात लग चुकी है और इस साल की सर्दियों का पहला गाजर का हलवा खा कर इसको भूलने का प्रयास जारी है। जब खत्म होगा तब हलवे से बढ़े वज़न को कम करने के बारे में सोचा जायेगा। आप भी मौसम का आनंद लीजिए।
आज भाषा और उस भाषा के सिनेमा को लेकर बड़ी बहस छिड़ी हुई है। क्या सिनेमा की कोई भाषा होती है? मुझे याद है जब मनोरंजन का साधन सिर्फ़ दूरदर्शन ही हुआ करता था तब अंतरराष्ट्रीय भारतीय फ़िल्म महोत्सव की कई फ़िल्में दूरदर्शन पर आती थीं। मैंने कई सारी भारतीय और विदेशी फ़िल्में देखीं। विश्व सिनेमा की ये सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों का प्रदर्शन कई शहरों में भी हुआ करता था। भोपाल में ऐसे आयोजन नियमित रूप से हुआ करते थे।
आज जब फिल्मों कई भाषाओं में डब करने का चलन बन चुका है तो मुझे याद आता है वो समय जब सिर्फ़ सबटाइटल अंग्रेजी में ही हुआ करते थे। ये सुविधा सभी फिल्मों में नहीं हुआ करती थी तो कई फ़िल्में उनकी मूल भाषा में ही देखी।
अगर हम कुछ देर के लिए भाषा को अलग रख दें और सिर्फ़ कहानी पर ध्यान दें तो ऐसी कई कहानियां पिछले दिनों देखी जो मूलतः किसी और भाषा में थीं और उनको हिंदी में डब किया गया था। कहानी को बदला नहीं गया बस उसकी अच्छी अलग अलग भाषा में डबिंग करी गई।
अगर यही फ़िल्म या सिरीज़ मूल भाषा में ही रहती तो क्या होता? कहानी तो तब भी उतनी ही अच्छी होती। बस आपका उससे जुड़ाव भाषा के चलते कुछ कम हो जाता। लेकिन मनोरंजन तब भी होता।
भाषा की इस बहस में जो पता नहीं कहां से शुरू हुई और कहां पहुंच गई, हम ये भूल जाते हैं की आपको कहानी पसंद आती है। भाषा आपको वो कहानी समझने में मदद करती है। जब तीस साल पहले जब ए आर रहमान की पहली फ़िल्म \’रोजा\’ का संगीत आया था तो उसको पहले उसकी मूल भाषा में ही सुना था और पसंद भी किया था। इसका हिंदी अनुवाद तो बाद में सुनने को मिला। वैसे इसका रुक्मणि रुक्मणि गाना बहुत ही घटिया था और इसको हिंदी में सुनना एक दर्दनाक अनुभव था।
सिनेमा में अच्छे कंटेंट की कोई भाषा नहीं होती। हाँ अगर आप कुछ पढ़ रहे हों तो उसमें उस भाषा का ज्ञान ज़रूरी हो जाता है समझने के लिए। लेकिन सिनेमा और संगीत में ऐसे कोई बंधन नहीं हैं। ये भी एक कटु सत्य है की हिंदी छोड़ अन्य भाषाओं में हमेशा से ही अच्छी कहानी पर ज्यादा तवज्जो दी जाती रही है। उन्होंने साहित्य से कहानी चुनी जिससे अच्छी फ़िल्में मिलीं। ऐसा नहीं है की वहां मसाला फ़िल्में नहीं बनती। पुष्पा इसका अच्छा उदाहरण है। लेकिन उसमें भी कहानी पर मेहनत कर उसको अच्छा बनाया है। बहरहाल इस पोस्ट को भटकने से पहले मुद्दे पर वापस लाते हैं।
पिछले दो दिनों में दो बहुत अच्छी कहानी देखीं – दिल्ली क्राइम सीज़न 2 एवं गार्गी। इन दोनों कहानियों में कोई भी समानता नहीं है। पहली पुलिस के कामकाज से जुड़ी है तो दूसरी एक बेटी की कहानी है जो अपने पिता के साथ हुई तथाकथित गलती के खिलाफ़ लड़ाई लड़ती है।
अगर आपने दिल्ली क्राइम का पहला सीजन देखा हो तो आपको अंदाजा होगा दूसरे सीज़न में एक नया अपराध होगा और अपराधियों को पकड़ने की दिल्ली पुलिस की कहानी। इस बार भी वही टीम है मंझे हुये कलाकारों की। जब इसका पहला एपिसोड शुरू हुआ तो मुझे लगा शायद ये अंग्रेजी में है। लेकिन थोड़ी देर बाद हिंदी में शुरू हुई। वैसे इस सीज़न में शेफाली शाह का क़िरदार ने कुछ ज़्यादा ही अंग्रेजी का इस्तेमाल किया है। सीज़न 2 अच्छा है लेकिन पहले सीज़न के जैसे बांधने में थोड़ा कमज़ोर। शायद इसके पीछे ये कारण भी है की पहला सीज़न निर्भया केस से जुड़ा था और हमें उस घटना के बारे में लगभग सब जानकारी थी बस किस तरह पुलिस ने ये काम किया इसकी जानकारी नहीं थी। दिल्ली क्राइम का पहला सीज़न आज भी मेरे हिसाब से हिंदी का सबसे उम्दा काम है।
उस कामयाबी के चलते दूसरे सीज़न की बात होने लगी। शायद निर्माताओं पर भी दवाब था इसके चलते दूसरा सीज़न पर काम किया। ये कहने का मतलब ये कतई नहीं है की इसमें कुछ गलत है। दूसरे सीज़न में कहीं कोई कमी नहीं छोड़ी गई है लेकिन शायद हमारी उम्मीदें पहली सिरीज़ से बहुत बढ़ गई थीं। क्या इसका तीसरा सीज़न भी आयेगा? शायद। क्योंकि इस पांच एपिसोड की छोटी सी सिरीज़ के अंत में इसको खुला रखा गया है। शायद नए लोग हों। इंतज़ार करना पड़ेगा नई घोषणा का।
जो दूसरी बहुत ही बढ़िया कहानी देखी वो थी गार्गी। मूलतः तमिल में बनी इस फिल्म में सई पल्लवी का दमदार अभिनय है और एक ऐसी कहानी जो आपको अंदर तक झकझोर तक रख देगी। बहुत ही कमाल का लेखन है। भाषाई बहस में न पड़ते हुए सिर्फ़ इतना कहना चाहूंगा इस फ़िल्म को आपको देखने का मौक़ा नहीं छोड़ना चाहिए। सई पल्लवी की पहली फ़िल्म प्रेमम से ही मैं उनके अभिनय का प्रशंसक रहा हूं। बीच में एक दो फ़िल्में और देखीं उनकी लेकिन ये बहुत ही बेहतरीन फ़िल्म है। आप फ़िल्म के अंत के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं होंगे। आपको लगेगा कहानी अब बस खत्म और अंत भला तो सब भला। लेकिन कमाल की स्क्रिप्ट शायद इसे ही कहते हैं।
आज जब ये भाषा की बहस होती है तो लगता है अच्छा सिनेमा या कंटेंट देखने की चाह रखने वालों के लिए इससे अच्छा समय नहीं हो सकता है। आप फिल्में या ओटीटी दोनों पर भारत ही नहीं विश्व का अच्छा कंटेंट देख सकते हैं।
अभी कल किसी के परिवार के एक समारोह का वीडियो देखने को मिला। सब गाना बजाना चल रहा था। लेक़िन जो बात मुझे बड़ी अजीब सी लगी वो थी समारोह में सम्मिलित सभी लोगों के बाल देखकर।सभी के बाल रंगरोगन किये हुये औऱ एकदम चमकते काले बाल। शायद इतने तो तब भी न रहे हों जब इन बालों का रंग काला ही रहा होगा।
अब आप कह सकते हैं की ज़रुरी नहीं सब उम्र के उस दौर में हों जहाँ बालों को रंगरोगन की ज़रूरत हो। ये भी तो मुमकिन है की बालों का रंग वाकई में काला हो। जी बिल्कुल हो सकता है। लेक़िन उनमें से कई लोगों को जानते हैं औऱ शायद उनकी उम्र भी। ख़ैर बालों को रंगना कोई नई बात तो नहीं है। औऱ है भी बहुत ही व्यक्तिगत मामला।
जब हम छोटे थे तो कई बार टेलकम पाउडर को पेंट ब्रश से बालों पर लगाकर देखा करते थे। उस समय वो काले सफ़ेद बाल देखकर बड़ा अच्छा लगता। वर्ष 2003-4 की बात है। मेरे उन दिनों के मित्र मुम्बई किसी काम से आये हुये थे। एक दिन उनके साथ पहुँच गये सैलून पर। हमारा काम तो जल्दी समाप्त हो गया। लेक़िन ये क्या – महाशय तो बाल रंगवा रहे थे। इतने वर्षों में मुझे ये पता भी नहीं चला की वो ऐसा करवाते रहे हैं।
हमारे एक औऱ परिचित हैं। उनके बाल भी 50-55 की उम्र में बढ़िया काले। पहले कुछ सफ़ेदी थी लेक़िन शायद उन्होंने उसे छुपाना बेहतर समझा। एक दिन बिना बताये जब उनके घर पहुँचे तो देखा श्रीमान कालिख़ लगाये धूप में बाल सूखा रहे हैं। हमें सामने देखकर पहले तो कुछ समझ नहीं आया लेक़िन उसके बाद ऐसे बात करने लगे जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
आजकल के नायक, नायिकाओं को देख लीजिये। सब हिजाब लगा लगा कर काले बाल लिये घूमते रहते हैं। मुझे अभी तक ये समझ नहीं आता की ऐसा करने की क्या ज़रूरत है। आपके शरीर में समय के साथ बदलाव आते हैं तो बजाये इसके की उन बदलावों को स्वीकार करें लोग वक़्त को पीछे मोड़ने में लगे रहते हैं।
सर्दी तो अब लगभग जा ही चुकी है औऱ अब बसंत आ गया है औऱ सब बंजर ज़मीन पर दिख रही हरियाली अब कुछ दिनों में गायब होने वाली है। घर के सामने जो पहाड़ी है वो तपती धूप में सब कुछ गवांने के बाद इन दिनों हरी भरी हो गयी है। कुछ दिनों बाद हरियाली गायब हो जायेगी। अब ये बालों की सफ़ेदी औऱ पहाड़ों की हरियाली – कहीं भटके तो नहीं?
पिछले वर्ष कोरोना के कारण अस्पताल में समय बिताने के बाद जब घर वापसी हुई तो शक्ल में कुछ बहुत ज़्यादा बदलाव नहीं आया था। हाँ लगभग महीने भर की दाढ़ी थी औऱ सर पर कम होते बाल। जैसा इन दिनों चलन है, एक दिन पारिवारिक वीडियो कॉल हुआ। सेहत की बातें करते करते किसी ने बताया की मेरे सिर पर बाल कुछ ज़्यादा कम दिख रहे हैं। उस समय तो सब हंसी मजाक में टल गया लेक़िन मुझे भी पिछले कुछ दिनों से मैदान साफ़ होता हुआ दिख रहा था। जिस गति से ये सर से अलविदा कह रहे थे, लगता था शान फ़िल्म के शाकाल बन ही जायेंगे।
लेक़िन जब बाक़ी कोविड मरीजों से यही सुनने को मिला तो थोड़ी राहत मिली। वैसे भी जब बाल गायब होना शुरू होते हैं तो ये कहा जाता है की ये इस बात को बताता है की आपका बैंक बैलेंस बढ़ रहा है। अगर ये उम्र के हिसाब से हो रहा है तो ये सही भी होता है क्योंकि उस समय आप एक बड़े पद पर पहुँच चुके रहते हैं औऱ आपकी आय में उसी हिसाब से बढ़ोतरी भी होती है।
वैसे हर वो आदमी जिसके सिर से बाल या तो गायब हो चुके रहते हैं या लगभग नहीं के बराबर होते हैं वो ऐसा नहीं सोचते। पिछले दिनों एक सज्जन से मिलना हुआ। जब उनको देखा तो थोड़ा अजीब सा लगा। दरअसल उनकी जो तस्वीरें हैं वो बिना बालों की हैं लेक़िन सामने वो विग लगाये बैठे थे। ये माजरा थोड़ी देर बाद समझ आया।
फ़िल्म जाने भी दो यारों में इससे जुड़ा बड़ा ही अच्छा सीन है।
ऐसे ही एक औऱ सज्जन से मुलाक़ात हुई। उनको देखकर भी लगा मामला कुछ गड़बड़ है। कुछ देर में पता चला की महाशय सिर के बालों के साथ अपनी मूछों के बालों का भी रंगरोगन करते हैं। सिर के बाल से कुछ समय बाद रंग निकलना शुरू हो जाता है। लेक़िन उनकी मूछों के बाल एकदम बढ़िया काले। ये भी हो सकता है वो नत्थूलाल से प्रेरित हों औऱ मूछों का ज़्यादा ख़्याल रखते हों।
लेक़िन कुछ लोग होते हैं जो इस प्रकृति के नियम से कोई छेड़छाड़ नहीं करते। एक परिचित के काले सफ़ेद बाल वर्षों से देख रहे हैं औऱ वो उनके ऊपर बहुत जँचते भी हैं। कई ऐसे नौजवानों को भी जानते हैं जिनके सर से बाल कम उम्र में ही गायब हो गये औऱ उन्होंने उसको छिपाया नहीं। आजकल तो कई लोग इसको एक फ़ैशन के रूप में भी देखते हैं। जैसे दाढ़ी रखने का इन दिनों ज़बरदस्त चलन है।
बालों को रंगने या तकनीकी मदद से उनको पुराने जैसा बनाये रखने के बारे में आपकी क्या राय है?
जनवरी की सर्दी जाते जाते औऱ गर्मी के बीच एक मौसम आता है। बसंत की ओर या इश्क़, मोहब्बत वाली फ़रवरी की तरफ़ मेरा इशारा कतई नहीं है। वैसे हमारे समय में वैलेंटाइन डे का इतना कुछ हो हल्ला नहीं था जैसा इन दिनों है। फ़रवरी शुरू होते ही हर जगह बस यही चलता रहता है। जहाँ तक बसंत पंचमी की बात है तो माँ सरस्वती की पूजा औऱ पीला रंग पहनने का काम बिल्कुल होता है।
बहरहाल, जिस मौसम की मैं बात कर रहा हूँ, वो है अपनी नई जिंदगी की तरफ़ एक औऱ कदम बढ़ाने का। अब अग़र फ़लसफ़े की बात करें तो हम रोज़ ही उस दिशा में कदम बढ़ाते रहते हैं। लेक़िन इस बात का एहसास उस समय ज़्यादा होता है जब आप स्कूल छोड़कर कॉलेज की तरफ़ बढ़ते हैं औऱ कॉलेज छोड़ आगे की पढ़ाई या नौकरी की तरफ़।
तो ये जो मौसम है जो सर्दी औऱ गर्मी के बीच में रहता है वो है फेयरवेल का या अपने स्कूल औऱ कॉलेज से बिदाई का। परीक्षा के ऐंन पहले आपकी संस्था से बिदाई।
जब तक स्कूल की पढ़ाई करते रहते हैं तब लगता है कॉलेज कब जाने को मिलेगा। जो आज़ादी दिखती है कुछ भी ओढ़ने पहनने की और क्लास का मूड न हो तो यार दोस्तों के साथ चाय की दुकान पर समय बिताने का या कोई नई फ़िल्म देखने निकल जाना। लेक़िन जब स्कूल छोड़ने से पहले ये बिदाई का क्षण आता है तो पिछले सालों की यादें आंखों के सामने आ जाती हैं।
स्कूल में तो फ़िर भी ये समारोह बहुत ही सलीके से आयोजित होता है। सब इस मौक़े को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। मस्ती, मज़ा, नाच, गाना औऱ फ़िर वो क्षण जब आप स्कूल को अलविदा कहते हैं। स्कूल में जब फेयरवेल हुई तो सब थोड़े भावुक भी हो गये थे। मुझे भी इन चार सालों में लगाव हो गया था लेक़िन बहुत से ऐसे विद्यार्थी थे जिनका बचपन यही से शुरू हुआ था। उनका लगाव कुछ ज़्यादा था औऱ बिछड़ने का ग़म भी।
हमारे समय में इस आयोजन की इतनी तैयारी नहीं हुआ करती थी। मतलब आज के जैसे नये कपड़े औऱ कई जगह तो एक से ज़्यादा पार्टी भी होती हैं। कई बच्चे तो साथ मिलकर अलग पार्टी भी करते हैं इस खास मौक़े पर। शायद हमारे समय में भी ऐसा कुछ हुआ हो लेक़िन मुझे कोई न्यौता नहीं था।
जहाँ तक तैयारी की बात है तो मुझे बिल्कुल भी ध्यान नहीं कुछ विशेष तैयारी करी हो। उस समय जो सबसे अच्छे कपड़े रहे होंगे वही पहन कर गये थे। बहुत से लड़के सूट-पेंट-टाई में भी थे। जैसा मैंने पहले बताया था सरकारी घर के बारे में, हमारे आसपास शिक्षण संस्थाएँ थीं। छात्राओं वाली संस्था ज़्यादा थीं तो जिस दिन उनके यहाँ ये समारोह होता था, बाहर कुछ ज़्यादा ही रौनक़ रहती।
वापस तैयारी पर आयें तो दोनों बहनों ने भी माँ की कोई अच्छी सी साड़ी पहन कर ही अपनी फेयरवेल मनाई। हम लोगों के साथ साथ हमारे माता पिता के लिये भी ये एक यादगार क्षण होता है। उनकी संतान जीवन का एक नया अध्याय शुरू करने को तैयार हैं औऱ अपने भविष्य के निर्माण की तरफ़ क़दम बढ़ा रहे हैं।
कॉलेज में आकर सब बदल जाता है। मैं जिस संस्था में गया था वो बहुत बड़ी तो नहीं थी औऱ न ही ज़्यादा भीड़भाड़ वाली। मतलब सब काम आराम से होता था। लेक़िन स्कूल के बाद कॉलेज में जो बदलाव आया वो था अनुशासन औऱ परंपरा। जी बिल्कुल मोहब्बतें वाले अमिताभ बच्चन के जैसे।
स्कूल में तो सभी बाहरवीं के छात्रों के लिये एक ही ऐसा कार्यक्रम होता। लेक़िन कॉलेज में साइंस, आर्ट्स, कॉमर्स औऱ ग्रेजुएट एवं पोस्ट ग्रेजुएट सभी कक्षायें। सभी का फेयरवेल एक साथ कैसे संभव था। वैसे इसका पता भी नहीं चला। वो तो जब सेकंड ईयर में आये तब जनवरी आते आते फाइनल ईयर के लिये इस कार्यक्रम की चर्चा शुरू हुई।
जो तीसरी चीज़ मोहब्बतें में नहीं थी वो थी राजनीति। ये भी स्कूल से अलग मामला था। कॉलेज में छात्र नेता तो थे लेक़िन कभी आमना सामना नहीं हुआ था। इस कार्यक्रम के चलते वो मौका आ ही गया। मेरे साथ के कुछ सहपाठी का इन छात्र नेताओं से संपर्क था। जब फेयरवेल का कार्यक्रम बना तो पता चला दो गुट हैं औऱ उनकी इस कार्यक्रम को लेकर सहमति नहीं बनी।
हम लोगों पर ये दवाब था की कार्यक्रम हो। तो एक दिन नियत किया औऱ जितने लोगों को आना हो या जायें कार्यक्रम होगा। दूसरे गुट को भी जानकारी थी। हम लोगों की मजबूरी थी। उस दिन फिल्मों वाला सीन सामने देखने को मिला। मार पिटाई हुई औऱ सारी तैयारी धरी की धरी रह गयी। बस जो अच्छी बात हुई वो ये की हम लोगों को समोसे औऱ कोल्ड ड्रिंक पीने को मिल गई।
जब हमारी बारी आई तब तक ऐसे आयोजन पर रोक लग गयी थी। हम सब कहीं बाहर मिले औऱ साथ खाना खाया। जब 1988 में क़यामत से क़यामत तक आयी थी तब फेयरवेल का एक अलग माहौल देखने को मिला था। लेक़िन असल ज़िन्दगी में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला। आमिर खान के जैसे सेकंड ईयर वालों का औऱ प्रीवियस के छात्रों का शुक्रिया करने का सपना ही रह गया।
फ़िल्मों में स्कूल कॉलेज तो बहुत दिखाये लेक़िन फेयरवेल वाले कुछ ज़्यादा याद नहीं। एक बी आर चोपड़ा की फ़िल्म थी निक़ाह। उस फ़िल्म में एक बेहद खूबसूरत गीत था बीते हुये लम्हों की कसकसाथ तो होगी । गाने के बोल से तो ये फेयरवेल वाला लगता है लेक़िन है ये सालाना होने वाले कार्यक्रम का हिस्सा। इसके अलावा औऱ तो कुछ याद नहीं।
संभव तो कुछ भी है। अग़र वो हमारे सेकंड ईयर के छात्र अगर ये पढ़ रहें हो तो, उनका शुक्रिया। औऱ आपको भी शुक्रिया कहेंगे की आप ये पढ़ रहे हैं। औऱ शुक्रगुजार रहेंगे अगर आप इस पर अपनी विशेष टिप्पणी साझा करें औऱ इसको आगे बढ़ायें। फ़िलहाल ये गाना देखें।
इस साल 26 जनवरी की बात है जब फ़िल्म रंग दे बसंती के बारे में पढ़ रहा था। वैसे तो इस फ़िल्म से जुड़ी बहुत सी बातें बेहद रोचक हैं औऱ मैंने लगभग मन भी बना लिया था क्या लिखना है, लेक़िन जब तक लिखने का कार्यक्रम हुआ तो कहानी बदल गयी।
आज जब लता मंगेशकर जी ने अपने प्राण त्यागे, तब लगा जैसे हर कहानी को बताने का एक समय होता है वैसे ही शायद उस दिन ये पोस्ट इसलिये नहीं लिखी गयी। फ़िल्म के बारे फ़िर कभी, फ़िलहाल इसके एक गाने के बारे में जिसे लता जी ने रहमान के साथ अपनी आवाज़ दी है।
जब फ़िल्म लिखी गयी थी औऱ उसके गाने तैयार हुये थे तब ये गाना उसका हिस्सा थे ही नहीं। फ़िल्म पूरी शूट हो गयी औऱ उसके पोस्ट प्रोडक्शन पर काम चल रहा था। रहमान जो फ़िल्म के संगीतकार भी हैं, इसका बैकग्राउंड संगीत भी दे रहे थे। जब आर माधवन की मृत्यु वाला सीन चल रहा था औऱ उसका बैकग्राउंड संगीत दिया जा रहा था तब निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा एवं गीतकार प्रसून जोशी को ये आईडिया आया। ये निर्णय लिया गया की उस पूरे प्रसंग के लिये संगीत के बजाय गाने का इस्तेमाल किया जायेगा।
दरअसल मेहरा बहुत दिनों से लता जी से इस गाने के बारे में बात कर रहे थे। लेक़िन किन्हीं कारणों से ये हो नहीं पा रहा था। जब लता जी से फ़िर से बात हुई औऱ वो गाने के लिये तैयार हुईं तो उन्होंने कहा गाना क्या है कुछ भेज दीजिए। मेहरा ने कहा आप रहमान को जानती हैं। उनका गाना तैयार होते होते होगा औऱ प्रसून जोशी जी लिखते लिखते लिखेंगे। लेक़िन मैंने शूटिंग करली है। उन्होंने राकेश मेहरा से पूछा क्या ऐसा भी होता है? मेहरा ने उन्हें बताया आजकल ऐसा भी होता है।
लता जी चेन्नई में रिकॉर्डिंग से तीन दिन पहले पहुँच कर गाने का रियाज़ किया औऱ तीसरे दिन जब रिकॉर्डिंग हुई तो पाँच घंटे वो स्टूडियो में खड़ी रहीं। राकेश मेहरा को भी लगभग 80 साल की लता मंगेशकर का काम के प्रति लगन देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। जब फ़िल्म का संगीत आया तो ये गाना बाक़ी सभी गानों के पीछे कहीं छुप से गया था। लेक़िन आज बड़ी तादाद में सुनने वाले इसको पसंद करते हैं।
अब किसी गाने में गायक, संगीतकार या गीतकार किसका सबसे अहम काम होता है? जब लता जी से पूछा गया कि उनका कोई गीत जिसे सुनकर उनके आँसूं निकल आते हों तो उन्होंने कहा \”गाने से ज़्यादा मुझे उसके बोल ज़्यादा आकर्षित करते हैं। अगर अच्छी शायरी हो तो उसे सुनकर आंखों में पानी आ जाता है।\”
लता मंगेशकर औऱ मीना कुमारी। (फ़ोटो – लता मंगेशकर जी के फेसबुक पेज से साभार)
गानों को लेकर जो बहस हमेशा छिड़ी रहती है उसमें गायक औऱ संगीतकार को ही तवज्जो मिलती है। गीतकार कहीं पीछे ही रह जाता है। लता जी शायद शब्दों का जादू जानती थीं, समझती थीं इसलिये उन्होंने संगीत औऱ गायक से ऊपर शब्दों को रखा।
लता मंगेशकर जी को शायद एक बार साक्षात देखा था देव आनंदजी की एक फ़िल्म की पार्टी में। मुम्बई में काम के चलते ऐसी कई पार्टियों में जाना हुआ औऱ कई हस्तियों से मिलना भी हुआ। लेक़िन कभी ऑटोग्राफ़ नहीं लिया। अच्छा था उन दिनों मोबाइल फ़ोन नहीं होते थे।
ख़ैर, पीटीआई में जब काम कर रहे थे तब नूरजहां जी का देहांत हो गया। ये रात की बात है। उनके निधन पर हिंदी फिल्म जगत में सबकी प्रतिक्रिया ले रहे थे। नूरजहाँ को लता मंगेशकर अपना गुरु मानती थीं। लेक़िन लता जी मुम्बई में नहीं थीं। अब उनको ढूँढना शुरू किया क्योंकि उनकी प्रतिक्रिया बहुत ख़ास थी। देर रात उनको ढूँढ ही लिया हमारे संवाददाता ने औऱ उनकी प्रतिक्रिया हमें मिल ही गयी।
उनके कई इंटरव्यू भी देखें हैं। एक जो यादगार था वो था प्रीतिश नंदी के साथ। वैसे देखने में थोड़ा अटपटा सा ज़रूर है क्योंकि नंदी उनसे अंग्रेज़ी में ही सवाल करते रहे लेक़िन लता जी ने जवाब हिंदी में ही दिया। मेरे हिसाब से ये एकमात्र इंटरव्यू था जिसमें लता जी से प्यार, मोहब्बत औऱ शादी के बारे में खुल कर पूछा गया। हाँ ये भी है की लता जी ने खुलकर जवाब नहीं दिया। रिश्तों के ऊपर एक सवाल पर तो उन्होंने कह भी दिया की वो इसका जवाब नहीं देंगी।
इसी इंटरव्यू में जब उनसे ये पूछा गया की क्या वो दोबारा लता मंगेशकर बन कर ही जन्म लेंगी तो उनका जवाब था, \”न ही जन्म मिले तो अच्छा है। औऱ अगर वाक़ई जन्म मिला मुझे तो मैं लता मंगेशकर नहीं बनना चाहूँगी।\” जब पूछा क्यूँ, तो हँसते हुये लता जी का जवाब था, \”जो लता मंगेशकर की तकलीफ़ें हैं वो उसको ही पता है।\”
आप सभी ने कभी न कभी वो साबुन वाला विज्ञापन ‘मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता नहीं चलता’ ज़रूर देखा होगा। इसकी एक लाइन है जो वर्षों से चली आ रही है। असल जीवन में मुझे ये विज्ञापन औऱ इसकी ये लाइन तब याद आती है जब…
मेरे साथ अक्सर तो नहीं लेक़िन कई बार हुआ है की मेरे अनुज को मेरा बड़ा भाई बताया गया है। जब भी ऐसा होता तो विज्ञापन की याद आती है। हाल ही में ये घटना एक बार औऱ हो गयी जब साल के अंत में हमारा गोवा जाना हुआ। होटल के रिसेप्शन से मैंने कुछ बात करी थी। उसके बाद भाई पहुँचे तो उनसे बोला आपके छोटे भाई आये थे अभी। पहले तो भाई को समझ में नहीं आता उनका छोटा भाई कौन आ गया। लेक़िन अब वो मुस्कुरा कर गर्दन हिला देते हैं।
इसके पहले आपको लगे इसमें किसी साबुन का योगदान है, तो मैं बता दूँ ऐसा कुछ नहीं है। आज जो ये बडे छोटे वाली बात निकली है दरअसल इसकी वजह हैं मेरी एक पुरानी सहयोगी जो इस समय शायद अपने जीवन के सबसे कठिन दौर से गुज़र रही हैं।
कुछ दिनों पहले उनसे फ़ोन पर बात हुई थी तो वो कहने लगीं, औऱ कुछ भी हो जाये घर का बड़ा नहीं होना चाहिये। बहुत सारी ज़िम्मेदारी होती हैं उनके कंधों पर जो बड़े होते हैं। ये ज़िम्मेदारी कुछ तो उनको इसलिये मिलती हैं क्योंकि वो बड़े हैं औऱ कुछ इसलिये उनको उठानी पड़ती हैं क्योंकि वो बड़े हैं।
परिवार में जो बच्चे बड़े रहते हैं वो समय से पहले ही बड़े हो जाते हैं अपने बड़े होने के कारण। थोड़ा पेचीदा सा लगता है लेक़िन अपने आसपास देखिये। घर में अगर दो बच्चे हैं तो जो बड़ा होता है उसको शुरू से ही यही समझाईश सुनने को मिलती है, \’तुम बड़ी/बड़े हो\’।
ज़्यादातर जितने भी बड़े लोगों को में जानता हूँ वो सभी थोड़े ज़्यादा संजीदा होते हैं। वहीं उसी घर के छोटे जो होते हैं वो ज़्यादा मस्तीखोर, चंचल। बहुत कम घर/परिवार में बड़ों को ऐसा करते देखा है। कभी कभार शायद, लेक़िन ज़्यादातर वो एक गंभीर मुद्रा में रहते हैं।
हिंदी फ़िल्मों को ही देख लीजिये। यादों की बारात के धर्मेंद्र हों या अमर अकबर एंथोनी के विनोद खन्ना। सभी तीनों भाइयों में बड़े भाई थे और सभी गंभीर। फ़िल्म में उनके जो छोटे भाई थे वो ज़्यादा चुलबुले थे।
फ़िल्मों में अगर बड़े भाई की बात करें तो ‘जो जीता वही सिकन्दर’ में भी बड़े भाई को थोड़ा गंभीर। सबका ख़्याल रखने वाला, ज़िम्मेदार। पूरी फ़िल्म में आमिर ख़ान एक के बाद एक मुसीबत में पड़ते रहते हैं औऱ मामिक सिंह उनको बचाते रहते हैं। लेक़िन एक जगह फ़िल्म में मामिक को अपना गंभीर होना छोड़ गाने में क़मर हिलानी पड़ी।
वैसे तो मामिक लगभग सभी गानों में हैं, लेक़िन बाक़ी कलाकारों के जैसे वो उछल कूद नहीं कर रहे हैं। लेक़िन ‘शहर की परियों के पीछे‘ गाने में मामिक आमिर के साथ नाचते हुये दिखाये गये हैं। आप अगर वो गाना देखें तो आपको भी मामिक थोड़े असहज दिखाई देंगे। इसके पीछे का कारण भी फ़राह खान ने बताया। दरअसल फ़िल्म में दो कोरियोग्राफर थे। पहले सरोज खान थीं औऱ बाद में उनकी जगह आईं फ़राह खान। तो सरोज खान ने ये गाना निर्देशित किया था। बक़ौल फ़राह “अगर वो ये गाना करती
फ़िल्मों से असल जीवन में वापस आते हैं। जिन सहयोगी के बारे में बता रहा था, वो घर में बड़ी हैं औऱ इस कठिन समय में सभी को संभालने का काम उन्हें करना है। अक़्सर ये होता है की कई बार सबको संभालते संभालते हम ख़ुद भी संभल जाते हैं। वैसे मेरे जीवन में ऐसे मौक़े जब भी आये हैं तो मेरे मुक़ाबले मेरे अनुज ने कहीं ज़्यादा संभाला है। मुझे संभलने में एक लंबा समय लगता है तो भाई ये ज़िम्मा उठा लेते हैं औऱ मुझे समय देते हैं।
कई ऐसे भी घर के बड़े देखें हैं जो ये भूल जाते हैं कि वो बड़े हैं। अपने छोटों की ग़लतियों के बारे में ख़ामोश रहना ही अपना बड़प्पन समझते हैं। कई बड़े अपना सारा दुख, परेशानी अपने तक ही सीमित रखते हैं। चूँकि वो बड़े हैं तो वो इनके बारे में सबसे बात नहीं कर सकते। सलाह मशविरा बड़ों से, लाड़ प्यार छोटों से।
मुझे कई बार बड़े होने में औऱ किसी संस्था या टीम के लीडर होने में बड़ी समानताएं दिखाई देती हैं। जब आप ऐसी किसी पोस्ट पर आ जाते हैं तो आपको कम से कम बोलना होता है औऱ आपके पास बहुत सी ऐसी जानकारी होती है जिसे आप किसी के साथ शेयर नहीं कर सकते। जो एक बड़ा फर्क़ होता है वो ये की कोई अनुज नहीं होता जो आपकी जगह चीजों को संभाल सके। ये सब आपको करना होता है।
जब मुझे टीम की ज़िम्मेदारी मिली तो बड़ी खुशी हुई। कई बार बहुत कड़े फ़ैसले भी लेने पड़े। उस समय आपके साथ कोई नहीं होता है लेक़िन आपको जो भी काम है वो करना पड़ता है। चूँकि आपको सिर्फ़ एक दो नहीं बल्कि पूरी संस्था या टीम के बारे में देखना होता है, तो आपको बहुत से अप्रिय निर्णय भी लेने पड़ सकते हैं। जैसे हर लीडर का काम करने का औऱ चीजों को देखने का अपना एक अंदाज़ होता है, वैसे ही घर के बड़ों का भी अलग अलग अंदाज होता है। यहाँ फ़र्क़ ये होता है की लीडर के ऊपर औऱ भी कोई बड़ा अधिकारी होता है, लेक़िन घर में ये बड़ों पर आकर रुक जाता है। शायद इसलिये बड़े जो हैं बड़े ही बने रहते हैं।
होंडा की एक कार आयी थी जैज़। उस साबुन के तरह इस कार के विज्ञापन की जो लाइन थी Why so serious… तो आप भी आप बड़े हों या छोटे, जीवन का भरपूर आनंद लें। औऱ कभी मामिक के जैसे गलती से ही सही, नाचने का मौक़ा मिले तो दिल खोलकर नाचें।
आज सुबह सुबह यूँ ही, गाना सुनने का नहीं बल्कि देखने का मन हुआ। अगर आप यूट्यूब पर गाने देखते हैं तो आपको पता होगा पहली बार आप जो देखना चाहते हैं वो ढूँढते हैं उसके बाद सामने से ही सुझाव आने लगते हैं।
मुझे जब सुझाव में क़यामत से क़यामत तक का गीत \’ऐ मेरे हमसफ़र\’ दिखाई दिया तो अपने आपको रोक नहीं सका सुबह सुबह ऐसा मधुर गीत सुनने से। गाने की शुरुआत में दो चीज़ें दिखायीं गयीं जिनका अब इस्तेमाल कम होने लगा है। आमिर खान के सामने घड़ी है क्योंकि संगीत में घड़ी की टिक टिक है। जूही चावला इस गाने से ऐन पहले आमिर से एक दुकान में मिलती हैं जो उन्हें सही वक्त का इंतज़ार करने को कहते हैं।
जूही चावला जब घर पहुँचती हैं तो वो सीधे अपने कमरे में जाती हैं औऱ दीवार पर टंगे कैलेंडर पर पेन से उस दिन पर निशान लगाती हैं जब तक उन्हें इंतज़ार करना है। ये पोस्ट का श्रेय जुहीजी को कम औऱ उस कैलेंडर को ज़्यादा।
आज से क़रीब 10-12 साल पहले तक ऐसा होता था की साल ख़त्म होने को आता औऱ नये कैलेंडर के लिये ढूँढाई शुरू। कैलेंडर से ज़्यादा उनकी जो ये मुहैया करा सकें। सरकारी कैलेंडर तो मिल ही जाते थे सरकारी डायरी के साथ। लेक़िन तलाश होती कुछ अच्छे, कुछ नये तरह के कैलेंडर की। जिनसे मिलना जुलना था तो वो सरकारी कैलेंडर वाले ही थे। जब हमारे पास ज़्यादा हो जाते तो वो आगे बढ़ा दिये जाते।
सरकारी डायरी में ढ़ेर सारी जानकारी रहती जो उस समय लगता था किसी काम की नहीं है। प्रदेश से संबंधित सारे आँकड़े औऱ सभी से संपर्क साधने के लिये फ़ोन नंबर। लेक़िन लिखने की जगह कम रहती औऱ शनिवार, रविवार जो छुट्टी के दिन रहते सरकार के लिये उस दिन तो औऱ कम जगह। मतलब कुल मिलाकर इन डायरीयों की ज़्यादा पूछ परख नहीं थी।
बिज़नेस से जुड़े कम लोगों को जानते थे। फ़िर बचते दुकानदार जिनके यहाँ से सामान आता था। उनके कैलेंडर बड़े सादा हुआ करते थे लेक़िन सब रख लेते थे। निजी क्षेत्र में जो नौकरी करते उनके कैलेंडर की मांग सबसे ज़्यादा रहती। क्योंकि कंपनी पैसा खर्च करके अच्छे कैलेंडर छपवाती, इसलिये ये बहुत ही सीमित संख्या में मिलते कर्मचारियों को। किस को देना है ये बड़ा कठिन प्रश्न होता। लेक़िन तब भी कहीं न कहीं से हर साल कुछ अच्छे कैलेंडर मिल ही जाते।
किसी बड़ी कंपनी की दुकान से आपको ये कैलेंडर अगर किस्मत से मिला तो उसकी कीमत चुकानी पड़ती – एक बढ़िया सा बिल बनवाकर। अगर ऐसी किसी दुकान के आप नियमित ग्राहक हैं तो आपके लिये ये ख़रीदारी ज़रूरी नहीं है। आपके पिछले ख़र्चे की बदौलत आपको कैलेंडर मिल ही जायेगा।
जब पत्रकारिता में कदम रखा तो कई जगह से डायरी, कैलेंडर मिलने लगे। कई बार तो ऑफिस में ही किसी सहयोगी को भेंट दे देते। आख़िर आप कितनी डायरी लिखेंगे? कई बार तो ये भी हुआ की आपके नाम से कुछ आया लेक़िन आप तक कुछ पहुँचता नहीं।
ये कैलेंडर हमारी ज़िंदगी का इतना अभिन्न अंग है। आज वो दीवाल पर भले ही टंगा नहीं हो औऱ हमारे मोबाइल में आ गया हो लेक़िन तब भी एक कैलेंडर आज भी ज़रूर रहता है, वो है पंचांग। सरकारी घर में तो डाइनिंग रूम में इसकी एक नियत जगह थी जहाँ हर साल ये दीवाल की शोभा बढ़ाता। जब कभी तारीख़ देखने की बात होती तो अपने आप नज़र वहीं चली जाती।
महीना बदलने पर कैलेंडर में भी बदलाव होता। जहाँ बाकी अच्छी अच्छी तस्वीरों वाले कैलेंडर में नई तस्वीर होती, पंचांग में ऐसा कुछ नहीं होता। इसमें सब कुछ वैसा ही होता बस नये तीज, त्यौहार औऱ ढ़ेर सारी जानकारी उनके लिये जो इनको मानते हैं या पालन करते हैं। जब तक घर पर रहे तो इन सबकी ज़रूरत नहीं पड़ी, लेक़िन जब बाहर निकले औऱ उसके बाद जब श्रीमतीजी का आगमन हुआ तबसे ये पंचांग भी ज़रूरी चीज़ों में शुमार हो गया है।
मुम्बई आये तो उस पंचांग को ढूँढा जिसको देखने की आदत थी। एक दुकान पर मिल भी गया। लेक़िन जब कुछ दिनों बाद ध्यान से देखा तो मामला कुछ ठीक नहीं लगा। ज़रा बारीकी से पड़ताल करी तो पता चला रंग, स्टाइल सब कॉपी तो किया है लेक़िन असली नहीं है। तबसे हर साल कोशिश रहती है की अगर दीवाली पर घर जाना हो तो नया पंचांग साथ में लेते आयें। पिछले साल ये संभव नहीं हुआ। मुंबई में खोजबीन करके मिल ही गया।
ऐसा नहीं है की महाराष्ट्र में पंचांग नहीं है। लेक़िन हम मनुष्य आदतों के ग़ुलाम हैं। तो बस साल दर साल उसी पुराने पंचांग की तलाश में रहते हैं। घर में अब कैलेंडर के नाम पर बस यही एक चीज़ है। बाक़ी मोबाइल आदि सभी जगह तो कैलेंडर है। इसकी अच्छी बात ये है की एक ही कैलन्डर में आप कुछ नोट करें औऱ हर उस यंत्र में आपको ये देखने को मिल जाता है।
पंचांग में दूध का हिसाब रखने का भी एक हिस्सा है। ये शायद वर्षों से नहीं बदला गया है। ये दूध का हिसाब भी सुबह शाम का है। मुझे याद नहीं हमारे यहाँ दोनों समय दूध आता हो। लेक़िन शायद कहीं अब भी सुबह शाम ऐसा होता हो इसके चलते अभी तक यही हिसाब चल रहा है। एक छोटी सी जगह है जहाँ आप को कुछ याद रखना हो तो लिख सकते हैं। किसी का जन्मदिन या औऱ कोई महत्वपूर्ण कार्य जैसे आपकी रसोई में गैस सिलिंडर की बदली कब हुई। या आपकी कामवाली कब नहीं आयी या कब से काम शुरू किया आदि आदि।
ज़्यादातर कैलेंडर जो होते हैं वो छह पेज के होते हैं जिसमें दोनों तरफ़ एक एक महीना होता। लेक़िन पंचांग में ऐसा कुछ नहीं होता। यहाँ हर महीने का एक पेज होता है। तो उसके पीछे क्या खाली जगह होती है? इसका पता मुझे तब चला जब मुझे नये महीने के शुरू होने पर कैलेंडर में भी बदलने को कहा गया।
पंचांग में तो जानकारी की भरमार होती है ये बात तब पता चली जब इसको पलट कर देखा। वार्षिक राशिफल से लेकर घरेलू नुस्खे, अच्छी आदतें कैसे बनाये औऱ पता नहीं क्या क्या। अगर आपने नहीं देखा हो तो ज़रूर देखें। पढ़ने का काफ़ी माल मसाला है।
कुछ वर्षों से अभिनेत्रियों औऱ अभिनेताओं का एक कैलेंडर काफ़ी चर्चा में रहता है। कैलेंडर का भी एक बड़ा लॉन्च प्रोग्राम होता है जिसमें वो कैसे बना इसकी भी पूरी कहानी होती है। अगर आपको ये कैलेंडर चाहिये तो अच्छी ख़ासी रक़म देनी पड़ती है। उसी तरह एक स्विमसूट कैलेंडर भी काफ़ी चला था। बाद में कंपनी के मालिक अपनी लंगोट बचा कर इधर उधर भागते फिरते रहे हैं। औऱ फ़िलहाल इस कैलेंडर पर भी पर्दा डल गया है।1
हम लोगों के लिये कैलेंडर मतलब सरकारी, या खिलाड़ियों का या फिल्मी हस्तियों का। इसके आगे क्या? ये पता तब चला जब एक परिचित के घर गये। किसी कारण से जिस कमरे में बैठे थे उसका दरवाज़ा बंद हुआ औऱ उसके बाद परिचित थोड़े से असहज औऱ बाक़ी लोगों के चहरे पर हँसी। हुआ यूँ की दरवाज़े के पीछे एक कन्या का बड़ा सा पोस्टर कैलेंडर लगा था। लेक़िन कम से कम कपड़ों में उसकी फ़ोटो से आप की नज़र साल के बारह महीनों तक जाये, तो।
बहरहाल जूही चावला वाला कैलेंडर बढ़िया है कुछ छोटी छोटी बातों को याद रखने के लिये। इतने बड़े कैलेंडर को देखने के बाद आपको भी वक़्त रुका रुका सा लगेगा लेक़िन… वक़्त रहता नहीं कहीं रुककर, इसकी आदत भी आदमी सी है।
अंत में आपसे फ़िर वही गुज़ारिश। इसको पढ़ें औऱ अच्छा लगा हो तो सबको बतायें। बुरा कुछ हो तो सिर्फ़ मुझे।
सर्दियों का मौसम हो और चाय की बात न हो तो कुछ अधूरा सा लगता है। मुम्बई में पिछले कुछ दिनों से अच्छी ठंड पड़ रही है। उत्तर भारत या पूर्वी भाग में जैसी ठंड है उसके मुकाबले में तो कुछ नहीं है, लेक़िन हम मुम्बई में रहने वालों के लिये ये भी काफ़ी होती है।
गोवा (पिछली दो पोस्ट में ये गोआ रहा लेक़िन इस बार सही पकड़ लिया) जहाँ की ख़ुमारी अभी तक नहीं गयी, वहाँ के पीने पिलाने के बारे में मैंने पिछले साल लिखा था। लेक़िन अब कोई ख़ानदानी पियक्कड़ तो हैं नहीं कि सुबह से शुरू हो जायें। सुबह तो चाहिये चाय। औऱ वहीं से शुरू होती है मशक्क़त। वैसे भी घर से बाहर निकलते ही ये चयास आपको कई तरह के अनुभव भी कराती है। क्योंकि गोवा में चाय पी तो जाती है लेक़िन बाक़ी पेय पदार्थों से थोड़ी कम।
जब हम दस ग्यारह बजे नाश्ता करने पहुँचते तो आस पास की टेबल पर पीने का कार्यक्रम शुरू हो चुका रहता था। हम लोग सुबह से लहरों के साथ समय बिताने के बाद से चाय की जुगाड़ में रहते। हर शहर का अपना एक मिज़ाज होता है। गोवा का भी है। यहाँ शामें औऱ रातें बड़ी ख़ूबसूरत होती हैं। लहरों के साथ समय कैसे गुज़रता है पता नहीं चलता शायद इसीके चलते यहाँ सुबह थोड़ी देर से होती है।
वैसे होटल में मशीन वाली चाय, कॉफ़ी दोनों मिलते थे लेक़िन दिन में एक से ज़्यादा बार नहीं पी सकते थे। उसमें अगर बाक़ी सभी तरह की चाय होती तो बदल बदल कर पी जा सकती थी। एक ही जैसी चाय जिसको पीने की इच्छा नहीं हो तो आप कितना पी सकते हैं? ख़ैर एक दिन बाद बाज़ार से टी बैग लाये गये ताक़ि कुछ चाय जैसा
अब हम चाय के शौकीनों के साथ भी मसले रहते। जैसे चाय अगर ताज़ी बनी हुई हो तो उसका ज़्यादा मज़ा आता है औऱ अग़र सामने ही बन रही हो तो उसमें अपने हिसाब से कम या बिना शक़्कर वाली चाय अलग से मिल जाती है। लेक़िन पहले दिन ऐसा कुछ मिला नहीं। पहले से तैयार चाय मिली जो यही कहकर बेची गयी कि अभी अभी बनी है।
समुद्र के किनारे जो रेत रहती है, ख़ासकर वो जो सूखी रेत रहती है, उसपर चलने में ढ़ेर सारी मशक्कत करनी पड़ती है। वहीं अग़र आप सागर किनारे चलें तो गीली रेत के कारण चलना आसान होता है। चूँकि जिस जगह हम रुके थे वहाँ से बीच मुश्किल से दो मिनट की दूरी पर था तो कमरे से बिना किसी चरणपादुका के ही निकल जाते। अब वो हाँथ में चरणपादुका के साथ तस्वीर किसी भी तरह से खूबसूरत नहीं लगती। एक बार किसी ने उतार कर दी औऱ घूमने लगे। थोड़ी देर बाद बड़ी लहर आई तो चरणपादुका वापस लेकर बस निकल ही गयी थी कि नज़र पड़ गयी। तो अपनी सहूलियत के लिये बस ऐसे ही कमरे से निकल जाते।
वापस चाय की यात्रा पर आतें हैं। तो दूसरे दिन पहले दिन के अनुभव के बाद सुबह सुबह सागर किनारे ये निर्णय लिया की आज कहीं औऱ चाय पी जाये। बस फ़िर क्या था, निकल पड़े प्याले की तलाश में। गोवा के बारे में जैसा मैंने पहले भी कहा था, ओढ़ने पहनने पर कोई ज़्यादा ध्यान नहीं रहता। तो जब हम निकले चाय की तलाश में तो पैरों में कुछ नहीं पहना था। जब तक सागर किनारे रहे कुछ फ़र्क नहीं पड़ा। जब सड़क पर पहुँचे तो यही लगा गोवा पहुँचकर हम भी मिलिंद सोमन हो गये। काश उनके जैसे फिट भी होते। लेक़िन हमने शुरुआत उनकी दूसरी आदत से करी – नंगे पैर घूमना। हम गोवा की गलियों में चाय ढूंढ़ते हुये औऱ उसके काफ़ी देर बाद भी ऐसे ही घूमते रहे।
वैसे उस दिन बढ़िया चाय मिली भी। जो ताज़ी बनी हुई थी साथ ही कुछ बढ़िया नाश्ता भी। उसके बाद भी ऐसे ही, बिना चरणपादुका के, नाश्ता करने भी पहुँच गये। वो तो अच्छा हुआ की उस होटल में कोई ड्रेस कोड नहीं था, अन्यथा हम भी ख़बर बन गये होते।
नये साल को शुरू हुये एक हफ़्ता भी हो गया औऱ लगता है अभी कल की ही बात है जब हम गोआ में नये साल का स्वागत कर रहे थे। कहाँ 2021 के गुज़रने का इंतज़ार कर रहे थे औऱ कहाँ 2022 ही हफ़्ते भर पुराना हो गया है।
जब साल ख़त्म हो रहा था तब से मैं यही सोच रहा था 2021 का अपना अनुभव लिखूँ। लेक़िन अचानक गोआ का कार्यक्रम बन गया औऱ लिखने का कार्यक्रम पीछे रह गया। जो साल की आखिरी पोस्ट मैं लिख पाया वो भी जैसे तैसे हो ही गया। जब 31 दिसम्बर की ढेरों फ़ोटो देखीं तो ज़्यादातर में फ़ोन पर ही कुछ करता हुआ दिख रहा हूँ। दरअसल वो बस लिखने का प्रयास ही कर रहा था। उस बीच में खाना औऱ पीना दोनों भी चल रहा था।
ख़ैर, जब वापस लौटने का कार्यक्रम बना तो मैंने बस से आने का कार्यक्रम बनाया। अपने जीवन में मैंने सबसे कम बस से यात्रायें करीं हैं। जब भी ये यात्रायें हुईं तो वो सरकारी बस से ही हुई औऱ उन्हीं जगहों पर जाना हुआ जहाँ रेलगाड़ी से जाना संभव नहीं था। अब हमारी सरकारी बसों के बारे में जितना लिखा जाये वो कम ही है। हमारे देश की एक बड़ी जनता के लिये बस ही सस्ता औऱ सुलभ यात्रा का साधन रहा है लेक़िन सुविधाओं में विकास उतना तेज़ी से नहीं हुआ। हाँ, निजी बस सर्विस ज़रूर शुरू हो गईं लेक़िन ये यात्रायें कितनी आरामदायक हो गईं हैं, इसका अनुभव मुझे करना था। शायद एकाध बार ही वीडियो कोच बस में यात्रा करी है औऱ उसकी भी कोई ज़्यादा याद नहीं है।
लेक़िन गोआ से मुम्बई से पहले चलते हैं प्राग। जब ऑफिस की सालाना मीटिंग के लिये प्राग जाना हुआ तो म्युनिक से बस से जाना था। शायद तीन-चार घंटे की यात्रा थी। पहले ही लंबी विमान यात्रा उसके बाद ये बस यात्रा – लगा जैसे सब गड़बड़ हो गया। लेक़िन जब बस बैठे तो एक बड़ी सुखद अनुभूति हुई। एक तो क़माल की रोड हैं उसपर बडी आरामदायक बस। जो नई बात थी वो थी बस में एक शौचालय। ये पहली बार किसी बस में देखा था। अपने यहाँ तो बस रुकने तक रुकिये या बस रुकवाईये। बीच में जहाँ बस रुकी भी तो वहाँ भी बड़े अच्छे शौचालय थे औऱ एक छोटी सी दुकान जहाँ खाने पीने का सामान मिलता है।
जब गोआ से मुम्बई की स्लीपर कोच में सीट बुक करी तो मैं बड़ा उत्सुक था इस यात्रा को लेकर। मेरा ये मानना है जब तक आपको किसी भी चीज़ का व्यक्तिगत अनुभव न हो तो उसके बारे में कहना या लिखना एक ग़लत बात हो जाती है। कई बार मन में आया की किसी तरह ट्रैन में टिकट जुगाड़ी जाये औऱ आराम से घर पहुंचा जाये। भाई ने भी बोला ट्रेन में मुंबई तक साथ चलने के लिये। लेक़िन रात भर की बात थी तो मैं भी तय कार्यक्रम के अनुसार ही चला।
अग़र आपने इन बसों में यात्रा न करी हो तो इनकी सीट रेल की बर्थ की तरह ही होती हैं। जगह ठीकठाक रहती है। आपको सोने के लिये थोड़ी मशक्कत करनी पड़ सकती है। क्यूँ? इस पर आगे। तो यात्रा शुरू हुई औऱ सीट पर बैठने या कहें लेटने के बाद उठने के कष्ट के अलावा औऱ कोई परेशानी नहीं हुई। बीच में भोजन के लिये रुके औऱ वापस अपनी सीट पर। बस शायद हर दो घंटे के बाद कहीं रुकती क्योंकि एक बंदा आकर बोलता किसी को अग़र लघुशंका के लिये जाना हो तो चला जाये।
मतलब इस बस में शौचालय नहीं था। शायद कुछ बसों में ये सुविधा अब मिलने लगी है लेक़िन सभी बसों में ये उपलब्ध नहीं है। वैसे स्लीपर कोच की यात्रा बहुत आरामदायक हो सकती है (अगर आपको उठने बैठने में परेशानी न हो तो)। लेक़िन हमारे यहाँ इसके आरामदायक होने में अभी कुछ वर्ष लगेंगे। कारण? यात्रा के आरामदायक होने के लिये दो चीज़ों का होना बहुत ज़रूरी है। एक तो बस का आरामदायक होना औऱ दूसरा सड़कों का अच्छा निर्माण।
गोआ से चले तो कुछ हिस्से तक सड़क बहुत बढ़िया थी। अब किसी अदाकारा के गालों की मिसाल देना तो ठीक नहीं होगा। बस बहुत अच्छी रही शुरू के एकाध घंटे की यात्रा। उसके बाद जब ख़राब सड़क आयी तो उह, आह, आउच वाली स्थिति रही। ख़ैर कुछ देर बाद ख़राब सड़क कब ख़त्म हो गयी औऱ कब नींद लग गयी पता नहीं चला।
थोड़े समय बाद ऐसा आभास हुआ की बस तो चल ही नहीं रही है। शायद इसलिये अच्छी नींद आ रही थी। खिड़की से देखा तो ऐसा नहीं लगा किसी होटल पर रुके हैं क्योंकि ज़्यादातर ड्राइवर चाय पीने के लिये कहीं रुकते हैं। यहाँ तो वो भी गायब। किसी तरह उठकर बाहर आये तो पता चला बस में कुछ ख़राबी है जिसको वो लोग ठीक कर रहे थे। नींद तो आ ही रही थी तो वापस पहुँच गये नींद्रलोक लोक में।
थोड़ी देर बाद फ़िर नींद खुली तो लगा अभी भी बस नहीं चल रही है। नीचे उतरकर पता किया तो बताया इसको ठीक करने कंपनी का मैकेनिक ही आयेगा। पंदह बीस मिनट से शुरुआत होते होते बात आठ घंटे तक खींच गयी। उसके बाद फ़िर यात्रा शुरू हुई तो सुबह के घर पहुँच कर काम शुरू करने का कार्यक्रम धरा का धरा रह गया औऱ ग्रह प्रवेश शाम को ही हो सका।
ऐसी घटनायें मैंने सुन तो रखीं थीं लेक़िन पहली बार अनुभव किया था। इंदौर से बिलासपुर (छत्तीसगढ़) जाने के लिये एक इंदौर-बिलासपुर ट्रैन चलती है। इसमें भोपाल से भी कोच लगता है। अभी का पता नहीं लेक़िन पहले ये ट्रेन बहुत ही लेट लतीफ़ हुआ करती थी। भोपाल से चढ़ने वाले यात्रियों की सुविधा के लिये रेलवे ने उनको कोच में बैठने की इजाज़त से दी। यात्रियों के लिये भी ये सुविधाजनक हो गया। इंदौर से ट्रैन जब आये तब आये, वो आराम से बैठ सकते थे औऱ सो भी सकते थे।
एक बार किसी परिचित का जाना हुआ। उनको स्टेशन पर छोड़कर आ गये क्योंकि ट्रेन का कोई अता पता नहीं था। वो भी आराम से सोने चले गये। जब सुबह गाड़ी के जबलपुर पहुँचने के समय पर उठ कर दरवाज़े पर आये तो उन्हें स्टेशन थोड़ा जाना पहचाना से लगा। औऱ क्यूँ न लगे क्योंकि उनकी ट्रैन या कहें उनका कोच अभी तक भोपाल में ही खड़ा हुआ था।
इस ट्रेन का भोपाल आने का समय भी अल सुबह होता था। लेक़िन जितना इसको जाने में समय लगता, आने में ये बिल्कुल समय पर या उससे भी पहले। सर्दियों की सुबह किसी को स्कूटर पर लेने जाना हो तो आनंद ही आनंद। उसपर ट्रेन के इंतज़ार में अग़र स्टेशन की चाशनी जैसी चाय भी हो तो सुभानअल्लाह। वैसे चाय से गोआ का एक वाक्या भी याद आया लेक़िन उसके लिये थोड़ा इंतज़ार।
ख़ैर, साल के दूसरे ही दिन ख़ूब सारा ज्ञान प्राप्त हुआ। औऱ ये सब अपने ही एक निर्णय के चलते। तो क्या आपको स्लीपर कोच से यात्रा करनी चाहिये? ये इसपर निर्भर करता है आप उम्र के किस पड़ाव पर हैं। औऱ आप अगर जिस जगह जा रहें हैं वहाँ की सड़कों हालत की थोड़ी जानकारी निकाल लें तो बेहतर होगा। यही यात्रा अग़र बैठे बैठे करी गई होती तो? तो शायद ये पोस्ट नहीं होती। ये हम लोगों की यूँ होता तो क्या होता वाली सोच हमेशा कहीँ न कहीं प्रकट हो जाती है। श्रीमतीजी को भी लगा की मैंने फ़ालतू इतनी मुसीबत झेली। लेक़िन सब कुछ होने के बाद तो सभी समझदार हो जाते हैं। देखिये अब अग़र कहीं आसपास जाना होता है तो क्या इस फ़िर से बस यात्रा के लिये मन बनेगा?
आप सभी इस पोस्ट को पढ़ें औऱ आगे भी शेयर करें औऱ थोड़ा कष्ट अपनी उंगलियों को भी दें इस सर्दियों में। एक कमेंट लिख कर बतायें आपकी प्रतिक्रिया। आपकी बस यात्रा का अनुभव। आप तक ये पोस्ट किस तरह पहुँचे ये भी बतायें। क्या एक औऱ … व्हाट्सएप ग्रुप आप को परेशान तो नहीं करेगा? आपके जवाब/बों का इंतज़ार करेगा असीम।
नये वर्ष का स्वागत के तरीक़े में जैसे हम देखते देखते बड़े हुये, उसमें अब काफ़ी बदलाव आया है। ये बदलाव हालिया नहीं है औऱ हमारे समय से ये देखने को मिल रहा है।
जब हम बड़े हो रहे थे तो नये वर्ष से सम्बंधित ऐसी कुछ याद नहीं है। ये 1984 तक की बात होगी। उसके बाद हमारे जीवन में टीवी का प्रवेश हुआ। उसके बाद नये साल का मतलब हुआ करता था परिवार के साथ दूरदर्शन के कार्यक्रम देखना औऱ चूँकि दिसंबर के महीने में गाजर आ जाती थी तो गाजर के हलवे से मुंह मीठा कर साल की बदली मनाना। कभी कभार कुछ रिश्तेदार भी साथ में होते। लेक़िन ऐसा कम ही होता था क्योंकि बहुत रात हो जाती थी औऱ कड़ाके की सर्दी भी हुआ करती है इस समय, तो सब अपने अपने घरों में ये कार्यक्रम मानते।
पहला बदलाव आया जब बाहरवीं के समय साथ पढ़ने वालों ने एक मित्र के घर एक पार्टी का आयोजन किया। मुझे ये मिलना जुलना पसंद वैसे ही कम था। लेक़िन किसी दोस्त के कहने पर मैंने भी हांमी भर दी। कैंपियन स्कूल, जहाँ से मेरी पढ़ाई खत्म हुई, वहाँ काफ़ी बड़े घरों के लड़के भी पढ़ने आते थे, उनकी पार्टी भी कुछ अलग तरह की होती (ये मुझे वहाँ पहुँचने के बाद पता चला)।
वहाँ काफ़ी सारे स्कूल के मित्र तो थे ही, कुछ औऱ लोग भी थे। दिसंबर की उस आख़िरी रात मैं स्कूटर पर था औऱ सर्दी भी कड़ाके की थी। बहरहाल तैयार होकर, पिताजी का कोट औऱ टाई लगाकर हम भी पहुँचे। अब इस तरह की जो पार्टियाँ होती हैं ये भी मेरे लिये पहला ही अनुभव था। इससे पहले कभी किसी जन्मदिन की पार्टी में जाना हुआ होगा लेक़िन वो एक अलग तरह की पार्टी होती थी।
इस पार्टी में शायद पहली बार शराब या बियर मिलते हुये देखा था। हमारे जान-पहचान में बहुत कम लोगों को ऐसे खुलेआम शराब पीते हुये देखा था। पिताजी के ऐसे कोई शौक़ नहीं थे औऱ न उनके मिलने जुलने वालों में ऐसा होते हुये देखा था। ये सारे कार्यक्रम सबसे छिपते छिपाते हुये करे जाते थे। कई लोगों के बारे में ये जानकारी तो थी लेक़िन सामने पीने का चलन उन दिनों शुरू नहीं हुआ था।
मुझे याद है जब एक परिचित जो की मदिरा का सेवन करते थे, उनके यहाँ उनके पुत्र का विवाह था। उनका बस यही प्रयास था की किसी तरह हम लोगों को शराब पिलाई जाये। उनके कई सारे प्रयास असफल हुये लेक़िन एक दिन वो अपने मिशन में कामयाब हो ही गये। जैसा की होता है, आपको तो लेनी ही पड़ेगी। थोड़ी थोड़ी। लेक़िन उनके प्रयासों को तब धक्का लगा जब उनकी महँगी महँगी शराब से सजे बार में से कुछ न लेते हुये एक घूँट बियर का ले लिया। उसके बाद कई समारोह में जाना हुआ लेक़िन उन्होंने बुलाना छोड़ दिया। जिनको इसका न्यौता मिला उन्होंने बार की भव्यता के बारे में बताया।
इन दिनों पीने पिलाने का चलन बढ़ गया है। किसी शादी में अगर शराब नहीं तो जैसे कुछ कमी सी रह जाती है। अब आज ये पीने पिलाने के विषय में क्यों ज्ञान बाँटा जा रहा है?
पिछले दिनों ऐसे ही अचानक नव वर्ष गोआ में मनाने का कार्यक्रम बन गया। गोआ इससे पहले भी आना हुआ जब ऑफिस की एक ट्रिप हुई थी। अगर आप कभी गोआ नहीं आये हों तो ये एक तरह का कल्चर शॉक साबित होता है। आप किसी भी शहर में रहते हों, जिस खुलेपन से यहाँ जीवन का आंनद लिया जाता है आपको लगेगा आपने अभी तक कुछ नहीं किया है।
जब मैं पहली बार यहाँ आया तो मुझे जितनी आसानी से शराब मिलती है, ये देख कर एक झटका सा लगा था। इसके पीछे कई कारण हैं। भोपाल में शराब की दुकानें औऱ बार देखे थे। दोस्तों के साथ एकाध बार जाना भी हुआ था। जब नौकरी के सिलसिले में पहले दिल्ली औऱ बाद में मुम्बई जाना हुआ तो बहुत सीमित जगहों पर ये पीने पिलाने का कार्यक्रम होता था।मुम्बई में जहाँ मैं रहता हूँ वहाँ तो कोई शराब की दुकान ही नहीं है। अगर आप पीने का शौक़ रखते हैं तो आपको थोड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
अब ऊपर जिस तरह के माहौल को मैंने देखा था, उसके बाद गोआ में जिस तरह का चलन या कहें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी। जैसे बाक़ी शहरों में कोल्ड ड्रिंक मिलती है, उतनी आसानी से शराब मिलती है, ये देखकर झटका लगना स्वाभाविक ही है। उसके बाद यहाँ कोई तैयार होकर घूमने का कोई चलन नहीं है। आप कम से कम कपड़ों में अपना काम चला सकते हैं।
एक बार आप गोआ आ जायें तो ज़िंदगी एक बड़ी पार्टी की तरह लगती है। सब बस बिंदास, बेफ़िक्र होकर तीन चार गुज़ारते हैं उसके बाद वही ढ़र्रे वाली ज़िंदगी में वापस। जैसे आज 2021 के आख़िरी दिन जब ये पोस्ट लिख रहा हूँ तो सभी औऱ से गानों का ज़बरदस्त शोर है। इस शोर में 2021 में जो भी हुआ वो तो नहीं दबेगा। 2020 के बाद मेरे जीवन में बहुत सारे बदलाव हुये औऱ जैसे इनको अपना कर 2021 शुरू ही कर रहे थे की कोरोना ने अपने तरीक़े से कुछ ज़िन्दगी के नये फ़लसफ़े सिखाये, पढ़ाये। ये क्लास अभी भी शुरू है।
जिस तरह का 2021 हम सभी के लिये रहा है, गोआ से यही सीख मिलती है पार्टी रोज़ चलती रहनी चाहिये। मतलब पार्टी जैसी सोच। किसी भी बात को ज़्यादा गंभीरता से न लें। हाँ, नशा ज़िन्दगी का हो, कुछ अच्छा करने का, कुछ असीमित करने का। 2022 आप सभी के लिये शुभ हो, इसी कामना के साथ।
रविवार सचमुच एक बड़ा ही खास दिन है। मैंने पहले कभी लिखा था रविवार औऱ उस दिन सुबह दूरदर्शन पर आने वाले कार्यक्रमों के बारे में। ये बिल्कुल सही है टीवी के हमारे जीवन में आने के बाद बहुत सारे बदलाव हुये हैं। लेक़िन इन कार्यक्रमों का आगमन काफ़ी बाद में हुआ है। इसके पहले मनोरंजन का साधन तो नहीं लेक़िन रविवार का दिन होता था अख़बार पढ़ने का औऱ उस दिन जो रविवारीय आता था उसको पढ़ने का।
वैसे पूरे हफ़्ते ही कुछ न कुछ पढ़ने को रहता था अख़बारों में। कुछेक कॉलम हुआ करते है जिनको पढ़ना अच्छा लगता था। मेहरुनिस्सा परवेज़ का नईदुनिया में एक कॉलम आता था जिसे कब पढ़ना शुरू किया याद नहीं लेक़िन एक लंबे समय तक उनका लेख पड़ता रहा। उनके बारे में ज़्यादा कुछ पता नहीं था। जब पत्रकारिता शुरू करी औऱ मंत्रालय जाना शुरू हुआ तो कई बड़े अधिकारियों से मिलना हुआ। जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों से नियमित ही मिलना जुलना होता था। चाय का दौर भी चलता था।
ऐसे ही एक बार एक अधिकारी के पास बैठे हुये थे। साथ में जो बाकी पत्रकार साथी थे उनमें से किसी ने पूछा \”औऱ इन दिनों मेहरुनिस्सा जी क्या लिख रही हैं\”। पहले मुझे लगा शायद मैंने ग़लत सुना है। जब मुलाक़ात ख़त्म हुई तो मैंने पूछा आप किसके बारे में पूछ रहे थे? तो उन्होंने कहा इनकी पत्नी मेहरुनिस्सा परवेज़ के बारे में।
किसी भी लेखक का लिखा पढ़ना एक अलग बात होती है। आप जब उनका लिखा पढ़ते हैं तो उनके बारे में नहीं जानते। आप सिर्फ़ उस लेखक को जानते हैं उस व्यक्ति को नहीं। लेक़िन जब सामने वो आते हैं तो जानिये क्या हो जाता है। बहरहाल मेहरुनिस्सा जी से मिलना तो नहीं हुआ लेक़िन मैंने उनके पति से ये ज़रूर कह दिया की वो बहुत अच्छा लिखती हैं। वो अभी भी भोपाल में ही रहती हैं लेक़िन मिलना नहीं हुआ।
तो ये जो अख़बार पढ़ने की आदत बनी थी इसमें आगे जाकर औऱ बढ़ोतरी हुई। एक से ज़्यादा अख़बार पढ़ने लगे। लेक़िन अंग्रेज़ी के अखबारों के कॉलम को पढ़ने में वो मज़ा कहाँ जो हिंदी में है। आज कई ऐसे हिंदी के कॉलम लेखकों को मैं जानता हूँ जो लिखते अंग्रेजी में है फ़िर उसका अनुवाद होता है।
रविवारीय उन दिनों एकमात्र अतिरिक्त पढ़ने की सामग्री वाला दिन होता था। इन दिनों तो कई अख़बार बीच सप्ताह में भी अलग से चार आठ पेज निकाल देते हैं। उन दिनों रविवारीय चार पेज का होता था लेक़िन सब पढ़ने लायक। जब थोड़ी बहुत पढ़ने की समझ आने लगी तो मैंने ये अलग से रखना शुरू किया। कई लेख फ़ुर्सत से पढ़ने वाले होते। उनको जितना समय देना चाहिये वो देते।
बाद में कई अखबारों के सिर्फ़ रविवारीय संस्करण ही ख़रीदने का सिलसिला शुरू हुआ। सप्ताह के बाकी दिनों में वैसे भी पढ़ने का समय नहीं रहता। जब पत्रकारिता शुरू की तो पता चला कई अखबारों में रविवार के अंक की अलग टीम होती थी। वो सिर्फ़ हफ़्ते दर हफ़्ते कैसे अच्छे लेख जुटायें इसीमें जुटे रहते। अंग्रेज़ी अख़बार DNA जब मुम्बई में शुरू हुआ तो उसकी संडे मैगज़ीन सबसे अलग। मात्र दस रुपये में आपको ढ़ेर सारी पढ़ने की सामग्री मिलती। हाँ ये ज़रूर था वो एक अलग तरह के पाठकों के लिये होती थी।
अब तो सब डिजिटल शुरू हो गया है तो श्रीमतीजी सबसे ज़्यादा ख़ुश हैं। किताबों के बाद जो सबसे ज़्यादा मेरा बिखरा सामान रहता वो अख़बार या उसके कुछ पन्ने। कोरोनाकाल के दौरान औऱ उसके बाद अख़बार पढ़ने का ज़रिया भी बदल गया। सारी दुनिया जैसे मोबाइल में समा गई है। विदेशों में ये पहले से हो रहा था की अखबारों की जगह स्क्रीन ने ले ली थी। हमारे यहाँ ये बदलाव कोरोना के चलते बहुत तेज़ी में हो गया।
विदेश से याद आया। मुझे ये जानने की उत्सुकता रहती की विदेशों में लोग रविवार या रोज़ाना भी अख़बार में क्या पढ़ते हैं। इसलिये जब एक परिचित विदेश जा रहे थे तो जैसा होता है उन्होंने पूछा क्या चाहिये। जो मैंने कहा उससे उन्हें आश्चर्य ज़रूर हुआ होगा। मैंने कहा आप जितने दिन रहें बस अखबारों के रविवार के संस्करण इकट्ठा कर ले आयें।
जब वो वापस आये तो मेरे लिये अख़बार लेते आये। मेरे लिये तो मानों लॉटरी लग गयी थी। वहाँ के अख़बार में अच्छे ख़ासे पन्ने होते हैं। शायद अपने यहाँ से दोगुने। मतलब पढ़ने का ढ़ेर सारा मसाला। भोपाल में उन दिनों ब्रिटिश कॉउंसिल लाइब्रेरी हुआ करती थी। जब सदस्य बने तो वहाँ ब्रिटिश अख़बार पढ़ने को मिलते। इसके जैसा पहले होता था जब अख़बार आते थे – जिसको समाचारों में रुचि नहीं होती वो रविवारीय पढ़ते औऱ बाक़ी पेपर के पन्ने भी बाँट लिये जाते। डिजिटल ने ये बाँटने का सुख भी छीन लिया।
आज मुम्बई की सुबह घने कोहरे के साथ हुई तो मुझे मेहरुनिस्सा परवेज़ जी का वो लेख याद आया जिसमें उन्होंने अपने पिताजी के साथ सुबह की सैर के बारे में बताया था। उस दौरान उनकी क्या बातचीत होती औऱ कैसे इस एक आदत ने उन्हें आगे बहुत मदद करी। अग़र हम अपने जीवन में देखें तो ऐसी छोटी छोटी आदतें हमारी दिनचर्या पर बड़ा प्रभाव डालती हैं। जैसे सुबह की चाय साथ में पीने की आदत या रात में खाने की टेबल पर सबका साथ होना। या साथ बैठकर कोई टीवी का कार्यक्रम देखना।
मेहरुनिस्सा जी की तरह ही एक औऱ लेखिका जिनका लिखा बहुत पसंद है, वो हैं उषा प्रियंवदा जी। पिछले दिनों उनका एक पुराना साक्षात्कार देखने को मिला। उनके बारे में बहुत कुछ जानने को भी मिला। क्या सभी लेखकों को सुनने में इतना ही अच्छा लगता है?
आपका रविवार के अख़बारों के साथ कैसा रिश्ता रहा? आप इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर बता सकते हैं। औऱ जैसा पिछली पोस्ट से शुरू किया है – आप इसको पढ़ें औऱ बाक़ी लोगों के साथ भी साझा करें।
आज एक फ़ोटो देखने औऱ एक कहानी पढ़ने के बाद ये पोस्ट लिखना तय हुआ। अब दिमाग़ में तो कहानी बन जाती है, लेक़िन उसको जब लिखना शुरू करो तो मामला टायें टायें फिस्स हो जाता है। चलिये आज फ़िर से प्रयास करते हैं।
तो आज एक अदाकारा ने अपनी नई गाड़ी के साथ फ़ोटो साझा करी। जो गाड़ी उन्होंने ली वो मुझे भी बहुत पसंद है औऱ जीवन में पहली बार बैठना हुआ 2018 में जब दिल्ली में काम करता था। मोहतरमा ने लिखा कि ये गाड़ी खरीदना उनके लिये एक सपने के जैसा है। उन्होंने कभी नहीं सोचा था की उनके जीवन में ये दिन कभी आयेगा।
जो गाड़ी उन्होंने ख़रीदी है वो कोई ऐसी ख़ास महंगी नहीं है। मतलब आज जिस तरह से हमारे कलाकार करोड़ों रुपये की गाड़ी ख़रीद कर फ़ोटो साझा करते हैं, उसके मुकाबले ये गाड़ी कोई ख़ास महँगी नहीं है।
लेक़िन जब आप किसी गाड़ी का अरमान लेकर बड़े होते हैं तो औऱ जब आप उसको ख़रीद लेते हैं तो वो बेशकीमती हो जाती है। उसके साथ जो आपका जुड़ाव होता है वो पैसे से नहीं नापा जा सकता है। उसको ख़रीदना एक सपना ही रहता है। आप सारा जीवन ललचाई नज़रों से औऱ लोगों के पास उस गाड़ी को जब देखते रहते हैं औऱ एक दिन उस लंबे इंतज़ार के बाद जब वही गाड़ी आपके पास होती है तो विश्वास नहीं होता। जब आप उसपर बैठकर घूमने निकलते हैं तो आपका एक अलग अंदाज भी होता है औऱ एक अलग उमंग भी।
पिछले कुछ समय से पिताजी से नई गाड़ी लेने के लिये आग्रह किया जा रहा है। अब वो ज़माने लद गये जब एक ही गाड़ी जीवन भर चल जाती थी औऱ अगर देखभाल ठीक ठाक करी हो तो उसको अगली पीढ़ी को भी सौंप देते हैं। अभी तो नियम कायदे भी ऐसे हो गये हैं की पुरानी गाड़ी रखना मुश्किल है। अभी जो गाड़ी है उसका भरपूर उपयोग किया गया है। पिताजी का गाड़ियों के प्रति वैसे भी कुछ ज़्यादा ही लगाव रहता है।
इसलिये पिताजी को गाड़ी बदलने के लिये मनाना कोई आसान काम नहीं है। उस गाड़ी के साथ ढेरों यादें भी जुड़ी हुई हैं। उसको लेकर कई चक्कर मुम्बई के लगाये हैं औऱ एक बहुत ही यादगार यात्रा रही भोपाल से कश्मीर की। वैसे तो हम लोगों ने कार से कई यात्रायें करी हैं लेक़िन ये सबसे यादगार यात्रा बन गई।
अब इससे पहले की यात्रा के संस्मरण शुरू हो जायें, मुद्दे पर वापस आते हैं। तो मोहतरमा का गाड़ी के प्रति प्यार देखकर मुझे याद आयी मेरे जीवन की पहली गाड़ी। गाड़ी लेने के प्रयास कई बार किये लेक़िन किसी न किसी कारण से ये टलता ही रहा। फ़िर कुछ सालों बाद एक दो पहिया औऱ उसके कुछ वर्षों बाद चार पहिया वाहन भी ख़रीद लिया।
जब कार ख़रीदी तब सचमुच लगा की आज कुछ किया है। तूफ़ानी भी कह सकते हैं। मेरे लिये कार ख़रीदना के सपने के जैसा था। जिस तरह से मैं काम कर रहा था या जैसे शुरुआत करी थी, जब गाड़ी आयी तो लगा वाकई में जीवन की एक उपलब्धि है। औऱ इसी से जुड़ी है आज की दूसरी फ़ोटो जिसका ज़िक्र मैंने शुरुआत में किया था। एक उड़ान खटोले वाली निजी कंपनी ने अपना एक विज्ञापन दिया – हम आपके जीवन के लक्ष्य या बकेट लिस्ट को पूरा करने में आपकी मदद करेंगे।
इन दिनों इस बकेट लिस्ट का चलन भी बहुत है। लोग अपने जीवन में जो भी कार्य उन्हें करने है, कहीं घूमने जाना है, पैराशूट पहन कर कूदना है, या किसी ख़ास व्यक्ति से मिलना है, आदि आदि की लिस्ट बना कर रखते हैं। औऱ उनको पूरा करने का प्रयास करते हैं। जब ये हो जाता है तो सोशल मीडिया पर पूरी दुनिया को बताते हैं।
क्या मेरी कोई लिस्ट है? नहीं। क्योंकि मुझे तो लगता है मेरा जीवन भी कोई बकेट लिस्ट से कम नहीं है। मैं ये लिख रहा हूँ, आप ये पढ़ रहे हैं – ये किसी लिस्ट का हिस्सा नहीं हो सकते। हाँ अब लगता है एक लिस्ट बना ही लूँ लेक़िन उसमें सिर्फ़ एक ही चीज़ लिखूँ। बेशर्मी। नहीं नहीं वो नहीं जो आप सोच रहे हैं, बल्कि बेशर्म हो कर लिखना औऱ उससे भी ज़्यादा बेशर्म होकर सबसे कहना पढ़ो औऱ शेयर करो। औऱ हाँ कमेंट भी करना ज़रूर से। लीजिये शुरुआत हो भी गयी। 😊
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाइश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेक़िन फ़िर भी कम निकले
इन दिनों तो शादी ब्याह की धूमधाम चल रही। जितने भी लोगों को जानते हैं सभी के परिवार में किसी न किसी की शादी का कार्यक्रम है। जिनको नहीं जानते हैं उनकी शादी के अलग अलग कार्यक्रम की तस्वीरें देखने को मिल रही हैं। अब ये कोई विक्की कौशल औऱ कैटरीना कैफ की शादी तो है नहीं। सबने मन भरकर फ़ोटो खींचे हैं औऱ अब जहाँ मौक़ा मिले सब जगह शेयर कर रहे हैं। इतने से भी मन नहीं भरता लोगों को तो वो वहाँ इकट्ठा परिवार वालों से भी वही फ़ोटो लेक़िन दूसरी जगह से खींचा हुआ, वो भी शेयर होता है।
तो वापस शादी पर आते हैं। मेरा विवाह भी इन्हीं दिनों हुआ था। विवाह के लिये कन्या काफ़ी समय से ढूंढ़ी जा रही थी। उन दिनों मुम्बई कर्मस्थली थी औऱ उससे पहले दिल्ली। बहुत से रिश्तेदारों को तो बस इंतज़ार ही था कब मैं धमाका करने वाला हूँ। जब ऐसा नहीं हुआ, मतलब मैंने दिल्ली वाली गर्लफ्रैंड या मुम्बई की मुलगी, को विवाह के लिये नहीं चुना तो उनको मायूसी ज़रूर हुई होगी। बहरहाल, सुयोग्य कन्या की तलाश जारी थी। एक दो जगह तो सबको लगा यहाँ तो पक्की ही समझें। मग़र…
अब थोड़ा सा फ़्लैशबैक के अंदर फ़्लैशबैक। कॉलेज के दिनों में या परीक्षा के दिनों हमारी पढ़ाई, मतलब हम तीन मित्रों की (विजय, सलिल औऱ मेरी) परीक्षा की एक रात पहले से शुरू होती। कई बार साथ पढ़ने का मौक़ा हुआ तो विजय के घर पर ये पढ़ाई होती। ऐसी ही एक रात पढ़ते हुये जीवनसाथी कैसा हो इसपर चर्चा हुई औऱ सबने बताया उनको कैसे साथी की कामना है। उस समय मैं भोपाल से कहीं बाहर जाऊँगा या पत्रकारिता करूँगा ये कुछ भी नहीं पता था। शायद इन दोनों को भी यही लगा था की मेरा विवाह अरेंज नहीं होगा।
जब ये बातें हुई होंगी तो निश्चित रूप से हमने रूप सौंदर्य के बारे में ही कहा होगा। मतलब शक़्ल, सूरत कैसी हो। लेक़िन जब विवाह के लिये कन्या ढूंढना शुरू हुआ तो इसमें कुछ औऱ बातें भी जुड़ गयीं। चूँकि काम करते हुये समय हो गया था औऱ महानगरों में ज़िंदगी एक अलग तरह की होती है। उसपर से पत्रकार की थोड़ी औऱ अलग। मतलब करेला औऱ वो भी नीम चढ़ा। तो इन्हीं अनुभवों के चलते अब जीवनसाथी कैसा हो इसमें थोड़ा बदलाव हुआ था।
एक युवती, जिनसे सब को लगा था मेरा विवाह हो ही जायेगा, से मेरा मिलना हुआ। मतलब इस रिश्ते की बातचीत में जो भी शामिल थे, उन सबकी बातों से मेरे माता-पिता भी ये मान बैठे थे। सगाई की तैयारी शुरू थी (मुझे बाद में पता चला)। लेक़िन मेरी बातचीत हुई तो वो माधुरी दीक्षित ने जो दिल तो पागल है में कहा था, ऊपरवाले ने वो सिग्नल नहीं दिया। सारी तैयारियां धरी की धरी रह गईं। मुझपर बहुत दवाब भी था लेक़िन मुझे उसी दिन मुम्बई वापस आना था तो बात टल गई। हाँ ये बात ज़रूर हुई की जो भी बीच में लोग बातचीत कर रहे थे, वो आज तक इस बात से नाराज़ हैं।
छोटी बहन यशस्विता के विवाह के समय मेरे लिये एक विवाह का प्रस्ताव आया था। लेक़िन हम सब व्यस्त थे तो किसी का ध्यान नहीं गया औऱ फ़ोटो आदि सब उठाकर रख दी गईं थीं। जब एक दो माह बाद भोपाल जाना हुआ तो मुझे फ़ोटो दिखाई गई। अब वापस उस रात तीन दोस्तों की बात पर चलते हैं। जब मैंने फोटो देखी तो मुझे हमारा वो वार्तालाप ध्यान आ गया। मैंने कोई बहुत ज़्यादा मिलने की उत्सुकता नहीं दिखाई। लेक़िन जैसा मेरी सासूमाँ कहा करती थीं, होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
चूँकि मेरी भी बहनों को इस देखने दिखाने के कार्यक्रम से कई बार गुज़रना पड़ा था तो माता पिता ने अपने पुत्रों के लिये ये कार्यक्रम नहीं करने का निर्णय लिया था। उल्टा उन्होंने कन्यापक्ष को न्यौता देकर बुलाया आप पहले लड़के से मिल लीजिए। जहाँ तक कन्या को देखने की बात है तो उन्होंने कहा अगर लड़की मुझे पसंद है तो वो शादी पक्की करके आ जायेंगे। मतलब सारा दारोमदार आपकी हाँ या ना पर था। उसके बाद आप जानो।
अब जो श्रीमतीजी हैं, जब इन्हें मिलने गये तो इनका सखियों के साथ फ़िल्म का प्रोग्राम था, जो मेरे कारण रद्द हो गया था। आपने फ़िल्म ताजमहल का वो गाना तो सुना होगा जो बात तुझमें है, तेरी तस्वीर में नहीं। बस कुछ वैसा ही हुआ। जब वापस आये तो सब मेरी राय जानना चाहते थे। अच्छा पता नहीं ऐसा क्यूँ होता था, जब भी ऐसा कोई कार्यक्रम होता मुझे उसी दिन वापस मायानगरी आना होता था। मैं भी सफ़र का ये समय इस बारे में विचार करने के लिए उपयोग करता था।
उस दिन स्टेशन पर चलते चलते मैंने जो जवाब दिया उसका जैसे बस इंतज़ार हो रहा था। ऐसा पहली बार हुआ था जब मैंने मुम्बई पहुँचकर जवाब देने की बात नहीं करी थी औऱ माता-पिता ने भी बिना देरी किये रिश्ता पक्का कर दिया।
श्रीमतीजी को उस दिन हृतिक रोशन औऱ प्रीति जिंटा की फ़िल्म भले ही देखने को न मिली हो लेक़िन असल जीवन में हम दोनों को ही \’कोई मिल गया\’ था (मुझे पाँच मंज़िल चढ़ने के बाद ही सही)।
भोपाल से जब वापस आये तो साथ में कुछ मीठा हो जाये के लिये कैडबरी नहीं, ग्वालियर की गजक लेकर आये थे। बचपन से गजक मतलब ग्वालियर की गजक। ग्वालियर गजक एक दुकान का नाम है। वैसे भोपाल में मुरैना गजक नाम की दुकान भी है औऱ वहाँ भी गजक मिलती है। लेक़िन कमबख़्त ये ज़बान को औऱ कुछ नहीं जँचता। तो गजक आयी औऱ देखते ही देखते ख़त्म भी हो गयी।
एक दिन सुबह सुबह सफ़ाई के जोश में गजक के कुछ डब्बे मैंने कचरे में डाल दिये। अब जैसा होता है, वैसे इसका उल्टा ही ज़्यादातर होता है जब अपना कुछ सामान कचरे के हवाले होता है। लेक़िन वो सामने वाली पार्टी का दिन था तो सब कचरा छोड़ श्रीमती जी ने उन्हीं डब्बों के बारे में पूछ लिया। अब अगर आप सोच रहें हों कि कहीं मैंने गजक का भरा हुआ डिब्बा तो कचरे के हवाले नहीं कर दिया – तो आप बिल्कुल ग़लत ओर चल पड़े हैं। सब डब्बे खोल कर औऱ उसमें से जो थोड़ी बहुत गजक बची हुई थी, सबके साथ इंसाफ करके ही डिब्बों को हटाया गया था।
मैंने पूछा कि क्या हुआ डिब्बे तो खाली थे? जो जवाब मिला उसका नतीजा बनी ये पोस्ट।
पर्यावरणविदों ने ज़िम्मा उठा रखा है ज्ञान देने का। अब वो देसी हों या विदेशी। समझाया जा रहा है उन चीज़ों का इस्तेमाल करें जो दोबारा इस्तेमाल की जा सकें। ये सब तो हम बचपन से करते आ रहे हैं। किताबों से लेकर कपड़ों तक सब चल ही रहा था औऱ आज भी जिन लोगों को इससे परहेज़ नहीं है या क्लास की फ़िक्र नहीं है वो अभी भी करते हैं।
इसके अलावा बाक़ी जिस चीज़ का ऐसा भरपूर इस्तेमाल होता देखा वो था मिठाई का डिब्बा। सरकारी घर की रसोई में एक अलमारी थी उसके ऊपर लोगों के द्वारा दिये गये या हम लोगों की लायी मिठाई के छोटे बड़े डिब्बे रखे रहते। कोई बाहर यात्रा पर जा रहा होता तो उसके साथ इन्हीं डिब्बे में खाना रख दिया जाता।
कल जब ट्रैन यात्रा के बारे में लिख रहा था तब ये भी ध्यान आया की पहले अग़र किसी की गाड़ी आपके शहर से गुज़र रही होती तो आप स्टेशन पर दस मिनिट के लिये ही सही, जाकर मिलते औऱ साथ खाना भी ले जाते। अब तो ये चलन समाप्त ही हो गया है। अब लोग मिलने का मतलब व्हाट्सएप पर दुआ सलाम कर लेते हैं।
भोपाल का दूसरा रेल्वे स्टेशन, हबीबगंज (रानी कमलापति) घर के नज़दीक ही था। कई बार कोई रिश्तेदार या जान पहचान वाले निकलते तो हमारा जाना होता। तब यही मिठाई का पुराना डिब्बा इस्तेमाल होता। किसी ख़ास के लिये अलग से मिठाई भी लेकर जाते।
ऐसी कभी कभार हमारे साथ भी हुआ है जब ट्रैन से यात्रा करी। बीच के किसी स्टेशन पर कोई जान पहचान वाले या कोई रिश्तेदार खाना लेकर आया। अच्छा ये खाना बहुत तामझाम वाला नहीं हुआ करता था। पूड़ी, सब्ज़ी, अचार औऱ हरी मिर्च। लेक़िन क्या स्वाद होता था। औऱ ताज़ा बना हुआ रहता तो खाने में मज़ा भी आता। इसके पीछे का कारण था वही मिठाई वाला डिब्बा।
वैसे स्टेशन पर ट्रेन पर मिलने के नाम पर लड़का लड़की देखने का कार्यक्रम भी होता। जिन दिनों मेरे विवाह के लिये सुयोग्य वधु की तलाश थी तब भोपाल स्टेशन पर ऐसा हुआ था। ट्रैन तो आगे बढ़ी लेक़िन बात आगे नहीं बढ़ी। बाद में भाई के समय भी ऐसा ही हुआ। वो ट्रैन से यात्रा कर रहे थे तो स्टेशन पर कन्या देखने का प्रोग्राम बना। बस बात आगे नहीं बढ़ी। लेक़िन साथ में जो मिठाई आयी भोपाल उसका हमने भरपूर आनंद लिया।
तो ये जो रिसायकल वाला ज्ञान है दरअसल ये हम लोगों के जीवन का हिस्सा रहा है। वैसे तो कपिल शर्मा शो देखता नहीं लेक़िन पिछले दिनों जूही चावला आईं थीं तो एक क्लिप देखी थी। उसमें उन्होंने एक टूथब्रश की आत्मकथा बताई थी। जब वो दाँत साफ़ करने लायक नहीं रहता तो उससे चीजें साफ़ करते हैं। उसके बाद उसको तोड़ कर उसका इस्तेमाल नाड़ा डालने के लिये होता है।
वापस आते हैं डिब्बे पर। मुम्बई में मिठाई की बहुत दुकानें हैं लेक़िन स्वाद के मामले में बहुत पीछे। पिछले दिनों एक दुकान से मिठाई मंगाई तो मैं पहले तो उसके डिब्बे से ही बहुत प्रभावित हुआ। लेक़िन उसके अंदर की मिठाई भी बड़ी स्वादिष्ट। बहुत लंबे अरसे बाद अच्छी मिठाई खाने को मिली। लेक़िन डिब्बा प्रेम थोड़े दिन रहा।
अब तो ट्रैन में पैंट्री कार होती हैं तो सब उसी के भरोसे चलते हैं। वैसे अगर ट्रैन किसी स्टेशन पर रुकी हो औऱ आपको प्लेटफार्म पर जो मिल रहा हो उसको खाने से कोई ऐतराज़ नहीं हो तो ज़रूर खाइयेगा। उसका अपना स्वाद है। जैसे मुझे इस बार इटारसी स्टेशन पर मिला। दोने में समोसे के साथ आलू की गरम सब्ज़ी औऱ तीखी हरी मिर्च। बहुत ही स्वादिष्ट।हमारी देखासीखी साथ वालों ने भी इसका आनंद लिया।
कई स्टेशन अपनी किसी ख़ास डिश के लिये भी जाने जाते हैं। जब पूना आना होता तो दौंड स्टेशन पर पिताजी बिरयानी लेने ज़रूर जाते। चूँकि गाड़ी वहाँ ज़्यादा देर रुकती है तो दूसरे प्लेटफार्म से भी लाना हो तो समय मिल जाता। वैसे ही वो बतातें उरई के गुलाब जामुन जो आज भी उतने ही स्वादिष्ट हैं।
वैसे खाने के मामले में स्लीपर क्लास का अलग मुक़ाम है। एसी में थोड़े नाज़ नख़रे रहते हैं तो कई खाना बेचने वाले आते ही नहीं। ऐसे ही एक बार चने के साथ बढ़िया प्याज़, हरी मिर्च और मसाला जो खाया था उसका स्वाद आज भी नहीं भूले।
तो उस दिन जो श्रीमती जी का सवाल था वो इसीलिये था। वो उन डिब्बों का इस्तेमाल करना चाहती थीं दीवाली की मिठाई भेजने के लिये औऱ प्लास्टिक के इस्तेमाल से बचना चाह रही थीं। अब डिब्बे तो सफ़ाई की भेंट चढ़ गये थे तो ये ख़्याल ज़रूर आया कि मिठाई मंगा लेते हैं, डिब्बे उनके काम आ जायेंगे। लेक़िन सेहत को ध्यान में रखते हुये इसको अमल में नहीं लाया गया।
जिनको मिठाई पहुँचानी थी उन तक क्या पहुँचा – मिठाई या सोन पपडी का डिब्बा (प्लास्टिक वाला) ये पता नहीं चला। आप फ़िलहाल इस गाने का आनंद लें।
जब पेप्सी भारत में आया था तब उसका एक पेय पदार्थ था 7 up जिसको बेचने के लिये एक कार्टून चरित्र फिडो डीडो का इस्तेमाल किया था। ये क़िरदार बहुत ही अलग था। ज़्यादातर आप किसी बड़ी हस्ती को इन पेय पदार्थों के विज्ञापन करते देखते हैं। लेक़िन इस बार ऐसा नहीं था औऱ शायद इसी कारण से ये यादगार बन गया।
इस फिडो डीडो के कई कार्ड भी चले जो बस तीन या चार शब्दों में कोई संदेश देते जो की उस पेय पदार्थ के बारे में नहीं होता था। उसमें से एक था Normal is boring. इसको दर्शाने के लिए या तो ये क़िरदार उल्टा खड़ा रहता या औऱ कोई उटपटांग हरकत करता।
हम सबकी एक उम्र भी होती है जब नार्मल बोरिंग लगता है। शायद उसी उम्र में आया होगा इसलिये पसंद आया। उम्र के उस दौर में ऐसी ही कुछ उटपटांग हरकतें करने में आनंद भी आता था। वैसे आज बालदिवस भी है तो सब आज ख़ूब ज्ञान भी बाँट रहे हैं।
2020 में नार्मल शब्द जैसे हमारे जीवन से गायब सा हो गया था। इसी साल जनवरी के महीने में दो बार रेल यात्रा करने का अवसर मिला। उसके बाद से घर के अंदर बंद रहना नार्मल हो गया था। बिना घर से बाहर निकले सब ज़रूरी सामान की खरीदारी इंटरनेट के ज़रिये करना नार्मल हो गया था।
जब उसी वर्ष अक्टूबर में दिल्ली जाना हुआ तो उड़नखटोला इस्तेमाल किया गया। वो भी बिल्कुल अलग अनुभव था।
इस वर्ष दीवाली के समय जब फ़िर से रेल यात्रा का संजोग बना तो सबकुछ बहुत अटपटा सा लगा। एक तो लगभग डेढ़ वर्ष से टैक्सी में बैठना नहीं हुआ था तो जब टैक्सी बुक करी तभी से थोड़ी हिचकिचाहट सी थी। हिचकिचाहट दरअसल पूरी यात्रा को लेकर थी। एक विकल्प था की अपनी धन्नो को लंबे सफ़र के लिये निकालते। लेक़िन इतना लंबा सफ़र कुछ बहुत ज़्यादा सुविधाजनक नहीं लग रहा था। एक साल पहले तक गाड़ी निकालने से पहले दोबारा विचार नहीं करते थे। लेक़िन इस बार पता नहीं क्यूँ रेलगाड़ी का मन बन गया था।
जब स्टेशन पहुँचे औऱ अपनी सीट पर बैठे तो हिचकिचाहट कुछ कम हुई। रेलगाड़ी के अंदर एक अपनापन सा लगता है। मतलब सब कुछ आपका जाना पहचाना। हाँ इस बार जो कोच था वो नया था थोड़े बहुत बदलाव थे लेक़िन पुरानी पहचान थी तो ये बदलाव भी अच्छे ही लगे। जैसे जैसे कोच में बाकी यात्री आना शुरू हुये, तब इस बात का एहसास हुआ नार्मल भले ही बोरिंग हो, लेक़िन इतने लंबे समय के बाद इसी नार्मल की तो ज़रूरत है। उसके बाद आसपास के लोगों से बातचीत (थोड़ी बहुत) शुरू हुई। कभी ऐसा भी होगा जब आप डरते हुये सफ़र करेंगे ये नहीं सोचा था।
सैनिटाइजर जो अब हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है, उसका इस्तेमाल ख़ूब हुआ। जबसे रेल में, मतलब एसी में यात्रा करना शुरू किया है, तबसे एक आदत सी हो गयी थी सिर्फ़ सामान लेकर पहुँच जाने की। बाकी ओढ़ने, बिछाने की ज़िम्मेदारी रेलवे की रहती। मगर इस बार ऐसा नहीं था तो ये अतिरिक्त सामान साथ में गया। औऱ याद आये वो दिन जब एक होल्डऑल नामक एक चीज़ हुआ करती थी।
इसमें ओढ़ने, बिछाने से लेकर जो सामान कहीं नहीं आ रहा हो सब भर दिया जाता। जब कोच में पहुँचते तो सबको सामान वितरित कर इसको सीट के नीचे रख दिया जाता। ये तब की बात है जब स्लीपर से सपरिवार यात्रा करते थे। अब तो हम सबने अपनी आदतें ऐसी बिगाड़ली हैं कि या तो एसी या फ्लाइट। औऱ एसी में भी सेकंड एसी ही चलता है। थर्ड एसी उसी हालत में जब सेकंड एसी में जगह नहीं हो।
आजकल सब अपनी क्लास को लेकर भी बहुत ज़्यादा चिंतित रहते हैं। वो ज़माने लद गये जब हवाई यात्रा या एसी में यात्रा एक स्टेटस की बात हुआ करती थी। अब तो ये सबकी पहुँच के अंदर है औऱ आराम से यात्रा करना किसे पसंद नहीं होगा।
वापस आते हैं मुद्दे पर। तो यात्रा शुरू हुई उसके बाद सब नार्मल ही लग रहा था। ट्रैन में यात्रा करने के कई फ़ायदों में से एक है आप ज़्यादा सामान लेकर भी चल सकते हैं। औऱ माताजी ने पिछली सर्दियों से तरह तरह के अचार आदि बना रखे थे। लेक़िन उसका मुम्बई प्रस्थान टलता जा रहा था। उड़नखटोला से आने में बस ये डर लगता है की उसकी महक एयरपोर्ट स्टाफ़ तक न पहुँचे। नहीं तो उतरने के बाद सब गायब (सच में बहुत ही मज़े का सामान बटोर कर लाये हैं इस बार)।
वापसी जब हुई तो ये सब सामान से लदे ट्रैन में सवार हुये। अब यही बात बाक़ी यात्रियों पर भी लागू होती है। बस ये हुआ रात के क़रीब दो बजे जब एक तीन सदस्यों का परिवार चार बड़े सूटकेस लेकर चढ़ा औऱ जिस तरह से उन्होंने पहले सामान को एडजस्ट किया औऱ बाद में बमुश्किल अपनी बेगम को ऊपर की बर्थ पर पहुँचाया – ये सब देखकर वो दो साल का समय फ़ुर्र हो गया। यही तो वो नार्मल है जिसकी कमी इतनी महसूस कर रहे थे।
क्या आपने इस दौरान कोई यात्रा करी है? कैसा रहा आपका अनुभव? क्या कुछ बदला? आप कमेंट करके बता सकते हैं। अग़र भोजन पर इस बारे में बात करने का मन हो तो समय निकाल कर आइये। गपशप के साथ आप अचार भी चख लेंगे।
औऱ जैसे मजरूह सुल्तानपुरी के बोल को अपनी आवाज़ में गीता दत्त ने कहा, ऐ दिल है आसां जीना यहाँ, सुनो मिस्टर सुनो बंधु…
आमिर ख़ान पहली फ़िल्म से पसंद आये थे औऱ क़यामत से क़यामत तक के बाद उनकी अगली कुछ फ़िल्में देखने लायक नहीं थीं। जब उनकी औऱ मंसूर ख़ान की जो जीता वही सिकंदर की घोषणा हुई तो इसका इंतज़ार शुरू हुआ। जूही चावला को न लेने का दुःख तो था लेक़िन फ़िल्म अच्छी होगी इसका यक़ीन था।
उन दिनों गाने सुनने का ज़्यादा चलन था। देखने के लिये सिर्फ़ बुधवार औऱ शुक्रवार को चित्रहार ही हुआ करता था। उसमें अगर गाना आया तो आपकी किस्मत। तो इस फ़िल्म के गाने ख़ूब सुने थे लेक़िन देखे नहीं थे।
पहला नशा के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। जब अंधेरे सिनेमाघर में गाना शुरू हुआ तो एक अलग ही दुनिया में पहुँच गये थे। इससे पहले गाने ऐसे नहीं फिल्माये गये थे। अक़्सर ऐसा होता है आप गाना जब सुनते हैं तो आप के मन में ये विचार ज़रूर आता है की इसको कैसे फ़िल्माया गया होगा। इस गाने को जब सुना था तब पता नहीं क्या विचार आये होंगे लेक़िन आज 27 बरस के बाद लगता है ये उन गिने चुने गानों में से है जिसकी धुन के साथ उसका फिल्मांकन बिल्कुल सही बैठा था।
अब आज ये कहाँ की यात्रा पर निकले हैं? दरअसल आज सुबह गुरुदत्त जी की फ़िल्म आरपार का गाना ये लो मैं हारी पिया सुन रहे थे। जब ये गाना रेडियो पर सुना था तब पता नहीं था इस गाने का फिल्मांकन कैसा हुआ होगा। बरसों बाद जब देखा तो गाना औऱ खूबसूरत लगा। मुंबई की सड़कों पर दौड़ती टैक्सी में गुरुदत्त एवं श्यामा जी औऱ उनकी उफ़्फ़ उनकी अदायें।
वैसे ही जीवन में हमें जब कोई मिलता है तो ये पता नहीं होता ये साहब क्या साबित होंगे – एक सबक़ या एक वरदान।
हम सबका एक मूल स्वभाव होता है जो जन्म से ही हमारे अंदर रहता है। अगर आपने हालिया रिलीज़ \’शेरशाह\’ देखी हो तो उसमें विक्रम बत्रा बचपन से ही ग़लत बात के ख़िलाफ़ लड़ते हैं औऱ फ़िर उन्हें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता की सामने वाले बच्चे उनसे उम्र में बड़े हैं। वो बस लड़ जाते हैं।
जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं जो हमारा मूल स्वभाव होता है उसमें कोई बदलाव नहीं होता। हाँ हम इसको छिपाना, या इसको कोई दूसरा चोला पहनाना सीख जाते हैं। लेक़िन ये कहीं नहीं जाता। ये कभी बदलता भी नहीं है। ये रहता है औऱ कभी न कभी बाहर निकलता ही है। वो कहावत भी है न – अपने असली रंग दिखाना।
हम सभी ऐसे लोगों को जानते हैं। हमारे परिवार में या दोस्तों में ऐसे लोग होते हैं जो सबकी मदद को आतुर रहते हैं। उनको बस कोई मौका मिल जाये और वो किसी न किसी तरह मदद करने को हमेशा तैयार। ये वो हैं जिनकी कथनी औऱ करनी में कोई अंतर नहीं होता है।
लेक़िन इसके ठीक विपरीत ऐसे लोग भी होते हैं जो हमेशा लोगों को तकलीफ़ ही देते हैं। फ़िल्मों में अक़्सर ऐसे क़िरदार होते हैं जो शुरू में तो बड़ी मीठी मीठी बात करते हैं और उसके बाद जब समय आता है तो उनका असली चेहरा सामने आता है। असल ज़िन्दगी में भी ऐसे कई लोग मिलते ही रहते हैं।
ऊपर जो दो श्रेणी के लोग बताये हैं उसमें से दूसरी श्रेणी वाले ज़्यादा किसी कष्ट में नहीं रहते। लेक़िन जो पहली श्रेणी वाले हैं उनके साथ कुछ न कुछ ग़लत होता रहता है। इसके पीछे भी उनका मूल स्वभाव ही ज़िम्मेदार है क्योंकि उनका स्वभाव ही है लोगों पर भरोसा कर उनकी मदद करना लेक़िन लोग उनके इस स्वभाव का फ़ायदा उठाते हैं। इस श्रेणी के लोग बहुत से कटु अनुभव के बाद भी अपने को बदल नहीं पाते क्योंकि यही उनका स्वभाव है। वो चाहकर भी उसको बदल नहीं सकते।
मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी ने मुझसे एक दिन कहा की मुझे अपनी ये मिडिल क्लास, छोटे शहर वाली सोच त्याग देना चाहिये। इससे उनका मतलब था जिन उसूल, आदर्शों को मैं मानता हूँ उसको छोड़ दूँ। मुझे ये बात थोड़ी अजीब सी भी लगी क्योंकि यही सब तो आपका व्यक्तित्व बनाते हैं। बस उन्होंने फ़िल्म दीवार के अमिताभ बच्चन जैसा नहीं कहा।
हमारे एक परिचित हैं। मुझे उनका स्वभाव वैसे भी शुरू से पसंद नहीं था क्यूँकि उनका पैसे पर बहुत ज़्यादा भरोसा रहा है औऱ उनको लगता की अगर उन्होंने किसी की मदद करी है तो उसको ख़रीद लिया है। दूसरे उनकी मदद पैसे से नहीं लेक़िन किसी दूसरे रूप में करते थे। लेक़िन उन्होंने हर रिश्ते को पैसे से ही तोला औऱ शायद वर्षों से ही तौल रहे थे। इसका पता तब चला जब उनका एक बार किसी से विवाद हुआ तो उन्होंने बरसों पुराना हिसाब किताब निकाल के रख दिया कैसे उन्होंने फलां काम के लिये कितने पैसे ख़र्च किये थे। मतलब ये बहीखाता कभी न कभी बाहर आता क्योंकि उसको रखा इसीलिये था। कहाँ तो लोग डायरी में यादों का लेखा जोखा रखते हैं और कहाँ ये महाशय खर्चों से बाहर निकल नहीं पाये।
आपने भी ऐसे कई लोगों को जानते होंगे \’जिनके पास भगवान का दिया सब कुछ होता है\’। लेक़िन किसी फ़िल्मी कहानी की तरह एक दिन अचानक आपको सुनाई देता है सब कुछ होने के बावजूद भी उन्होंने परिवार के अन्य सदस्यों से लड़ाई कर ली है औऱ सारी जायदाद ख़ुद हड़पना चाहते हैं। आप वर्षों से उन्हें जानते हैं औऱ आपके लिये ये मानना नामुमकिन सा होता है। लेक़िन यही कड़वा सच है।
ये दोनों उदाहरण किसी व्यक्ति का मूल स्वभाव दर्शाने के लिये हैं। इसलिये जो मीठा मीठा बोलते हैं उनसे दूर से राम राम औऱ जो चिकनी चुपड़ी बोलते हैं उनको भी सलाम। ये जो मीठा बोलने वाले होते हैं इनसे तो जितना बच सकते हैं बचिये। ये लोग किसी विवाद में पड़ना ही नहीं चाहते क्योंकि ये चिकना घड़ा होते हैं। जहाँ उनका फ़ायदा होता है वहाँ चल देते हैं।
मतलब की बात ये की कई गाने सुनने में अच्छे लगते हैं लेक़िन देख कर लगता है गाना बर्बाद कर दिया। ऐसे कई गाने हैं। नये थोड़े ज़्यादा हैं क्योंकि सब एक जैसे ही फिल्माये जाते हैं। कुछ पुराने भी हैं। आपके पास ऐसे कुछ हों तो बतायें।
फ़िलहाल आप इस गाने का आंनद लें। सबक औऱ वरदान तो जीवन पर्यंत चलने वाले हैं।
फ़िल्मों में अक़्सर ये होता रहता है कि निर्माता निर्देशक फ़िल्म किसी कलाकार को लेकर शुरू करते हैं लेक़िन फ़िर किन्हीं कारणों से बात नहीं बनती। फ़िर नये कलाकार के साथ काम शुरू होता है। पिछले हफ़्ते रिलीज़ हुई \’सरदार उधम\’ भी ऐसी ही एक फ़िल्म थी। निर्देशक शूजीत सरकार ने फ़िल्म की कल्पना तो इऱफान ख़ान के साथ करी थी लेक़िन उनकी बीमारी औऱ बाद में असामयिक निधन के बाद विक्की कौशल के हिस्से में ये फ़िल्म आयी। फ़िल्म है बहुत ही शानदार। अगर नहीं देखी है तो समय निकाल कर देखियेगा।
हम आतें हैं इस पोस्ट पर वापस। यादों के झरोखों से आज देख रहें हैं हिंदी फ़िल्म जगत की एक ऐसी फ़िल्म जिसने सिनेमा का रंगढंग औऱ संगीत-नृत्य सब बदल डाला। आज नासिर हुसैन साहब की फ़िल्म \’तीसरी मंज़िल\’ को रिलीज़ हुये 55 साल हो गये। 1966 में रिलीज़ हुई इस बेहतरीन सस्पेंस फ़िल्म के गाने आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। औऱ अब तो ये जानते हुये भी की ख़ूनी ____ हैं इसको देखने का मज़ा कम नहीं होता। (ख़ूनी का नाम इसलिये नहीं लिखा क्योंकि अग़र किसी ने फ़िल्म नहीं देखी हो तो। वैसे आपको नोटिस बोर्ड पर फ़िल्म का सस्पेंस लिख कर लगाने वाला किस्सा तो बता ही चुका हूँ। आप इसे यहाँ पढ़ सकते हैं।
नासिर हुसैन ने ये फ़िल्म दरअसल देव आनंद के साथ बनाने का प्लान बनाया था। देव आनंद के भाई विजय आनंद भी नासिर हुसैन के प्रोडक्शन हाउस में काम कर रहे थे औऱ उनको राजेश खन्ना-आशा पारिख के साथ बहारों के सपने बनाने का ज़िम्मा दिया गया था।
फ़िल्म की कहानी का आईडिया जो नासिर हुसैन ने एक सीन में सुनाया था वो कुछ इस तरह था। दो सहेलियाँ दिल्ली से देहरादून जा रही हैं औऱ गाड़ी में पेट्रोल भरवा रहीं हैं पेट्रोल पंप पर। नायिका की बहन की मौत ही गयी तीसरी मंज़िल से गिरकर लेक़िन उसको लगता है वो क़त्ल था। वो बात कर रही हैं क़ातिल के बारे में। सहेली नायिका से पूछती है उसको पहचानोगी कैसे? नायिका बोलती है सुना है वो काला चश्मा पहनता है। उसी पेट्रोल पंप पर अपनी मोटरसाइकिल में पेट्रोल भरवाता हुआ युवक उनकी बात सुनकर अपना काला चश्मा उतार कर जेब में रख लेता है।
विजय आनंद ने हुसैन से पूछा आगे क्या होता है? वो कहते हैं पता नहीं। आनंद तब कहते हैं इसपर काम करते हैं औऱ इस तरह जन्म हुआ तीसरी मंजिल का।
देव आनंद तीसरी मंज़िल के फोटो शूट के दौरान
सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था। देव आनंद ने बाकायदा फ़िल्म के लिये फ़ोटो शूट भी कराया था जिसमें वो ड्रम बजाते हुये दिख रहे हैं। लेक़िन बीच में आगयी अभिनेत्री साधना जी की सगाई। साधना का इस फ़िल्म से कोई लेना देना नहीं थी। फ़िल्म की अभिनेत्री तो आशा पारिख ही रहने वाली थीं।
हुआ कुछ ऐसा की साधना जी की सगाई में नासिर हुसैन औऱ देव आनंद के बीच कहासुनी हो गयी। दोनों ही महानुभाव ने नशे की हालत में एक दूसरे को काफ़ी कुछ सुनाया। दरअसल नासिर हुसैन ने देव आनंद को ये कहते हुये सुन लिया की नासिर ने उनके भाई विजय आनंद को एक छोटे बजट की ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म (बहारों की मंज़िल) वो भी पता नहीं किसी राजेश खन्ना नामक अभिनेता के साथ बनाने को दी है। लेक़िन वो ख़ुद तीसरी मंजिल जैसी बड़ी, रंगीन फ़िल्म निर्देशित कर रहे हैं।
नासिर हुसैन इतने आहत हुये की उन्होंने अगले दिन विजय आनंद को तीसरी मंजिल का निर्देशक बना दिया औऱ स्वयं बहारों की मंज़िल का निर्देशन का ज़िम्मा उठाया। इसके साथ ही उन्होंने एक औऱ बड़ा काम कर दिया। उन्होंने देव आनंद को तीसरी मंज़िल से बाहर का रास्ता दिखा दिया। जब उनकी जगह किसको लिया जाये पर विचार हुआ तो शम्मी कपूर साहब का नाम आया। जब शम्मी कपूर को ये पता चला की देव आनंद को हटा कर उनको इस फ़िल्म में लिया जा रहा है तो उन्होंने इस शर्त पर काम करना स्वीकार किया की देव आनंद ये कह दें की उन्हें कपूर के इस फ़िल्म में काम करने से कोई आपत्ति नहीं है।
शम्मी कपूर फ़िल्म की शूटिंग के दौरान
देव आनंद ने अपनी स्वीकृति दे दी औऱ नतीजा है ये तस्वीर। लेक़िन ये सब NOC (नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट) के बाद ऐसा नहीं हुआ कि फ़िल्म शुरू हो गयी। नासिर हुसैन के पास कहानी औऱ कलाकार दोनों थे लेक़िन उनकी फ़िल्म में संगीत का बहुत एहम रोल होता है। उन्हें तलाश थी एक संगीतकार की। किसी कारण से वो ओ पी नय्यर, जो उनकी पिछली फ़िल्म फ़िर वही दिल लाया हूँ के संगीतकार थे, उनको वो दोहराना नहीं चाहते थे।
शम्मी कपूर जब फ़िल्म का हिस्सा बने तो उन्होंने संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन का नाम सुझाया औऱ कोशिश करी की वो फ़िल्म का संगीत दें। लेक़िन इसी बीच आये आर डी बर्मन। अब बर्मन दा का नाम कहाँ से आया इसके बारे में कई तरह की बातें हैं। ऐसा माना जाता है गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी साहब, जिन्होंने राहुल के पिता एस डी बर्मन के साथ कई फिल्मों में काम किया था, उन्होंने उनका नाम सुझाया। नासिर हुसैन ने मजरूह के कहने पर मुलाकात करी। ख़ुद आर डी बर्मन ने भी मजरूह सुल्तानपुरी साहब को इसका श्रेय दिया है।
शम्मी कपूर को इसका भरोसा नहीं था की आर डी बर्मन फ़िल्म के लिये सही संगीतकार हैं। लेक़िन जब उन्होंने धुनें सुनी तो वो नाचने लगे औऱ वहीं से शुरू हुआ बर्मन दा, नासिर हुसैन एवं मजरूह सुल्तानपुरी का कारवां। फ़िलहाल बात तीसरी मंजिल की चल रही है तो कारवां की बातें फ़िर कभी।
जब फ़िल्म बन रही थी उसी दौरान शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली का निधन हो गया। फ़िल्म का सेट लगा हुआ था लेक़िन नासिर हुसैन साहब ने इंतज़ार करना बेहतर समझा। कुछ दिनों के बाद भी शम्मी कपूर काम करने को तैयार नहीं थे। विजय आनंद घर से उनको ज़बरदस्ती सेट पर लेकर आ गये। लेक़िन शम्मी कपूर बहुत दुःखी थे औऱ उन्होंने बोला उनसे ये नहीं होगा। विजय आनंद ने कहा एक बार करके देखते हैं अगर नहीं होता है तो काम रोक देंगे।
उस समय तुमने मुझे देखा होकर मेहरबां गाने की शूटिंग चल रही थी। फ़िल्म में ये गाना एक ऐसे मोड़ पर आता है जब नायक को लगता है नायिका को उनसे मोहब्बत हो गयी है औऱ इसी ख़ुशी में वो ये गाना गा रहे हैं। लेक़िन असल में बात कुछ औऱ ही थी। ख़ैर, शम्मी जी तैयार हुये औऱ शूटिंग शुरू हुई। सब कुछ ठीक हुआ औऱ जैसे ही शॉट ख़त्म हुआ सब ने तालियाँ बजायी। लेक़िन विजय आनंद को कुछ कमी लगी तो उन्होंने शम्मी कपूर से कहा एक टेक औऱ करते हैं।
इतने समय बाद शम्मी कपूर वापस आये थे औऱ काम शुरू ही किया था। सबको लगा आज कुछ गड़बड़ होगी। लेक़िन जब शम्मी जी ने रिटेक की बात सुनी तो वापस पहुँच गये शॉट देने। सबने राहत की साँस ली। थोड़े आश्चर्य की बात है की इतनी बड़ी हिट फिल्म देने के बाद नासिर हुसैन औऱ शम्मी कपूर ने इसके बाद दोबारा साथ में काम नहीं किया।
तीसरी मंज़िल के बाद विजय आनंद ने भी कभी नासिर हुसैन के साथ दोबारा काम नहीं किया। नासिर हुसैन ने भी इस फ़िल्म के बाद बाहर के किसी निर्देशक के साथ काम नहीं किया। अपने बैनर तले सभी फ़िल्मों का निर्देशन उन्होंने स्वयं किया। जब उन्होंने निर्देशन बंद किया तो उनके बेटे मंसूर खान ने ये काम संभाला। उसके बाद से अब ये प्रोडक्शन हाउस बंद ही है।
तीसरी मंजिल वो आख़िरी नासिर हुसैन की फ़िल्म थी जिसके सभी गाने मोहम्मद रफ़ी साहब ने गाये थे। दोनों ने साथ में काम जारी रखा लेक़िन अब किशोर कुमार का आगमन हो चुका था। वैसे रफ़ी साहब को नासिर हुसैन की हम किसी से कम नहीं फ़िल्म के गीत \”क्या हुआ तेरा वादा\’ के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।
तीसरी मंज़िल से जुड़ी एक औऱ बात। ये जो तस्वीर है ये है सलमान खान के पिता सलीम खान। लेखक बनने से पहले उन्होंने कुछ फिल्मों में काम किया था उसमें से एक थी तीसरी मंज़िल। शम्मी कपूर आशा पारेख औऱ हेलन, जिनके साथ उन्होंने बाद में विवाह किया, को आप फ़िल्म के पहले गाने \’ओ हसीना ज़ुल्फोंवाली\’ में देख सकते हैं।
इसी गाने से जुड़ी एक बात के साथ इस पोस्ट का अंत करता हूँ। फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद एक सज्जन ने गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी से इस गाने के बोल को लेकर सवाल किया की, \’मजरूह साहब क्या आप ये कहना चाहते हैं उस एक हसीना की ही ज़ुल्फ़ें हैं? क्या बाक़ी हसीनाओं के बाल नहीं हैं? क्या वो गंजी हैं?\’
अग़र फ़िल्म देखने के इच्छुक हों तो यूट्यूब पर देख सकते हैं। लेक़िन संभाल कर। देखना शुरू करेंगे तो उठना मुश्किल होगा। फ़िल्म की शुरुआत ही ऐसी है की आप जानना चाहते हैं आगे क्या होगा। खाने पीने की तैयारी के साथ मज़ा लें तीसरी मंजिल का।
पिछले दिनों कौन बनेगा करोड़पति में Scam वेब सिरीज़ में हर्षद मेहता का रोल करने वाले प्रतीक गाँधी एवं जानेमाने अभिनेता पंकज त्रिपाठी आये थे। Scam सीरीज़ पिछले साल अक्टूबर के महीने में ही रिलीज़ हुई थी। सबको प्रतीक गाँधी का काम इतना पसंद आया की वो रातों रात एक स्टार बन गये औऱ उनको बहुत सा अच्छा काम करने को मिला औऱ अब शायद आगे भी मिलता रहेगा।
जब में वो गरबा वाली पोस्ट लिख रहा था तो सलमान ख़ान की 2018 में निर्मित फ़िल्म लवयात्री का एक गाना देख रहा था ढ़ोलीडा। फ़िल्म सलमान खान ने अपने बहनोई आयुष शर्मा के लिये बनाई थी। मैंने फ़िल्म नहीं देखी है तो जब गाना देखा तो थोड़ी हैरत हुई, बहुत गुस्सा भी आया। गाने में कुछ सेकंड के लिये प्रतीक गाँधी भी दिखे। पहले तो विश्वास नहीं हुआ इसलिये दोबारा देखा। थे तो प्रतीक गाँधी ही। पूरे गाने में वो बाकी एक्स्ट्रा के तरह काम कर रहे थे क्योंकि सारा ध्यान तो बहनोई साहब पर था।
वापस आते हैं केबीसी की रात पर। अमिताभ बच्चन ने जब उनसे उनके रातों रात सफ़ल होने के बारे में पूछा तो प्रतीक ने बहुत ही सरलता से कहा,
\”लोगों के लिये ये रातों रात होगा। मेरे लिये ये रात चौदह साल लंबी थी।\”
प्रतीक गाँधी
जब वो गाना देख रहा तब मुझे यही ख़्याल आ रहा था, प्रतीक तब भी हर्षद मेहता के क़िरदार जैसी प्रतिभा के धनी थे। ज़रूरत थी उनकी उस प्रतिभा में किसी के विश्वास की। ज़रूरत थी उस मौक़े की। जब वो मौक़ा मिला तो प्रतीक ने धो डाला औऱ ऐसा धोया है की वो अब एक मिसाल बन गए हैं।
उस फ़िल्म के बाद आयुष शर्मा की नई फ़िल्म (साले साहब ने फ़िर से पैसा ख़र्च किया है) भी तैयार है। लेक़िन उन्हीं के साथ उस फ़िल्म में छोटा सा रोल करने वाले प्रतीक गाँधी आज मीलों आगे निकल गये हैं।
ऐसी बहुत सी घटनायें हैं। हैरी पॉटर की लेखिका की क़िताब बारह जगह से वापस लौटाई गई थी। सलमान ख़ान का पैसा है वो आयुष शर्मा पर लगायें या नूतन की पोती पर। प्रतीक गाँधी जैसे प्रतिभावान कलाकार को हंसल मेहता जैसा जोहरी मिल ही जाता है।
आप बस अपना काम करते रहें। उसी लगन, निष्ठा के साथ जैसे प्रतीक गाँधी करते रहे अपने छोटे छोटे रोल में।
माँ और प्रीति किसी तरह जय को उठाकर घर के अंदर लाये और माँ ने उसे पीने के लिये ग्लूकोज़ का पानी दिया और प्रीति से कहा की वो बगल वाले मिश्रा जी के घर से पापा को बैंक फ़ोन कर फौरन घर आने को कहे।
शाम का समय था तो अगल बगल के घर के बच्चे बाहर ही खेल रहे थे और उन्होंने जय को गिरते हुये और प्रीति को माँ को मदद के लिये बुलाते हुये सुन लिया था। उन्होंने अपने अपने घरों में ये बता भी दिया था तो उनमें से कुछ की माताजी जय के घर के बाहर ही खड़ी थीं जब प्रीति बाहर मिश्रा जी के घर जाने को निकली। श्रीमती मिश्रा ने ही सबसे पहले पूछा जय के बारे में। प्रीति ने घटना का संक्षिप्त विवरण दे दिया और उनसे कहा कि \”आंटी पापा को बैंक फ़ोन लगाना था\”। उन्होंने उसको अपने घर ले जाते हुये पूछा, \”जय कुछ कमज़ोर लग रहा है। क्या पढ़ाई का टेंशन है?\”। प्रीति ने सिर्फ पता नहीं कहके पीछा छुड़ाना चाहा। लेकिन श्रीमती मिश्रा को तो जैसे एक मौका मिल गया था। वैसे उनसे सब दूर ही भागते थे। क्योंकि एक बार वो शुरू हो जायें तो बस किसी को बचाने के लिये आना ही पड़ता है।
जय को क्या हुआ था ये बिना जाने ही उन्होंने उसके खाने-पीने की आदतों और बेसमय सोने को इसका ज़िम्मेदार ठहरा दिया। जब मिश्रा जी के घर पहुँचे तो उनका छोटा बेटा अमित घर पर ही था। प्रीति को नमस्ते करते हुये उसने पूछा \”दीदी कुछ ज़रूरत हो तो मैं चलता हूँ।\” प्रीति ने कुछ जवाब नहीं दिया और फ़ोन का रिसीवर उठा कर वो बैंक का नंबर डायल करने लगी। अमित प्रीति को देख रहा था और प्रीति अपने पिताजी को जय का हाल बता रही थी। बात करते करते उसके आँसू निकलने लगे। अमित की माँ चौके में थी। अमित ने आगे बढ़कर प्रीति के कंधे पर हाँथ रखते हुये कहा, \”दीदी जय भैया ठीक हो जायेंगे\”। इतना सुनने के बाद प्रीति का रोना बढ़ गया। अमित ने माँ को आवाज़ देकर बुलाया तो श्रीमती मिश्रा एक गिलास पानी और कुछ बिस्कुट लेकर ड्राइंग रूम में ही आ रहीं थी। उन्होंने भी प्रीति को समझाया।
जय को पहले से बेहतर लग रहा था लेकिन बहुत कमज़ोरी लग रही थी। प्रीति आयी तो उसने पास के डॉ खोना के क्लीनिक चलने को कहा। \”वहाँ तक कैसे जाओगे\”, माँ ने पूछा। उन्होंने प्रीति को जय के पास बैठने के लिये कहा और खुद डॉ खोना के क्लीनिक चली गईं। वहाँ चार पांच मरीज़ पहले से थे। जय की माँ, सरोज सिंह, ने कंपाउंडर से पूछा कि क्या डॉ साहब उनके बेटे को घर पर देख लेंगे। उसको बहुत कमज़ोरी है और यहाँ तक चल कर आना थोड़ा मुश्किल है। कंपाउंडर ने उन्हें इंतज़ार करने को कहा। डॉ साहब से पूछकर उसने कहा की आजायेंगे लेकिन मरीजों को देखने के बाद।
कंपाउंडर के जवाब से थोड़ी निश्चिंत जय की माँ जब घर पहुँची तो जय ड्राइंग रूम में नहीं था। हैरान-परेशान प्रीति उनके पर्स में कुछ ढूंढ रही थी। माँ को देख उसने कहा, \”पापा मिश्रा अंकल की कार से भैया को सरकारी अस्पताल ले गये हैं। हम को भी वहीं चलना है। आप पैसे रख लेना, पापा ने कहा है\”।
जब महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ औऱ पांडव विजयी हुये तो श्रीकृष्ण गांधारी से मिलने गये। युद्ध में अपने पुत्रों की मृत्यु से दुःखी गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया था की जैसे उनके सामने उनके कुल का अंत हुआ था वैसे ही श्रीकृष्ण के सामने यदुवंश का भी ऐसे ही अंत होगा।
श्रीकृष्ण को तो इस बारे में सब ज्ञात था लेक़िन श्रीराधा ने जब स्वपन में ये प्रसंग देखा तो वो तहत विचलित हुईं। वो किसी भी तरह से आगे जो ये होने वाला था उसको रोकने का प्रयास करने लगीं। उन्होंने उस व्यक्ति को भी ढूंढ निकाला जिसके तीर से वासुदेव के प्राण निकलने वाले थे। राधा ने जरा नामक उस व्यक्ति को स्वर्ण आभूषण भी दिये ताकि वो अपना जीवन आराम से व्यतीत कर सके औऱ शिकार करके जीवनयापन की आवश्यकता ही न पड़े।
श्रीकृष्ण ये सभी बातें जानते थे औऱ वो अपने तरीक़े से राधा को ये समझाने का प्रयास भी कर रहे थे की कोई कुछ भी करले जो नियत है वो होकर ही रहेगा। अंततः श्रीराधा को ये बात समझ आ जाती है की जिस पीड़ा से वो डर रही हैं वो एक चक्र है। अगर एक पुष्प खिला है तो उसका मुरझाना निश्चित है। जब इस बात का उन्हें ज्ञान हो जाता है तो उनका बस एक ही लक्ष्य रहता, जो भी समय है उसको श्रीकृष्ण के साथ अच्छे से व्यतीत करें।
यही हमारे जीवन का भी लक्ष्य होना चाहिये। हर दिन को ऐसे बितायें जैसे बस आज की ही दिन है। कल पर टालना छोड़ें।
हमारे बड़े जो हैं अपने अनुभव से बहुत सी बातें हमें सिखाते हैं। सामने बैठा कर ज्ञान देने वाली बातों की बात नहीं कर रहा हूँ लेक़िन छोटी छोटी बातें जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में होती रहती हैं उनसे मिलने वाली सीख की बात कर रहा हूँ। जो सामने बैठा कर ज्ञान मिलता है वो तो कभी कभार होता है औऱ कुछ ख़ास मौकों पर या किसी व्यक्तिविशेष के संदर्भ में होता है।
पिताजी शिक्षक रहे हैं तो उन्होंने पढ़ाई/परीक्षा की बहुत सी बातें बतायीं जैसे पेपर मिलने पर उसको पूरा पढ़ें या लिखने के बाद दोबारा पढ़ ज़रूर लें। परीक्षा के पहले सारा सामान जैसे पेन, पेंसिल आदि जाँच लें। इसके अलावा पढ़ाई के लिये वो हमेशा कहते लिखने का अभ्यास बहुत ज़रूरी है। बार बार लिखो इससे चीज़ें याद रहती हैं।
आज इनका ज़िक्र क्योंकि एक लेख पढ़ रहा था। युवाओं के लिये था। अब अड़तालीस साल वाला भी युवा होता है यही मान कर मैंने भी पढ़ डाला। तो उसमें यही बताया गया की अगर आपका कोई लक्ष्य है तो आप उसको लिखें औऱ अपनी आँखों के सामने रखें जिससे आपको याद रहे की आप क्या पाना चाहते हैं। लक्ष्य लिखने से थोड़ी आपके विचारों में भी क्लैरिटी आती है। मैंने बहुत उपयुक्त शब्द ढूंढा लेक़िन क्लैरिटी से अच्छा कुछ नहीं मिला।
इसी तरह जब कहीं बाहर जाना होता तो पिताजी काफ़ी समय पहले घर से निकल जाते औऱ भले ही स्टेशन पर एक घंटा या ज़्यादा इंतज़ार करना पड़े, वो जो आखिर में भाग दौड़ होती है उससे बच जाते हैं औऱ प्लेटफॉर्म पर कुछ पल सुकून से बिताने को मिल जाते हैं। साथ ही पढ़ने के लिये कोई किताब देखने का समय भी मिल जाता है।
हर बार समय पर या समय से पहले पहुँच ही जाते थे लेक़िन एक बार समय से काफ़ी पहले निकलने के बाद भी कुछ ऐसा हुआ… आपकी कभी ट्रैन, फ्लाइट या बस छूटी है? माता-पिता एक बार मुम्बई आये थे। उनकी वापसी की ट्रेन शाम की थी तो तय समय से काफ़ी पहले हम लोग स्टेशन पर जाने को तैयार थे। क्योंकि मुम्बई में ही पहले कुछ रिश्तेदारों की ट्रेन छूट चुकी थी तो कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे। इसलिये टैक्सी भी बुक कर ली। लेक़िन ऐन समय पर बड़ी टैक्सी नहीं मिली तो दो छोटी टैक्सी बुक करी। एक में माता पिता के साथ मैं बैठा औऱ दूसरी में श्रीमतीजी एवं बच्चे। अब ये भी हमारे यहाँ एक आदत सी बन गयी है। हमारे मतलब हिंदुस्तान में जहाँ जाने वाले दो लोग औऱ विदा करने वाले दस। पिछले दिनों जब कुछ शहरों में प्लेटफार्म टिकट के दाम बढ़े तो काफ़ी हंगामा भी हुआ।
हम मुद्दे पर वापस आते हैं। जैसा महानगरों में होता है, सड़कों पर बारह महीने काम होता है। जब बात करोड़ों की हो तो काम भले ही न हो रहा हो, दिखना चाहिये हो रहा है। तो हमारे रास्ते में भी ऐसा ही कुछ हुआ जिसके चलते लंबा जाम लगा हुआ था। ट्रैफिक रेंग रहा था लेक़िन उम्मीद थी कि समय पर पहुँच जायेंगे। लेक़िन थोड़ी देर बाद ऐसी आशायें ख़त्म होती दिख रही थीं। जब ये पक्का हो गया की ये संभव नहीं हो पायेगा तो ये निर्णय लिया गया कि दूसरे स्टेशन, दादर, जहाँ ट्रैन दस मिनिट बाद पहुँचती है वहाँ जाया जाय। या पहुँचने का प्रयास किया जाये।
वहाँ पहुँचने की उम्मीद ही नहीं यक़ीन भी था। बीच में पिताजी एक दो बार गुस्सा भी हुये लेक़िन ट्रैफिक जाम पर किसी का ज़ोर नहीं था। हम लोग साथ में ये भी बात करते जा रहे थे की अग़र वहाँ भी नहीं पहुँचे तो क्या क्या विकल्प हैं। ख़ैर जब दादर के नज़दीक पहुँचे तो सबने राहत की साँस ली। लेक़िन कहानी में ट्विस्ट बाक़ी था।
ट्विस्ट ये था की जो हमारे ड्राइवर साहब थे उन्होंने वो मोड़ छोड़ दिया जहाँ से दादर स्टेशन बस दो मिनिट की दूरी पर था। समय का मोल तुम क्या जानो ड्राइवर बाबू। उस पर महाशय कहने लगे आपको बताना चाहिये था। अचानक फ़ोन की घंटी बजने लगी। श्रीमतीजी का कॉल था।
अब इतना कुछ चल रहा था उसपर ये कॉल। लेक़िन घर वापस भी आना था औऱ चाय भोजन का भी सवाल था। तो फोन सुनना तो था ही। लेक़िन उधर से जो सुना उसके बाद हँसी छूट गयी। दरअसल श्रीमतीजी औऱ बच्चे जो माता पिता को विदा करने आये थे वो स्टेशन पहुँच चुके थे। लेक़िन मुसाफ़िर अभी भी टैक्सी की सवारी का आनद ले रहे थे।
जब स्टेशन पहुँचे तो सबसे पहले पूछा ट्रैन आ गयी है क्या। जब पता चला की अभी आने वाली है तो सबने दौड़ लगा दी। अब ये जो AC वाले डिब्बे होते हैं ये या तो बिलकुल आगे लगे होते हैं या पीछे। वैसे तो आजकल सभी डिब्बे जुड़े रहते हैं तो आप अंदर ही अंदर भी अपनी सीट तक पहुँच सकते हैं। लेक़िन माता पिता को उनकी सीट पर ही बैठाने का निर्णय लिया। ट्रैन आयी औऱ सामान रखकर वो बैठ भी गये। इस बात को समय काफ़ी समय हो गया है लेक़िन अब ये वाक्या समय पर या समय से पहुँचने के लिये एक उदाहरण बन गया है।
ऐसा ही एक औऱ वाक्या हुआ था जब श्रीमती जी एवं बच्चों को मायके में एक विवाह में सम्मिलित होने के लिये जाना था। उस समय टैक्सी मिली नहीं औऱ उन दिनों अपनी गाड़ी नहीं थी। एक पड़ोसी की गाड़ी मिल तो गयी लेक़िन उस समय मेरे लाइसेंस का नवीनीकरण होना बाक़ी था। अच्छी बात ये थी की पिताजी साथ में थे। पहले थोड़ी डाँट खाई उसके बाद हम स्टेशन के लिये रवाना हुये। चूँकि बच्चे छोटे थे औऱ सामान भी था इसलिये सीट तक छोड़ने का कार्यक्रम था। स्टेशन पहुँच कर माँ, श्रीमती जी औऱ मैंने फ़िर वही दौड़ लगाई। माँ के पैर में मोच आयी थी लेक़िन बच्चों का हाँथ पकड़कर उन्होंने भी अपना योगदान दिया। लेक़िन इस बार कोच आगे की तरफ़ था। भागते दौड़ते पहुँच ही गये औऱ सवारी को गाड़ी भी मिल गई। अक्सर ये विचार आता है अगर उस दिन गाड़ी छूट गई होती तो क्या होता?
2019 में जब भोपाल जाना हुआ था तब हमारी ट्रेन छूट गयी। ट्रैफिक के चलते हम जब हमारी टैक्सी स्टेशन में दाख़िल हो रही थी तब ट्रैन सामने से जाती हुई दिखाई दे रही थी। जब तक टैक्सी रुकती तब तक आख़िरी कोच भी निकल चुका था। वो तो दो घंटे बाद वाली ट्रेन में टिकट मिल गया तो भोपाल जाना संभव हुआ। हमारे जीवन में बहुत सी चीजों का योग होता है तभी संभव होता है। इस यात्रा का योग भी बन ही गया।
इन दिनों नवरात्रि की धूम है। बीते दो साल से त्योहारों की रौनक़ कम तो हुई है लेक़िन उत्साह बरकरार है। लोग किसी न किसी तरह त्यौहार मनाने का तरीक़ा ढूंढ ही लेते हैं। अगर सावधानी के साथ मनाया जाये तो बहुत अच्छा।
पिताजी को जो सरकारी मकान मिला था वो बिल्कुल मेन रोड पर था। भोपाल में चलने वाली बसों का एक रूट घर के सामने से ही जाता था। कुल मिलाकर आजकल जो घर देखे जाते हैं, ये भी पास हो, वो भी नज़दीक हो, बस ऐसा ही घर मिला था।
घर के सामने एक कन्या विद्यालय था जो हमारे सामने ही बना था औऱ हम लोगों ने वहाँ बहुत खेला भी (जब तक क्रिकेट से स्कूल में लगे शीशे नहीं टूटने शुरू हुये)। इसी स्कूल से लगा हुआ था लड़कों का स्कूल। लेक़िन दोनों ही स्कूल के आने जाने का रास्ता विपरीत दिशा में था।
ये जो लड़कों का स्कूल था वहाँ अच्छा बड़ा मैदान था औऱ हर साल नवरात्रि में गरबा का कार्यक्रम आयोजित होता। भोपाल शहर का शायद सबसे बड़ा गरबा कार्यक्रम हुआ करता था। सारा शहर मानो गरबा कर रहा हो इतनी भीड़ हो जाती। औऱ यही हमारी मुसीबत का कारण बनता।
घर के सामने जो भी अच्छी ख़ासी जगह थी रात होते होते वो सब गाड़ियों से भर जाती औऱ अगर हम लोग कोई बाहर निकले तो गाड़ी अंदर रखने का कार्यक्रम देर रात तक रुका रहता। हमारे प्यारे देशवासियों की आदत भी कुछ ऐसी ही है। अपने घर के सामने ऐसा कुछ हो तो पता नहीं क्या कर बैठें लेक़िन ख़ुद बिना सोचे समझे यही काम करते रहते हैं।
उन दिनों मेरा भी भोपाल में उसी संस्था से जुड़ाव था जो ये भव्य कार्यक्रम आयोजित करती थी। लेक़िन चूंकि हमारा काम ही शाम को शुरू होता था तो कभी जाने का मौक़ा नहीं मिला। जब श्रीमती जी से विवाह की बात शुरू हुई तो पता चला वो सामने वाले उसी स्कूल में पढ़ती थीं जिसका निर्माण हमारे सामने हुआ था। कई लोगों को लगा शायद मैंने उन्हें स्कूल आते जाते देखा औऱ…
दूसरा रहस्योद्घाटन ये हुआ की जिस गरबा की भीड़ से हम साल दर साल परेशान रहते थे वो उस भीड़ का भी हिस्सा थीं। अलबत्ता उनके ग्रुप की गाड़ियाँ हमारे घर के सामने नहीं खड़ी होती थीं।
जिस दिन हमारी सगाई हुई उन दिनों भी ये महोत्सव चल रहा था। समारोह के पश्चात सब अपने अपने घर चले गये लेक़िन श्रीमती जी औऱ उनके भाई बहन सबका गरबा कार्यक्रम में जाने का बड़ा मन था। लेक़िन सबको डाँट डपट कर समझाया गया औऱ सीधे घर चलने को कहा गया।
जब गरबा क्या होता है ये नहीं मालूम था, उस समय एक बार अहमदाबाद जाना हुआ था। एक गीत \’केसरियो रंग तने लागयो रे गरबो\’ ये सुना था औऱ यही याद भी रह गया है (अगर बोल ग़लत हो तो बतायें)। भोपाल में गुजराती समाज भी ऐसा कार्यक्रम आयोजित करता था लेक़िन सिर्फ़ सदस्यों के लिये। मुम्बई में भी ऐसे कई बड़े कार्यक्रम होते हैं जहाँ कभी जाना नहीं हुआ। गरबा क्वीन फाल्गुनी पाठक से मिलना ज़रूर हुआ था लेक़िन दिल्ली में जब वो अपने एक एल्बम रिलीज़ के सिलसिले में आई थीं।मुम्बई में तो उनके कार्यक्रम को टीवी पर ही देखा है। गरबे की असली धूम तो गुजरात में होती है लेक़िन अमिताभ बच्चन के बार बार कुछ दिन तो गुज़ारो गुजरात में बोलने के बाद भी इसका मौक़ा नहीं लगा है।
जो हमारे समय नवरात्रि का कार्यक्रम होता था वो था झाँकी देखने जाने का। एक दिन परिवार के सब लोगों को कार में भरकर पिताजी पूरे शहर की झाँकी दिखाते। ये सब घुमाने फिराने का कार्यक्रम पिताजी के ज़िम्मे ही आता क्योंकि – एक तो उनको शहर के इलाके बहुत अच्छे से पता हैं औऱ दूसरा ये की वो बिना किसी परेशानी के आराम से घूमने देते हैं। मतलब घूमते समय घड़ी पर नज़र नहीं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण? श्रीमती जी आज भी कहती हैं मार्केट जाना हो तो पापा के साथ जाना चाहिये वो आराम से घूमने देते हैं। हमारे साथ मार्केट जाना तो घंटो का नहीं मिनटों का काम होता है। अभी तक ये गुण नहीं आया है – देखिये आने वाले वर्षों में क्या कुछ बदलता है।
समय के साथ सब बदलता है। ऐसा ही कुछ शादी के लगभग दो साल बाद हुआ। कहाँ पास होने के बाद भी गरबा कार्यक्रम में कभी नहीं गये औऱ कहाँ विवाह उपरांत पूरे एक महीने गुजरात से सिखाने आये गुरुजी से गरबे की ट्रेनिंग ली। हम चारों – ताऊजी के बेटे और भाभी औऱ हम दोनों, शायद बहुत ही गंभीरता से सीख रहे थे। ये अलग बात है कभी गरबा कार्यक्रम में जाने का औऱ अपनी कला दिखाने का मौक़ा नहीं मिला।
तो ये हमारा भोपाल भ्रमण कार्यक्रम का बड़ा इंतज़ार होता। अलग तरह की प्रतिमाओं को देखना, कोई किसी घटना को दर्शा रहा है या कोई किसी प्रसिद्ध मंदिर की झाँकी औऱ सुंदर सी देवीजी की मूर्ति। इन सबकी अब बस यादें ही शेष हैं। अक्सर ये घूमना षष्ठी या सप्तमी के दिन होता क्योंकि कालीबाड़ी भी जाना होता था। नवरात्रि मतलब गरबा – ये वाला कार्यक्रम अभी भी पूरी तरह से नहीं हुआ है। मुम्बई में झाँकी/पंडाल वाला कार्यक्रम सिर्फ़ बंगाली समाज तक सीमित है तो वहाँ जाना हुआ है।
जो हमारा घर था उसके दायें औऱ बायें दोनों तरफ़ दुर्गाजी की झाँकी लगती औऱ सुबह सुबह से दोनों ही पंडाल भजन लगा देते। शुरुआत एक से होती लेक़िन दूसरे कमरे तक पहुंचते पहुंचते भजन भी बदल जाता। क्योंकि पहले वाले की आवाज़ दूसरे के मुक़ाबले कमज़ोर पड़ जाती।
आप नवरात्रि कैसे मानते हैं औऱ इतने वर्षों में क्या बदला ? अपनी यादें साझा करें।
गुलज़ार मेरे पसंदीदा शायरों में से एक हैं औऱ इसके पीछे सिर्फ़ उनके लिखे गाने या ग़ज़ल ही नहीं बल्कि उनकी फिल्मों का भी बहुत बड़ा योगदान है। वैसे आज तो पूरी पोस्ट ही गुलज़ारमय लग रही है। शीर्षक भी उन्हीं का एक गीत है औऱ आगे जो बात होने जा रही वो भी उनका ही लिखा है। आज जिसका ज़िक्र कर रहे हैं वो न तो फ़िल्म है न ही गीत। औऱ जिस शख्स को याद करते हुये ये पोस्ट लिखी जा रही है, वो भी गुलज़ार की बड़ी चाहने वालों में से एक।
गुलज़ार, विशाल भारद्वाज (संगीतकार), भूपेंद्र एवं चित्रा (गायक) ने साथ मिलकर एक एल्बम किया था सनसेटपॉइंट। इस एल्बम में एक से एक क़माल के गीत थे। मगर इसकी ख़ासियत थी गुलज़ार साहब की आवाज़ जिसमें वो एक सूत्रधार की भूमिका में कहानी को आगे बढ़ाते हैं या अगले गाने के लिये एक पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। इसको सुनकर आपकी गाना सुनने की इच्छा औऱ प्रबल होती है। शायद अपने तरह का ये एक पहला प्रयोग था। एल्बम का पूरा नाम था सनसेट पॉइंट – सुरों पर चलता अफ़साना।
आज से ठीक एक बरस पहले हमारा जीवन हमेशा के लिये बदल गया जब मेरी छोटी बहन कैंसर से अपनी लड़ाई हार गई। कहते हैं बदलाव ही जीवन है। हम में से किसी के पास भी इस बदलाव को स्वीकार कर आगे बढ़ने के अलावा औऱ दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था। आप कुछ भी करिये, नहीं मानिये, लेक़िन वो बदलाव हो चुका था। हमेशा के लिये।
यशस्विता शास्त्री ❤️❤️❤️
365 दिन का लंबा सफ़र पलक झपकते ही ख़त्म हो गया लेक़िन यादों की सुई जैसे अटक सी गयी है। अग़र आपने कभी रिकॉर्ड प्लेयर पर गाने सुने हों तो ठीक वैसे ही। कुछ आगे बढ़ता सा नहीं दिखता लेक़िन 2021 आया भी औऱ अब ख़त्म होने की कगार पर है।
वापस आते हैं आज गुलज़ार साहब कैसे आ गये। इस एल्बम में अपनी भारी भरकम आवाज़ में एक गीत के पहले कहते हैं –
पल भर में सब बदल गया था…
…औऱ कुछ भी नहीं बदला था।
जो बदला था वो तो गुज़र गया।
कुछ ऐसा ही उस रात हुआ था। अपनी आंखों के सामने \’है\’ को \’था\’ होते हुये देखा। पल भर में सब कुछ बदल गया था। सभी ने अपने अपने तरीक़े से अपने आप को समझाया। जब नहीं समझा पाये तो आँखे भीगो लीं। कभी सबके सामने तो कभी अकेले में। हम सब, यशस्विता के परिवारजन, रिश्तेदार, दोस्त सब अपनी अपनी तरह से इस सच्चाई को मानने का प्रयास कर रहे थे। लेक़िन समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा औऱ आज यशस्विता को हमसे बिछड़े हुये एक बरस हो गया। पहली बरसी।
ज़िन्दगी की खूबसूरती भी यही है। ये चलती रहती है। औऱ यही अच्छा भी है। नहीं तो हम सभी कहीं न कहीं अतीत में भटकते ही रहें। सबके पास अपने अपने हिस्से की यादें हैं। कुछ साझा यादें भी हैं औऱ कुछ उनके बताने के बाद हमारी यादों का हिस्सा बन गईं। आज जब यशस्विता को याद करते हैं तो इसमें वो बातें भी होती जो उससे कभी नहीं करी थीं क्योंकि इन्होंने आकार उनके जाने के बाद लिया। जैसे कोई अजीबोगरीब नाम पढ़ो या सुनो तो उसका इस पर क्या कहना होता ये सोच कर एक मुस्कान आ जाती है औऱ फ़िर एक कारवां निकल पड़ता है यादों का। जैसे अमिताभ बच्चन सिलसिला में कहते हैं न ठीक उसी तरह…तुम इस बात पर हैरां होतीं। तुम उस बात पर कितनी हँसती।
जब मैंने लिखना शुरू किया तो अतीत के कई पन्ने खुले औऱ बहुत सी बातों का ज़िक्र भी किया। जब कभी यशस्विता से बात होती औऱ किसी पुरानी बात की पड़ताल करता तो उनका यही सवाल रहता, आज फलां व्यक्ति के बारे में लिख रहे हो क्या। मेरे ब्लॉग की वो एक नियमित पाठक थीं औऱ अपने सुझाव भी देती रहती थीं। जब मैंने एक प्रतियोगिता के लिये पहली बार कहानी लिखी तो लगा इसको आगे बढ़ाना चाहिये। तो ब्लॉग पर कहानी लिखना शुरू किया तो कुछ दिनों तक उनकी कुछ प्रतिक्रिया नहीं मिली। लिखने मैं वैसे भी आलसी हूँ तो दो पोस्ट औऱ शायद तीन ड्राफ्ट (जो लिखे तो लेक़िन पब्लिश नहीं किये) के बाद भूल गये। एक दिन यशस्विता ने फ़ोन कर पूछा कहानी में आगे क्या हुआ? अब लिखने वाले को कोई उसकी लिखी कहानी के बारे में पूछ लें इससे बड़ा प्रोत्साहन क्या हो सकता है, भले ही पाठक घर का ही हो तो भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैंने उनसे कहा अग़र आगे की कहानी जाननी है तो कमेंट कर के पूछो। न उन्होंने कमेंट किया न वो ड्राफ्ट ही पब्लिश हुये। वैसे उसके बाद उनकी स्वयं की कहानी में इतने ट्विस्ट आये की जय, सुधांशु, कृति औऱ स्मृति की कहानी में क्या ही रुचि होती। ख़ैर।
औऱ वो जो गुलज़ार का गाना जिसका मैंने ज़िक्र किया है ऊपर, उसके बोल कुछ इस तरह से हैं,
तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं, रात भी आई थी और चाँद भी था, सांस वैसे ही चलती है हमेशा की तरह, आँख वैसे ही झपकती है हमेशा की तरह, थोड़ी सी भीगी हुई रहती है और कुछ भी नहीं,
होंठ खुश्क होते है, और प्यास भी लगती है, आज कल शाम ही से सर्द हवा चलती है, बात करने से धुआं उठता है जो दिल का नहीं तेरे जाने से तो कुछ बदला नहीं रात भी आई थी और चाँद भी था, हाँ मगर नींद नहीं …नींद नहीं…
श्रवण कुमार की कहानी आपको पता होगी। आज एक बार फ़िर से बताता हूँ। श्रवण कुमार के माता पिता नेत्रहीन थे। श्रवण कुमार उनकी बहुत सेवा करते औऱ उन्होंने एक कांवर बनाई थी जिसमें वो उनको लेकर यात्रा करते। एक दिन तीनो अयोध्या के समीप के जंगल के रास्ते कहीं जा रहे थे तब माता पिता को पानी पिलाने के लिये श्रवण कुमार रुके। उसी जंगल में अयोध्या के राजा दशरथ भी शिकार के लिये आये थे।
जब श्रवण कुमार तालाब से पानी निकाल रहे थे तब महाराज दशरथ को ऐसा लगा की शायद कोई हिरन है पानी पी रहा है औऱ उन्होंने तीर चला दिया। तीर श्रवण कुमार को लगा जिससे उनके प्राण निकल गये। राजा दशरथ ने ये दुःखद समाचार उनके माता पिता को सुनाया। ऐसा कहा जाता है उन्होंने राजा दशरथ को श्राप दिया की उन्हें भी पुत्र वियोग होगा। वर्षों बाद दशरथ पुत्र रामचंद्र जी को वनवास हुआ और पुत्र वियोग में राजा दशरथ ने भी प्राण त्याग दिये थे।
कहानी 2: बचपन में माँ एक कहानी सुनाती थीं। एक बहुत ही होनहार बालक था। पढ़ने, लिखने, संस्कार सभी में अव्वल। जब उसकी परीक्षा का समय आया तब माँ की तबियत ख़राब हो गयी। बालक ने परीक्षा छोड़ माँ की देखभाल करना उचित समझा औऱ उनकी सेवा में लगा रहा। माँ के बहुत समझाने के बाद भी वो विद्यालय नहीं गया।
जब बालक परीक्षा देने नहीं पहुँचा तब उसके अध्यापक को थोड़ी चिंता हुई। उन्होंने विद्यालय से किसी को भेज कर पता करवाया। जब उन्हें उसके नहीं आने का कारण पता चला तो उन्होंने एक अध्यापिका को घर भेजा की वो बालक की माँ की देखभाल करें ताकि वो परीक्षा दे सके।
विद्यालय से लौटते समय उन्होंने बालक के घर जाकर माँ का कुशलक्षेम पूछा औऱ बालक को ढ़ेर सारा आशीर्वाद भी दिया।
ये तो कहानी हुई। अग़र आप कौन बनेगा करोड़पति का नया सीज़न देख रहे हों तो ज्ञान राज नाम के जो प्रतियोगी झारखंड से आये थे उनके जीवन में ऐसा ही हुआ। इंजीनियरिंग करने के बाद जो नौकरी का ऑफर था उसे छोड़कर उन्होंने बीमार माँ की देखभाल करने का निर्णय लिया। आज वो एक शिक्षक हैं औऱ अपने छात्रों को नई टेक्नोलॉजी सिखाते हैं।
असल ज़िंदगी में मैंने स्वयं ये सब बहुत क़रीब से देखा है। मेरी दादीजी को लकवा हो गया था जिसके चलते उनकी हमेशा देखभाल की ज़रूरत थी। एक सहायिका दिनभर के लिये रखी थी। माँ-पिताजी भी उनकी बहुत सेवा करते। पिताजी का रोज़ का रूटीन था उनको व्हीलचेयर पर बैठाकर नहाने के लिये बाथरूम लेकर जाते औऱ स्नान के बाद जब सहायिका की मदद से वो तैयार हो जातीं, तब उनको बाहर लेकर आते, जहां वो सबके साथ बैठ कर बातचीत करतीं। हम लोग उनको अखबार की ख़बरें भी पढ़कर सुनाते। पिताजी ये सारा काम हमारे साथ स्कूल निकलने से पहले करते। भोजन के लिये दादी को सहारा देकर बैठाने का काम हम भाई बहन का रहता।
अब चलते हैं मेरे कॉलेज के दिनों की तरफ़। जिस कॉलेज में मेरा दाखिला हुआ था वो घर से काफ़ी दूर था (पास वाले कॉलेज में दाखिले के लिये जो नंबर चाहिये थे वो मेरे से बहुत दूर थे)। जाने के दो विकल्प थे – या तो कुछ पैदल औऱ कुछ पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर निर्भर रहें या साइकल से जाया जाये। तीसरा विकल्प – गाड़ी वाला फाइनल ईयर में आकर मिला (परीक्षा के लिये)। तो साइकल की उस लंबी यात्रा के दौरान रास्ते में जो सुविचार वाले बोर्ड लगे रहते थे वो पढ़ते जाते थे। आज के जैसे मोबाइल फ़ोन तो हुआ नहीं करते थे की ईयरफोन लगाओ औऱ निकल पड़ो। हाँ चलता फिरता आदमी अर्थात वॉकमैन ज़रूर था लेक़िन जल्दी जल्दी बैटरी बदलना भी संभव नहीं था। कॉलेज लगभग रोज़ ही जाना होता था क्योंकि विज्ञान विषय था तो प्रैक्टिकल होते थे। तो ये सुविचार वाले बोर्ड यात्रा के साथी रहे लगभग तीन वर्ष।
भोपाल में जैसे ही आप भेल (BHEL) टाऊनशिप में प्रवेश करते हैं, बिजली के खम्बों पर लगे ये बोर्ड आपका स्वागत करते हैं। पूरे रास्ते ऐसे बोर्ड लगे हुये थे। ऐसा ही एक बोर्ड जो याद रह गया, उस पर लिखा था
माता पिता की सेवा करने वाला पुत्र कभी दुखी नहीं रहता
आपको बहुत से ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जो माता-पिता की देखभाल का ख़ूब दिखावा करेंगे लेक़िन बात कुछ औऱ ही रहती है। कोई अपने पालकों के नाम पर इमारत खड़ी कर ये समझते हैं समाज में उनकी वाहवाही होगी। कोई उनके बुत बनवा कर साल में एक बार साफ़ सफ़ाई करवा कर फ़ोटो खींच कर व्हाट्सएप ग्रुप में शेयर कर देते हैं। लेक़िन वो उन मूल्यों की तो तिलांजलि दे चुके रहते हैं, जिसका अग़र वो पालन करते तो शायद उनके दिवंगत माता पिता ज़्यादा खुश होते। लेक़िन जैसा इन दिनों फ़ैशन है सब चीज़ का दिखावा करिये। ख़ैर।
जो ऊपर दो कहानी औऱ अपनी दादी के बारे में बताया उसके पीछे कारण था इन दिनों ऐसी खबरें सुनना या पढ़ना जब बच्चे अपने माता पिता को छोड़कर चले जाते हैं या उनकी पूछ परख सिर्फ़ इसलिये करते हैं क्योंकि ज़मीन जायदाद का मामला रहता है। इन खबरों से दुःख तो होता ही है, आश्चर्य भी होता है। ऐसे बेटों की गलतियों के श्रेय ज़्यादातर बहुओं के हिस्से में आता है। चलिये एक बार को मान भी लें की बहू की ग़लती होगी, लेक़िन जिस बेटे को माँ बाप ने पाला पोसा वो कैसे अपने माता पिता के साथ ऐसा व्यवहार होता देख सकते हैं? कहीं न कहीं उनका मौन रहना उस ग़लत व्यवहार को बढ़ावा ही देता है। वैसे ही बड़ा भाई, जिसे मातापिता के न होने पर उनके स्थान पर रखा जाता है, वो कैसे अपने से छोटे भाई बहनों के साथ ग़लत होता देखते रहते हैं ख़ामोशी से? लेक़िन क्या सिर्फ़ संतान ही दोषी हैं? क्या माता-पिता भी कहीं इसके लिये कुछ हद तक दोषी हैं? यहाँ दोषी होने का मतलब क्या वो अपनी संतान से कुछ ज़्यादा की उम्मीद तो नहीं लगा बैठे? ज़्यादातर माता पिता ये मान कर चलते हैं की बुढ़ापे में जब उन्हें ज़रूरत होगी तब उनका पुत्र उनका ख़्याल रखेगा। लेक़िन कई बार ऐसा नहीं होता है। उल्टा माता पिता ही बच्चों के परिवारों का भी ख़्याल रखते हैं।
मुझे याद है जब अमिताभ बच्चन की फ़िल्म बाग़बान आयी थी। किसी कारण से मैं ये फ़िल्म नहीं देख पाया था। छोटे भाई ने फ़ोन कर बोला ये फ़िल्म ज़रूर देखना। जब देखी तो बहुत बढ़िया लगी। लेक़िन सभी को ये फ़िल्म पसंद नहीं आयी। हमारे एक रिश्तेदार फ़िल्म को देखने औऱ बाक़ी लोगों को इसको देखने के लिये बोलने से नाराज़ भी हुये थे। उनका दर्द समझ में भी आता था क्योंकि उनके सुपुत्र औऱ उनके संबंध लगभग ख़त्म से ही हो गये थे।
ख़ैर बात फिल्मों की नहीं है। असल ज़िन्दगी में अमिताभ बच्चन ने जिस तरह से अपने माता पिता की सेवा करी है उसकी भी मिसाल दी जाती है। ऐसी बहुत सी फ़िल्मों का यहाँ उदाहरण दिया जा सकता है।
बाग़बान के अंत का जो सीन है उसमें अमिताभ बच्चन बहुत सारा ज्ञान देते हैं। लेक़िन फ़िल्मों से जो भी ज्ञान मिले, असल ज़िन्दगी में क्यूँ हम ऐसे वाक्ये देखते हैं। भाई बहन के बीच तक़रार फ़िर भी समझ में आती है क्योंकि एक भाई थोड़ा लालची हो जाता है औऱ अपने फायदे के अलावा कुछ नहीं सोचते। लेक़िन माता-पिता के साथ ऐसा व्यवहार कैसे सही हो सकता है? माता पिता उम्र की उस दहलीज़ पर खड़े रहते हैं जहाँ उन्हें बस प्यार औऱ सम्मान की दरकार है। लेक़िन ऐसी बहुत सी संतान हैं जो इतना भी नहीं कर पाती। माता पिता सब इसलिये सह लेते हैं क्योंकि उनके पास औऱ कोई चारा नहीं है। वो अपना बचा हुआ जीवन बस गुज़ारना चाहते हैं।
जब तक माता पिता सामने रहते हैं उनकी क़दर नहीं करते औऱ उनके जाने के बाद सिर्फ़ अफ़सोस ही कर सकते हैं। वैसे ये बात सभी रिश्तों पर लागू होती है। कहाँ तो आप सालों साल बात नहीं करते औऱ फ़िर जब अचानक उनके न होने की ख़बर आती है तो जीवन भर न सही लेक़िन उनके जाने के शुरू के कुछ वर्षों तक आप अफ़सोस जताते रहते हैं। उसके बाद वही ढ़र्रे वाला व्यवहार वापस।
अपने आसपास सभी तरह के लोग देखें हैं। वो जो दिखावा करते नहीं थकते, वो जो माता पिता की क़दर नहीं करते औऱ वो भी जो माता पिता को ढ़ेर सारा प्यार देते हैं औऱ उनका ख़ूब सम्मान भी करते हैं। अगर आपके बच्चे ये देख रहें की आप अपने माता पिता से कैसे व्यवहार कर रहे हैं तो आपको अपने साथ भी ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद करनी चाहिये। वैसे इतनी कहानी हो चुकी हैं, नहीं तो इस बारे में भी एक कहानी है। उसका नंबर भी आयेगा।
\”शायद आज की पीढ़ी ये भूल जाती है जहाँ आज हम हैं, कल वो वहाँ होंगे। कल वो भी बूढ़े होंगे।\”
बाग़बान
वैसे ये जो सुविचार वाले बोर्ड थे (अब जानकारी नहीं है वो हैं की नहीं। भेल टाऊनशिप भी अब भुतहा जगह हो गयी है), बड़े याद आतें हैं। हाईवे पर कई गाड़ियों के पीछे भी ऐसे ही गुरुमंत्र लिखे रहते हैं। क्या आपने ऐसा कुछ कभी पढ़ा है जो आपको याद रह गया? कमेंट करके बताइये।
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There is catch phrase in Bell Bottom, \’It isn\’t over till it\’s over\’ which is obviously said by Akshay Kumar who is playing the title role. The same catch phrase is true for the ordeal of watching the latest offering by Kumar. It isn\’t over till the end credits start rolling which is 123 minutes after it started playing on Amazon Prime.
Now Akshay Kumar had mastered the art of becoming new age Bharat Kumar. I am sure like many things, he discovered accidentally that was the space he could easily fill. To be fair to him, he was part of many such successful patriotic films. But to give him the credit alone would be wrong. He had directors like Neeraj Pandey and wonderful script writers too. Sadly after successful films the two parted ways and since then Kumar is trying to find the winning combo with little success so far.
Coming to Bell Bottom, if you have seen the promo or if you were lucky enough to watch the film in cinema halls (really? lucky?), you know it\’s about a plane hijack incident and Kumar plays a RAW agent whose code – you guessed it right, is Bell Bottom. Now if you read the synopsis it\’s like tailor-made for Akshay Kumar. There is little that could go wrong. But after spending 123 minutes of a lazy Saturday afternoon, I am sharing the big secret. Everything about the film is wrong.
Script
As said earlier, the script synopsis sounds great. But the full script needs more meat to hold the audience. Here it fails miserably, which has been the case with past so many Akshay films. Agreed the film was shot during strict lockdown conditions but a half baked script won\’t have survived even during the normal times. It looks like the script was not ready and the makers decided to go ahead with the shooting.
Going back to Neeraj Pandey- Akshay Kumar combo (sounds so much like a dish you are ordering that would taste much better than this tasteless film), the characters were fleshed out and there were good, rather excellent actors in other roles too. There are glaring loopholes in the film and without giving away too much let\’s just say ignore them to sit for next 123 minutes.
There is scene in Baby climax (it reads so weird, read that again to get the punch), when the flight is waiting for ATC clearance to take off. Bell Bottom has a similar scene. While the Baby scene had tension building up because you so badly wanted the flight to take off with the prized possession, in this latest offering you don\’t care if the flight is allowed to take off or not. You just want this to end (there is till few minutes left if you check the player). Don\’t worry.
Actors
Ever since the trailer of the film was out Lara Dutta got special mention for her role as Indira Gandhi. Getting the look is fine. It\’s what the script offers after the look that matters. And she is not present throughout the film (it\’s not about her). Adil Hussain is great actor but had very little to do in this film. Vani Kapoor continues her War role of a song, couple of scenes and pack up. It\’s sad to see actors like Huma Qureshi, like Hussain, have been reduced to itsy bitsy roles.
And Akshay Kumar has age catching up with him. Fast. How on earth can he be passed off as a 30/32 year old is beyond me. I mean he is no Aamir Khan who works really hard on his character/look. That Kumar cannot act is a well known secret. It\’s just that producers get their money back and that\’s how he has survived. But not anymore. He reinvented himself to become the Bharat Kumar Hindi film industry was looking for. After all these years, looks like time has come for him to reinvent again. A lean, mean, fit Akshay Kumar is fine but films need more. There are other actors vying for the Bharat Kumar slot like Hrithik Roshan and Tiger Shroff. So there is competition for Kumar.
There are two songs in the film. First one is picturised on Kumar and Kapoor and the other one plays in the background during the climax. The KK song is pretty early in the film and it\’s not even on my playlist, which kind of explains there is nothing much to write when it comes to music.
I think the makers also realised the film will not have a long shelf life, like say Baby (I have lost the number of times I have seen it), and hence thought it best to release it on Amazon Prime before it\’s too late.
I was wondering what if the code name was either Sunder, Saand, Pucchi or Dollar given to other RAW agents in the film, instead of Bell Bottom?
While you think about it, look for Baby. It must be playing on one of the platforms and may be watch it again. Give this bottomless movie a miss.
Hospital drama in India have been popular but so few have been created. The ones that were, had less to do with hospitals and more to do with individuals. The best one I had seen and still remember something about is \’Lifeline\’. I still remember the title music by Vanraj Bhatia. In case you are wondering, it was on Doordarshan (yes the golden days when DD had awesome content). It looked like a real hospital and the characters (both doctors and patients) were believable.
Then there was Pakistani serial \’Dhoop Kinare\’ which was thoroughly enjoyable (again less about hospital and more about relationship between a young doctor and her senior). In between there was Sanjeevani which I haven\’t seen (I believe it was inspired by Dhoop Kinare) and then there was one with title Hospital but it was more about a journalist trying to expose wrongdoings going on and less about the hospital.
The 26/11 terrorist attacks has so far been seen from the eyes of cops, from Taj hotel staff member and now we have the doctor\’s side of the attack in the latest web series available on Amazon Prime – Mumbai Diaries 26/11. Interestingly, all the versions cover the attacks but the focus remains on whose version it is. So the first installment focussed on police version of the attack and it\’s aftermath, the Taj hotel was about attack on hotel and how this staff member saves lives of hotel guests.
Some thirteen years after the November 26, 2008 attack we get the doctor version of it. Like 9/11, this attack was widely covered on television (too much of it, if you ask me) but more on that some other time. While the other two versions were based on real life characters, I don\’t know if it\’s based on real life doctors present that day.
The plot
Since we all know about the attack and the plot and those behind it, there is nothing much to add. But this series is based on what happened at the hospital on that fateful day and creates the ground for what will happen in the night. So we have three fresh doctors who report to join as trainee doctor. There is no shortage of characters here and hospital also becomes a character. With other normal serials, the space where it is played out has little to contribute. But when it\’s about hospital, it becomes a character too. Unlike the spic and span hospitals which have been part of other serials, the Bombay General Hospital in this series, is as sarkari as any govt hospital could be. Overworked doctors, shortage of supplies and those stained walls – you get the perfect hospital setting.
Characters
As I said, there is no shortage of characters in this series. Bad thing is they all have a background story. But the good thing is it applies only to the hospital staff or couple of patients. Else it would have been endless series instead of just eight episodes. So there is Dr Kaushik who is head of trauma department and he has a team of nurses, attendants and the three trainee doctors who join him on the fateful day.
There is also the CMO and director social services played by Konkona Sen Sharma who is not a qualified doctor. There is just one patient who is there from the first episode till the last – one septuagenarian Punjabi lady. There are more patients but she is the only one writer could give some sort of flesh and bone.
There is a bad cop too who is after the good doc for not following the due process of informing the police about cases that should be reported. He is as foul mouthed as police characters get and he is also after a nurse for…
Since it\’s a sarkari hospital so things are in short supply but the canteen has fruit salad to offer. There is no link but just wanted to mention this. It gives you fair and not so lovely amount of idea that stage is set.
Before the terrorist storm the hospital, background stories of all the main docs (old and new both) needs to be set up. So before the terror unfolds we get to know about these characters and what all is wrong with their lives. Sounds like a regular soap opera where something or other is wrong day after day? The busy doc has no time for his wife, the pampered kid of doctor couple doesn\’t like all the attention, another trainee doc has typical middle class background where her parents ask her to offer sweets to her senior, the nurse couple is trying hard to offer a better life to their kids and hubby is selling hospital secrets to journos. Did I miss something? Oh yes. Communal harmony – we need to have a Muslim character too to complete the script and here he is in form of the male trainee doctor. The recipe looks complete. The scriptwriter managed to finish it in eight episodes nahin toh there was ample scope for extra marital angle as well. A bolder script writer would have introduced a gay/lesbian angle too. Blame it on short and sweet series.
Performance
To be fair to the actors, they have done a good job. It\’s not your run of the mill kinda set up where you look good and mouth few lines and done. They had to learn procedures and mouth what a doctor would. So good job by all.
Except Mohit Raina, there is no one else that stays with you. He is not there in every frame but whenever he is there, he just steals the show. Konkona Sen Sharma plays her part perfectly, like she always does.
Shreya Dhanwanthari as TV journalist chasing exclusives is superb. Having played print journalist in Scam and TV journalist in Mumbai Diaries 26/11, she is learning journalism on the job.
Writing
The first and may be the second episode manage to hold your attention. But third episode onwards it\’s downward journey as far as writing is considered. The tension which should be part of hospital drama is missing and the writers seem to have lost plot. Bits and pieces manage to hold it together but a better script could have done wonders. Watch Scam or Delhi Crime, again if you have already, to know what I mean.
There is scene in episode seven where doctor needs to operate upon a patient and there is some senti line thrown in by one of character. It was supposed to be rather emotional high point, choking and tears welled up kind of scene. But nothing happens. For a person who gets emotionally invested rather easily, I was completely not interested in whatever was happening. Like Mohit Raina in the last episode who looks at one of trainee crying over a dead body and pleading for help.
There is another scene which is so so filmy. One character has to call his wife using mobile of another character. Unable to reach, he tries to message to only discover a secret on the mobile. I have tried not to give away too much info by smartly omitting the names. 🙂
Verdict
As mentioned in the beginning, I began watching this series hoping to get a good hospital drama (even after knowing the story). But was let down by poor writing, which is often the case these days. And why the hell we cannot have series without the F word and reference to ladies? The docs use F word like there is no tomorrow and the less said about the gaalis the better. It\’s actually my pet peeve with content creators. I also realised that there is hardly any series without these words. Like writers who use these words in any and every situation, the viewers have also started treating it as normal. (Angry face).
There is lot of blood and gory cuts, stitches and shots of human organs. So if blood is not what you like to see, you can give it a miss. Otherwise watch it for Mohit Raina and hope he gets better scripts.
Why I Blog is like asking Why I breathe. To blog was not a choice when I became aware of the blogging platforms. It was an escape I always wanted as a writer. Before blogging happened it was maintaining a diary. But as it happens, I stopped writing for various reasons, primarily being I did not want to share my thoughts to self.
Writing for someone always has its own trappings and while the writer in you would be happy to be part of the creative process, writing for your self is far more liberating.
First there are no set things to keep in mind so you can pretty much write the stuff that you want to send out. Second and very important is this is real you. You are not taking your riders on a ride and nor are you creating any false notions about yourself. You are exposing yourself to the world and that take whole lot of courage.
Different people have different ways to get things out of their system. Some paint, others sing, some dance, others think. I write.
Whoever said writing is therapeutic wasn\’t wrong. It sure is and something more.
Expressing yourself to others is a big challenge because you have to speak in language they understand. Its like a movie which we like or a song we fall in love because it captures your mood in a manner no other song managed to do.
Writing to me is something very personal since I do not comment on what is happening around me, nor am I writing about any particular genre but rather what is inside me.
I was about to say it’s that day when wife allows me to keep things at a place chosen by me and not where she believes it should be. When I control the remote and decide what to eat and… But wait. Have I missed something? Questions like these are normally not asked in official meetings. ‘The well informed’ colleague whom I have ignored all over office and replied in monosyllables, helped with his expert opinion. It was THE Independence Day. August 15.
But is it not a day off? What is there is to discuss about it? Wife and kids have already made lots of plans like which mall to raid for the Independence Day sale. I adopted a wait and watch policy to see what others had to say. May be they will say what I was thinking and I will nod in agreement (that was a smart strategy in my mind). But I was not the only smart one. People just gave the impression they were taking notes. Nobody said a word and so it was decided to submit our opinion in writing.
What??? Now write about it?
Now questions like these are very dangerous, as they tend to bring in many sensitive issues like marriage and/or age into picture. Suddenly it strikes you it was such a long time ago because you last celebrated the Independence Day when you were in school. When was that? Let’s see – when Doordarshan had only one channel to entertain us and the day was hijacked by movies like Gandhi or Pukar or Kranti or Purab aur Paschim and lots of Manoj Kumar songs (before Mr Caneda Kumar arrived on the scene). That sounds/looks and is definitely pretty long ago! The picture above is just ro remind you about the delicious ladoo that is also traditionally associated with I-Day celebrations. What we got to eat? Read on.
Even that celebration was forced because it was compulsory (yes in bold) and the school management came up with innovative ways to ensure we attended the day without fail. Like, linking attendance to something as exciting as hot samosa snack from the canteen! Full attendance ensured. Though I am still paying the price for falling for the samosa bait but I tell you they were just so yummy! Hey Alexa can you order some from Swiggy?
It wasn’t that I got married immediately after school or there were no Independence Day celebrations. But things were \’different\’ in college. Our gang would hardly attend any lectures so the question of shocking our professors by showing our face on Independence Day was completely ruled out. We definitely had our hearts at the right place. And also there were no samosas on offer. So we gave the event a miss. Alexa, did you order the Samosa or not.
Years later when I started working as a journalist it was one of the only four official holidays we would mark from the beginning of the year. So essentially it has become just another holiday for me too. Thanks to more channels available I no longer watch Mr Bharat but can opt for a certain Mr D K Bose or now Mr Tiger. That is if I get the remote.
As for the holiday mood, things have become more organized now. Even if I miss the long weekend in the leave chart, there are reminders from travel websites. If I miss that too, the channels keep bombarding with ads of special long weekend reruns of reruns. Newspapers are not far behind with stories and pages dedicated to help plan – what else but the long weekend.
Is that all our Independence Day has been reduced to? A long weekend? People fought, gave away their lives 75 years ago so that we could plan a long weekend? Or that Samosa party, Alexa can you hear me?
(This piece was written looong before covid and lockdowns. But not much has changed. Or may be a lot has. There are three new malls in my area which means more shops to raid. India is where it was.)
वर्ष 1983 में रिलीज़ हुई हिंदी फिल्मों पर अगर नज़र डालें तो उस साल मेनस्ट्रीम औऱ आर्ट फिल्में या मुख्य धारा औऱ समानांतर सिनेमा की कई यादगार फिल्में रिलीज़ हुई थीं।
अगर आप उस वर्ष की दस सबसे ज़्यादा कमाई वाली फिल्मों की लिस्ट देखेंगे तो लगेगा उस वक़्त लोगों को क्या हो गया था। जब मैंने ये लिस्ट देखी तो मुझे हँसी भी आई औऱ आश्चर्य भी हुआ। उस वर्ष की जो दस सर्वाधिक कमाई वाली फिल्में थीं उनकी लिस्ट कुछ इस तरह है:
हिम्मतवाला
बेताब
हीरो
कुली
अंधा कानून
मवाली
नौकर बीवी का
जस्टिस चौधरी
महान
जानी दोस्त
आगे बढ़ने से पहले इस लिस्ट की बात कर लेते हैं क्योंकि उसके बाद इसका नंबर नहीं आयेगा। तो इस 10 कि लिस्ट में से आपने कौन कौन सी फिल्में देखी हैं? मैंने इनमें से आजतक सिर्फ़ चार फिल्में ही देखी हैं – बेताब, हीरो, कुली औऱ नौकर बीवी का। जितेंद्र कुछ ख़ास पसंद नहीं थे औऱ ऐसा ही कुछ अमिताभ बच्चन के साथ भी था। कुली मेरे ख़्याल से इसलिये देखी होगी क्योंकि इस फ़िल्म के दौरान बच्चन साहब घायल हुये थे तो सबकी उत्सुकता रही होगी। नौकर बीवी का शायद इसलिये की ये कॉमेडी फिल्म थी। ये दोनों ही फिल्में सिनेमाघर में देखी थीं। हीरो औऱ बेताब तो काफ़ी समय बाद छोटे पर्दे पर देखी थी। वैसे नौकर बीवी का एक गाना \’क्या नाम है तेरा\’ काफ़ी सुना गया था औऱ आज भी भूले बिसरे सुन लेते हैं। इसकी भी एक कहानी है लेक़िन उसका वक़्त जब आयेगा तब आएगा। फ़िलहाल आप भी देखिये औऱ सुनिये औऱ आगे पढ़ते भी रहिये। :–)
तो ये दस फिल्में आपको ये बिल्कुल भी नहीं बताती उस साल की जो क़माल की फिल्में आयीं थीं उनके बारे में। कारण भी साफ़ है – सफलता का पैमाना जब सिर्फ़ बॉक्सऑफिस पर कमाई हो तो आप क्या कर सकते हैं। लेकिन इसी वर्ष 1983 में आईं थीं कुछ ऐसी फिल्में जिनका नाम हमेशा के लिये सिनेमा के चाहने वालों की ज़ुबान पर चढ़ गया औऱ इतिहास के पन्नों पर उनका नाम भी हमेशा के लिये दर्ज़ हो गया।
अर्द्धसत्य, कथा, सदमा, मासूम, मंडी, रज़िया सुल्तान, वो सात दिन औऱ… जाने भी दो यारों। इन आठ में से सिर्फ़ रज़िया सुल्तान ही नहीं देखी है। बाक़ी सातों देखी है औऱ जाने भी दो यारों को तो इतनी बार देखा है की अब तो गिनती भी याद नहीं। अब ये फ़िल्म एक क्लासिक बन गयी है औऱ 1983 में आज ही के दिन, अगस्त 12 को ये रिलीज़ हुई थी। क्या इस फ़िल्म को भोपाल के किसी सिनेमाघर में रिलीज़ किया गया था, ये रिसर्च का विषय हो सकता है। ऐसा इसलिये अगर आप दस पैसा कमाने वाली फिल्मों पर नज़र डालें तो जाने भी दो यारों के कलाकार अलग नज़र आते हैं। उसपर से फ़िल्म में न कोई गीत संगीत न कोई ऐसी अदाकारा जिसे देखने लोग आयें।
मैंने ये फ़िल्म 1983 में शायद नहीं देखी थी। शायद इसलिये क्योंकि फ़िल्म वीसीआर पर देखी थी औऱ उन दिनों इसका लाभ गर्मियों की छुट्टी में ही लिया जाता था। वैसे दीवाली पर भी उस समय लंबी छुट्टी होती थीं इसलिये शायद। उसके बाद से इस फ़िल्म को देखना हर छुट्टी में एक रूटीन सा बन गया था।
उस समय इतनी समझ नहीं थी की फ़िल्म के ज़रिये क्या संदेश दिया जा रहा है या की फ़िल्म हमारे सिस्टम पर कटाक्ष कर रही है। यही मेरे ख़्याल से इस फ़िल्म की ख़ूबी भी है की बहुत ही सीधे, सरल शब्दों में बहुत गहरी बात कर जाती है। फ़िल्म मनोरंजन भी करे औऱ कुछ सवाल भी उठाये – ये उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। ज़्यादातर फिल्में सवाल पूछने से डरती हैं क्योंकि उसके चक्कर में मनोरंजन की बलि न चढ़ जाये। आज ऐसी फिल्मों की संख्या कम है। उल्टा दर्शक अब पूछने लगते हैं भाई फ़िल्म बनाई क्यों थी? सलमान खान की रेस 3 औऱ राधे उसका अच्छा उदाहरण हैं।
विषय से भटकें उसके पहले वापस आते हैं।विनोद, सुधीर, तरनेजा, आहूजा, डिमैलो या शोभा जी ये सब हमारे आसपास के ही क़िरदार लगते हैं। इतने वर्षों में बदला कुछ भी नहीं है। पुल आज भी गिर जाते हैं, फ़िल्म में बिल्डिंग में फ्लोर बढ़ाने का तरीका बताया है, आज तो पूरी की पूरी बिल्डिंग खड़ी हो जाती है औऱ किसी को पता भी नहीं चलता।
इन दिनों बारिश का मौसम है औऱ साल दर साल रोड़ बनाने का करोड़ों का कॉन्ट्रैक्ट दिया जाता है। लेक़िन हर बारिश में ठीक उसी जगह की रोड़ फ़िर ख़राब होती है औऱ फ़िर से बनाई जाती है। ख़ैर इस गंभीर विषय से वापस फ़िल्म पर आते हैं। इस फ़िल्म में एक लाइट स्विच ढूँढने का सीन है। वैसे ही कुछ हमने भी एक बार लाइट जाने के बाद टॉर्च ढूंढी थी। इस किस्से के बारे में बस इससे ज़्यादा कुछ बता नहीं सकते। ;–)
जैसा मैंने बताया, इस फ़िल्म को अब इतनी बार देख चुके हैं की फ़िल्म कंठस्थ हो गयी है। लेक़िन अभी पिछले दिनों जब इसको फ़िर से देखा तो मज़ा वैसा ही आया। क्लाइमेक्स में जो महाभारत का संदर्भ है वो तो क़माल का है। इसका पूरा श्रेय फ़िल्म के लेखकों को जाता है। फ़िल्म के अंत में जब सब आपस में सेटिंग कर विनोद औऱ सुधीर को बलि का बकरा बनाते हैं। बैकग्राउंड में हम होंगे क़ामयाब एक दिन बजने लगता है औऱ मुम्बई के फ़ोर्ट के फुटपाथ पर विनोद औऱ सुधीर को जेल की पौशाक में देखकर आप निराश भी होते हैं औऱ गाना आपको उम्मीद भी जगाता है।
जो दूसरी लिस्ट की फिल्में हैं उसमें से मासूम, सदमा, रज़िया सुल्तान औऱ वो सात दिन का संगीत क़माल का है। इसी साल आयी एक औऱ फ़िल्म जिसका ये गाना दरअसल जीने का फलसफा है।
आजकल खानेपीने के इतने सारे विकल्प उपलब्ध हैं की कई बार समझ नहीं आता की क्या खाया जाये।
आपने अग़र फ़ैमिली मैन का दूसरा सीजन देखा हो तो, उसमें निर्देशक द्वय राज-डी के ने इस बार दक्षिण भारत में कहानी बताई है। मनोज बाजपेयी अपनी टीम के साथ जब चेन्नई पहुँचते हैं तो एक सदस्य चेन्नई की टीम से कहते हैं मुझे दक्षिण भारतीय खाना बहुत पसंद है। उस टीम के मुख्य उनसे पूछते हैं दक्षिण भारत में कहाँ का भोजन पसंद है। दरअसल हमने पाँच राज्यों को एक में समेट लिया औऱ ये भी मान बैठे की सभी राज्यों में एक जैसा ही खाना खाया जाता है।
इसका ज़िक्र इसलिये कर रहा हूँ की मुझ पर ये इल्ज़ाम लगता है कि मुझे दक्षिण भारत में होना चाहिये था क्योंकि मुझे भी दक्षिण भारतीय व्यंजन बेहद पसंद हैं। अब किस राज्य में होना चाहिये ये मेरे लिये चुनना मुश्किल है। वैसे मुझे गुजराती व्यंजन भी बेहद पसंद हैं। आज गाड़ी दक्षिण की तरफ़ मुड़ चुकी है तो वहीं चलते हैं। दक्षिण भारतीय व्यंजन से परिचय बहुत देर से हुआ क्योंकि जब हम बड़े हो रहे थे तब खानेपीने के इतने सारे विकल्प नहीं थे। कुछ अलग खाने की इच्छा होती तो चाट या समोसा-कचोरी। इसके अलावा सब कुछ घर पर ही बनता औऱ स्वाद लेकर खाया भी जाता। अब तो एप्प आ गईं हैं जो आपकी ये मुश्किल आसान कर देती हैं। जब एक वर्ष दिल्ली में रहा तो एप्प ने बड़ा साथ दिया लेक़िन कई बार समझ ही नहीं आता क्या खाया जाये। चाइनीज औऱ बाक़ी विकल्पों में घूमते हुये ही समय निकल जाता फ़िर थाली ही आर्डर करने के लिये बचती।
आज के जैसे तैयार घोल जिससे आप इडली डोसा उत्तपम आसानी से बना सकते हैं, वो भी उन दिनों उपलब्ध नहीं था। मतलब सब स्वयं तैयारी करिये औऱ उसपर से सब की अलग अलग पसंद। डोसा तो फ़िर भी कभी कभार बन ही जाता था लेक़िन इडली से मुलाक़ात बहुत बाद में हुई जब इडली बनाने का साँचा मिलने लगा। कई गृहणियों ने अपने अपने हिसाब से इन व्यंजनों को बनाने का तरीका भी निकाला। कुछ ने तो आज का चेन्नई औऱ उन दिनों के मद्रास से साँचे भी मंगाये। एक परिवार ने साँचे मंगा तो लिये लेक़िन उसका उपयोग उन्हें शुरू में समझ में नहीं आया तो उन्होंने अपना एक जुगाड़ निकाला। अप्पे के साँचे को इडली के घोल से भरने के बाद वो उसी के ऊपर तड़का भी लगा देतीं। ये नई तरह की डिश का उन्होंने नामकरण भी किया औऱ सबसे ज़्यादा अच्छी बात ये हुई की ये परिवार के सदस्यों को पसंद भी आई।
जब तक भोपाल में रहे तो बाहर खाना बहुत कम हुआ। ऐसे ही किसी ख़ास मौके पर जाना हुआ इण्डियन कॉफ़ी हाउस या ICH जो उन दिनों न्यू मार्केट के मुख्य बाज़ार का हिस्सा हुआ करता था। उसके बाद से इडली, डोसा औऱ उत्तपम के साथ कॉफ़ी से मोहब्बत का जादू ऐसा चला की आज भी ये खाने को मिल जाये तो औऱ कुछ नहीं सूझता। रही सही कसर कॉलेज में बने दोस्तों से पूरी हो गयी। मेरे उस समय के मित्र जय, विजय औऱ सलिल तीनों ही दक्षिण भारत से थे औऱ इनके यहाँ खाने का कोई मौक़ा मैं नहीं छोड़ता।
जब पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा तो कॉफ़ी हाउस जाना बहुत नियमित हो गया था। कारण? वहाँ बहुत सी पत्रकार वार्ता हुआ करती थीं। इसके अलावा उस समय के काफ़ी सारे पत्रकार सुबह वहाँ इकट्ठे होते औऱ कॉफ़ी औऱ सिगरेट के बीच पिछले दिन के समाचार की समीक्षा औऱ बाक़ी चर्चा होती। मेरा इसमें जाना हुआ नहीं क्योंकि सभी बहुत सीनियर लोग थे लेक़िन मेरे गुरु नासिर क़माल साहब ने बुलाया कई बार।
परिवार के साथ भी कहीं बाहर खाने के लिये जाना होता तो ज़्यादातर कॉफ़ी हाउस का ही रूख़ करते। खाना पसंद आने के अलावा एक औऱ चीज़ जो अच्छी थी वो थी क़ीमत जो जेब पर डाका डालने वाली नहीं थी। मध्यम वर्गीय परिवार के लिये इससे अच्छी बात औऱ क्या हो सकती थी। अच्छा उन दिनों का मेनू भी बहुत ज़्यादा बड़ा नहीं हुआ करता था। अब जो नया कॉफ़ी हाउस बना है वहाँ तमाम तरह की चीज़ें मिलने लगी हैं लेक़िन आज भी जो सांभर वहाँ मिलता है उसका कोई मुकाबला नहीं।
आज ये दक्षिण भारतीय खाने के बारे में इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि पिछले दिनों कहीं पढ़ा था की नागपुर शहर से इडली डोसा सांभर का परिचय करवाया था महान वैज्ञानिक सी वी रमन जी ने। बात 1922 की है जब अंग्रेजों ने उन्हें नागपुर में एक संस्थान खोलने के लिये भेजा था। नागपुर की गर्मी तो उन्होंने जैसेतैसे बर्दाश्त कर ली लेक़िन जैसा की अमूमन होता है, वहाँ जो खाना मिलता था उसमें बहुत तेल होता औऱ उसका स्वाद भी उन्हें नहीं भा रहा था। जिस तरह का खाना उनको चाहिये था वो कहीं भी मिल नहीं रहा था। रमन जी ने अपने घर से रसोइये रामा अय्यर को बुला लिया।
महाराज के आने के बाद रमन जी को उनके स्वाद का भोजन मिलने लगा। कुछ दिनों बाद उन्होंने सोचा इन व्यंजनों से नागपुर के रहवासियों का भी परिचय कराया जाय औऱ इस तरह शुरुआत हुई \’विश्रांति गृह\’ की। कुछ ही दिनों में ये रेस्टोरेंट चल निकला औऱ लोगों की भारी भीड़ रहने लगी। कई बार तो रविवार को पुलिस की मदद लेनी पड़ती भीड़ को काबू में रखने के लिये। जो व्यंजन मिल रहे थे न सिर्फ़ उनका स्वाद अलग था बल्कि उनको बनाने का तरीका भी। जैसे दक्षिण भारतीय व्यंजन में नारियल का प्रयोग होता है। महाराष्ट्रीयन खाने में सूखे नारियल का प्रयोग होता है। लोगों को स्वाद बेहद पसंद आया।
इस खाने के चर्चे दूर तक होने लगे औऱ कोई भी अभिनेता या नेता नागपुर आते तो \’विश्रांति गृह\’ के भोजन का स्वाद लिये बिना नहीं जाते। फ़िल्म अभिनेता अशोक कुमार, कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी भी यहीं से खाना मँगवाते। ये भी माना जाता है की आजकल जो रवा डोसा खाया जाता है उसकी उत्पत्ति भी नागपुर शहर में ही हुई है। जब डोसे का घोल समाप्त हो जाता लेक़िन भीड़ कम नहीं होती तो महाराज ने रवा घोल कर डोसा बनाना शुरू कर दिया। 1930 में अय्यर महाराज ने अपने ख़ास रसोइये मणि अय्यर को रेस्टोरेंट की ज़िम्मेदारी सौंप दी औऱ दक्षिण भारत वापस चले गये। नागपुर में ये रेस्टोरेंट आज भी चल रहा है औऱ परिवार के सदस्य जो किसी का पेट भरने को एक पुण्य का काम मानते हैं, उनका भी यही प्रयास है की ये कभी बंद न हो।
नागपुर से वापस आते हैं भोपाल औऱ यहाँ के कॉफ़ी हाउस में। इस बार लिटिल कॉफी हाउस जो ICH से थोड़ी दूरी पर बना था। इसके जो मालिक थे वो पहले एक ठेला लगाते थे औऱ धीरे धीरे उनके बनाये खाने का स्वाद लोगों की ज़ुबान पर चढ़ा औऱ उन्होंने अपना रेस्टोरेंट खोल लिया। लेक़िन उन्होंने उस हाथ ठेले को नहीं छोड़ा औऱ उसको भी अपने रेस्टोरेंट में रखा। यहाँ जाना थोड़ा कम हुआ करता था क्योंकि ये थोड़ा अंदर की तरफ़ था।
तो कॉफ़ी हाउस ICH में उन दिनों बैठने के अलग अलग हिस्से थे। मसलन परिवार के लिये अलग जगह थी औऱ बाक़ी लोगों के लिये जो मैन हॉल था वहीं पर ऊपर नीचे बैठने की व्यवस्था थी। अगर आप अपनी महिला मित्र को लेकर जा रहें औऱ किसी की नज़र में भी नहीं आना चाहते हैं तो आप फैमिली वाले एरिया में जा सकते हैं। वो फैमिली का हिस्सा बने या न बनें कॉफी हाउस की मुलाक़ात तो यादगार बन जायेगी। ऐसे ही वहाँ कई जोड़ियाँ भी पक्की हुई हैं। 1970 के दश्क में विवाह के लिये परिवारों को मिलना होता या लड़का/लड़की को दिखाने का कार्यक्रम होता तो वो भी इसी जगह होता। बात आगे बढ़ती तभी घर पर जाना होता। किसी की पहली मुलाक़ात, कॉफी हाउस जैसी चहल पहल वाली जगह औऱ वहाँ की कॉफ़ी। भला इससे बेहतर एक सफ़र की शुरुआत क्या हो सकती है।
हमारे समय तक आते आते नये होटल आ गये थे तो ये कार्यक्रम वहाँ सम्पन्न होता। वैसा अच्छा ही हुआ क्योंकि अग़र कॉफ़ी हाउस जाते औऱ सांभर चटनी पर ध्यान लग जाता तो ये कार्यक्रम वहीं धरा का धरा रह जाता। अगर कभी भोपाल जाना हुआ तो कॉफ़ी हाउस के लिये समय निकाल लें। बहुत कुछ बदल ज़रूर गया है, भीड़ भी होने लगी है लेक़िन स्वाद लगभग वैसा ही है।
क्या आपको वो दिन याद हैं जब होटल जाना एक बड़ा जश्न हुआ करता था? अपनी यादों को मेरे साथ साझा करें। आप कमेंट कर सकते हैं या इस ब्लॉग के टेलीग्राम चैनल से भी जुड़ सकते हैं।
हम इंसान आदतों के मारे हैं। ये कैसे बन जाती हैं ये हमें पता भी नहीं चलता।
जब कोई एक काम रूटीन से हट जाता है तब समझ आता है की हमें कैसे उसकी आदत सी हो गयी थी। कोरोनकाल के चलते ऐसी कई अच्छी औऱ कुछ बुरी आदतों को मजबूरी में छोड़ना पड़ा।
ऐसी ही एक अजीब सी बात आज सुबह सुबह हुई। घर का दरवाज़ा खोला तो बहुत दिनों से गुम अख़बार भी रखा हुआ था। पिछले क़रीब 17 महीने के बाद से सुबह सुबह अख़बार औऱ चाय का साथ भूल ही गये थे। चाय का आनंद अब ऐसे ही लेते हैं। कुछ दिन अखबार की कमी भी खली लेक़िन लॉक डाउन में रहने के बाद सब आदतें बदल गयी थीं।
बचपन से अख़बार पढ़ने की आदत तो नहीं थी। लेक़िन जब कभी पढ़ने को मिल जाता तो पढ़ ज़रूर लेते। घर में उन दिनों सुबह सुबह \’नईदुनिया\’ आता था। चूँकि पिताजी इंदौर में काफ़ी समय रहे तो इस पेपर को पढ़ने की आदत हो गयी औऱ जब भोपाल आये तब भी यही अख़बार आता रहा। इन दिनों समाचार में छाये दैनिकभास्कर किसी को ख़ास पसंद नहीं आता। \’नईदुनिया\’ में काफ़ी क़माल के लेख पढ़ने तो मिले औऱ ये कहूँ की पत्रकारिता का पहला पाठ भी (अनजाने में ही सही)।
बरसों तक नईदुनिया ही पढ़ते रहे। औऱ जैसा होता है की धीरे धीरे आपको उस समाचार पत्र के लिखने का अंदाज़ औऱ जिस लिपि में वो छपता है, वो सब भाने लगता है। मतलब कम्पलीट पैकेज। हम लोगों की अंग्रेज़ी बेहतर हो इसके लिये पिताजी ने एक अंग्रेजी अख़बार भी लगवाया – टाइम्स ऑफ इंडिया। लेक़िन शुरू में सिर्फ़ पिताजी ही उसको पढ़ने का कष्ट करते। इसी पेपर में आर के लक्ष्मण जी का मशहूर कार्टून भी आता औऱ पापा कहते अगर कोई न भी पढ़े लेक़िन सिर्फ़ उस कार्टून के लिये ही अख़बार पैसा वसूल है।
ख़ैर समय के साथ साथ दोनों अखबारों को अच्छे से पढ़ना शुरू किया। हम तो दो अख़बार से ही घबरा जाते थे लेक़िन मामाजी के यहाँ 4-5 पेपर रोज़ आते थे। सबको पढ़ने का शौक़ भी था। अख़बार के अलावा हमारे यहाँ कई मैगज़ीन भी आती थीं औऱ बाकी किताबों के बारे में पहले ही बता चुका हूँ।
कई बार आदतें आगे काम आती हैं, ये एहसास उस समय हुआ जब पत्रकारिता के क्षेत्र में क़दम रखा। अपना अखबार तो पढ़ते ही थे, साथ में दूसरे अख़बार भी पढ़ते ये जानने के लिये की कहीं कुछ ज़रूरी ख़बर छूट तो नहीं गई। जब पीटीआई पहुँचे तो वहाँ सुबह की शिफ़्ट में एक रिपोर्ट बनाने का काम हुआ करता था। इस रिपोर्ट के आधार पर सभी संपादकगण की मीटिंग होती। किस अख़बार ने हमारी ख़बर ली औऱ क्या छूटा। उस समय के हमारे एक वरिष्ठ संपादक हुआ करते थे अरुण कुमार जी। उनकी ट्रेनिंग क़माल की थी। उन्होंने ये भी सिखाया की स्टोरी को अलग अलग तरीके से कैसे कवर कर सकते हैं।
ये जो ट्रेनिंग मिली उसकी बदौलत आज भी दिमाग़ यही दौड़ता रहता है जब अख़बार पढ़ते हैं। तो उस सुबह अख़बार मिला तो थोड़ा अटपटा सा लगा। बहुत दिनों बाद मिलने के बाद कि ख़ुशी भी नहीं हुई। हाँ अख़बार को हाँथ लगाने के पहले औऱ बाद हाँथ धोने की हिदायत का पालन किया।
कोरोना के चलते बहुत सी आदतें बदल गयी हैं। अख़बार हाँथ में न सही, मोबाइल पर तो मिलता है। तो अब सब कुछ वहीं से। हाँ अब नईदुनिया पढ़ने की आदत छूट गई है क्योंकि अब बहुत सारे अख़बार पढ़ते हैं औऱ पुराने पेपर के मालिक भी बदल गये तो लिख़ने का अंदाज़ भी औऱ लोग भी बदल गये हैं।
नईदुनिया में उस समय रोज़ का कॉमिक्स की एक स्ट्रिप आती थी मॉडेस्टी ब्लेज़। शायद औऱ कुछ भी लेक़िन मॉडेस्टी डेस्टी ब्लेज़ याद है। कहानी पूरी होने पर उसकी कटाई कर के किसी पुरानी कॉपी पर चिपका देने का काम होता। इसके बाद वो कहानी को एक साथ पढ़ने में बड़ा मज़ा आता। आज भी घर में इस काम के कुछ नमूने ज़रूर होंगे। मज़ा तो तब आता जब किसी कारण से कुछ दिन की कटिंग नहीं रख पाये। बस फ़िर जानने वाले जो नईदुनिया के पाठक थे उनसे ये हासिल करी जाती। ऐसे ही औऱ भी कई कटिंग्स रखी जातीं, किसी अच्छे लेख की या किसी अच्छे विचार की। आज भी जो दस्तावेजों का खज़ाना, जिसको श्रीमतीजी कई बार हटाने की चेतावनी दे चुकीं हैं, उसमें शायद कुछ रखा भी हो।
अब इतना लिख़ने के बाद लगता है फ़िर से अख़बार लगा लिया जाये। हाथ में अख़बार औऱ चाय की प्याली हो या अख़बार पढ़ते हुये रेडियो सुनने का जो आनंद है वो डिजिटल में कहाँ।
अख़बार का आपके जीवन में क्या स्थान रहा है? क्या कोरोनकाल में आपका भी अख़बार से नाता टूट गया था? कमेंट कर बतायें।
रेडियो सी जुड़ी यादें जो साझा करीं थीं उसमें से कुछ छूट से गया था इसलिये इसकी दूसरी क़िस्त।
रेडियो जिंदगी का एक अभिन्न अंग सा रहा एक लंबे समय तक। जब पहली बार मुम्बई आया तब निखिल दादा के पास एक रेडियो था। वो जब दफ़्तर चले जाते तब रेडियो ही दिन भर का साथी रहता। उस समय पहली बार प्राइवेट एफएम रेडियो चैनल को सुना लेक़िन कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया। उसका कारण था उस चैनल पर आने वाले अंग्रेज़ी गीत। बहुत ज़्यादा अग्रेज़ी गाने तो सुने नहीं थे, जो एक दो गायक को जानते थे अब दिन भर तो उनके गाने नहीं चल सकते थे। तो बस थोड़ा सा कुछ सुनकर बंद कर देता।
जब काम के सिलसिले में दिल्ली आना हुआ तब तक एक दो एफएम चैनल शुरू हो गये थे। लेक़िन उनके कार्यक्रम कुछ ज़्यादा पसंद नहीं आये। शायद उसका कारण रहा वो नया फॉरमेट जिसमें RJ अपना ज्ञान देता औऱ फ़िर गाने सुनाता। ज़्यादातर गाने भी अधूरे ही सुनाये जाते। अब हम विविधभारती के श्रोता ठहरे औऱ उस समय के गाने भी थोड़े लंबे ही हुआ करते थे। लेक़िन रेडियो पर उसमें कांट छांट होती जिससे मज़ा किरकिरा होता।
जहाँ तक फॉर्मेट का प्रश्न है, वो पसंद आने में समय लगा। उसके बाद भी एक या दो कार्यक्रम ही थे जिसका इंतज़ार रहता। कुछ प्रोग्राम जैसे \’लव गुरु\’ जिसमें दो प्रेमी अपनी दर्द भरी दास्ताँ सुनाते औऱ RJ साहब अपनी मुफ़्त की सलाह देते। ऑटो ड्राइवर्स इस प्रोग्राम को बड़ा पसंद करते। मुझे कैसे मालूम? कभी जब देर रात घर लौटना होता तो यही सुनने को मिलता।
मग़र इन सबके बीच मुम्बई आना हुआ औऱ यहाँ रेडियो पर मिले करण सिंह जो उन दिनों \’यादें\’ नाम का एक प्रोग्राम करते थे। मेरा ये भरसक प्रयास रहता की 9 बजे जब उनका प्रोग्राम शुरू होता उसके पहले घर पहुंच जाऊं ताक़ि सुकून से उन्हें सुन सकूं। उनका कार्यक्रम सबसे अलग औऱ चूँकि शेरोशायरी का मुझे भी शौक़ रहा है, तो उनकी शायरी भी पसंद आती। लेक़िन फ़िर मसरूफ़ियत ऐसी हुई कि करण सिंह साहब भी छूट गये। उन्होनें नया चैनल भी जॉइन कर लिया लेक़िन सुनना मुश्किल होता गया। अब सबको वो पसंद भी नहीं आते।
https://youtu.be/QaeVIxEPHZo
ख़ैर। जब ये एफएम चैनल आये तो विविधभारती भी बदल गया औऱ प्रसारण एफएम पर शुरू हुआ। कार्यक्रम वही रहे लेक़िन प्रसारण की क्वालिटी औऱ बेहतर हो गयी। समय के साथ कुछ कार्यक्रमों में बदलाव भी किये गए औऱ प्रसारण समय भी बदले। अब वो चित्रलोक नहीं रहा क्योंकि अब गाने देखने का चलन हो गया है। औऱ इतनी मेहनत कौन करे – जैसे क़यामत से क़यामत तक के रेडियो प्रमोशन के लिये करी गयी थी। अब तो गाने का वीडियो यूट्यूब पर रिलीज़ कर दीजिये औऱ सब वहीं देख लेंगे।
वैसा ही हाल रहा रेडियो पर कमेंटरी का। आपने कभी रेडियो पर कमेंटरी सुनी है? क्रिकेट या किसी औऱ खेल की? आज तो टीवी पर देखने को मिल जाता है या मोबाइल पर सब कुछ मिल ही जाता है। लेक़िन एक समय था जब कमेंटरी रेडियो पर सुनी जाती थी औऱ उसका अपना ही मज़ा था। अब चूँकि मैदान में कौन खिलाड़ी कहाँ खड़ा है ये समझना मुश्किल होता था तो बाकायदा मैदान के जैसा गोल एक बोर्ड आता था जिस पर ग्राउंड की अलग फील्डिंग पोजीशन इंगित रहती थी। तो जब आपने सुना की शॉर्टलेग पर कैच लपका तो ये बोर्ड आपकी मदद करता।
https://youtu.be/P_t3DjtygSU
टीवी आने के बाद कई बार ये भी किया की मैच देखा टीवी पर और कमेंटरी लगाई रेडियो पर। इतनी बेहतरीन कमेंटरी होती थी। या ये कहें की आदत हो गयी थी। अब तो पुराने।खिलाड़ी ही कमेंट्री करने लगे हैं लेक़िन वो खेल की तकनीक को समझते होंगे। कमेंट्री एक अलग तरह का आर्ट है जिसे निभाना सबके बस की बात नहीं है। अभी जो कमेंट्री करते हैं उनमें से कोई भी ऐसा नहीं जिसे याद रखा जाये।
रेडियो से जुड़ी आपकी क्या यादें हैं? नीचे कमेंट कर बतायें।
आज भारत में रेडियो के प्रसारण की वर्षगाँठ पर कुछ बातें रेडियो की
बचपन औऱ उसके आगे के भी कई वर्ष रेडियो सुनते हुये बीते। उस समय मनोरंजन का एकमात्र साधन यही हुआ करता था। फिल्में भी थीं लेक़िन कुछ चुनिंदा फिल्में ही देखी जाती थीं। रेडियो से बहुत सी यादें जुड़ी हुई हैं। आज ये मानने में कुछ मुश्किल ज़रूर हो सकती है लेक़िन एक समय था जब पूरी दिनचर्या रेडियो के इर्दगिर्द घुमा करती थी। चूँकि रेडियो के जो भी कार्यक्रम आते थे उनका एक निश्चित समय होता था तो आपके भी सभी काम उस समय सारिणी से जुड़े रहते थे।
मेरे दादाजी का जो रूटीन था वो इसका एक अच्छा उदाहरण है। उनका रात का खाने का समय एक कार्यक्रम \’हवामहल\’ के साथ जुड़ा था। इस कार्यक्रम में नाटिका सुनाई जाती है औऱ इसके तुरन्त बाद आता है समय समाचारों का। खाना खाते खाते दादाजी नाटिका का आनंद लेते औऱ उसके बाद समाचार सुनते। इस कार्यक्रम के शुरुआत में जो धुन बजती है ये वही है जो मैं दादाजी के समय सुनता था। आज जब सुनो तो एक जुड़ाव सा लगता है इस धुन से।
जब हमारा स्कूल जाने का समय हुआ तो विविध भारती सुबह से सुनते। सुबह 7.30 बजे संगीत सरिता कार्यक्रम आता जिसमें किसी राग पर आधारित फिल्मी गाना औऱ उस राग से जुड़ी बारीकियों के बारे में बताते। इसके बाद 7.45 से आठ बजे तक तीन या चार फ़िल्मी गाने औऱ फ़िर सुबह के समाचार।
कभी स्कूल जाने में देरी होती तो वो भी गाने का नंबर बता कर बताया जाता। मसलन तीसरा गाना चल रहा है मतलब आज तो स्कूल में सज़ा मिलने की संभावना ज़्यादा है। ख़ैर विविध भारती का ये साथ तब तक रहा जब तक स्कूल सुबह का रहा। जब दोपहर की शिफ़्ट शुरू हुई तो विविध भारती सुनने का समय भी बदल गया। अग़र मुझे ठीक ठीक याद है तो सुबह दस बजे सभा समाप्त औऱ बारह बजे फ़िर से शुरू। लेक़िन तबतक अपना स्कूल शुरू हो चुका रहता। स्कूल बदला तो औऱ सुबह जाना पड़ता तो सुबह का रेडियो छूट सा ही गया था।
सुबह का जो एक और कार्यक्रम याद में रहा वो था मुकेश जी की आवाज़ में रामचरित मानस। इसका प्रसारण सुबह 6.10 पर होता था तो अक़्सर छूट ही जाता था लेक़िन जब कभी सुबह जल्दी होती तो ज़रूर सुनते। जैसे ही वो मंगल भवन बोलते लगता बस सुनते रहो।
https://youtu.be/ndamULt4n6c
दोपहर को ज़्यादा सुनने को नहीं मिलता। कभी छुट्टी के दिन ऐसा मौक़ा मिलता तो दो कार्यक्रम ही याद आते – भूले बिसरे गीत औऱ लोकसंगीत। दूसरा कार्यक्रम लोक गीतों का रहता जिसे दादी बड़े चाव से सुनती। जो अच्छी बात थी उस समय रेडियो के बारे में वो थी सभी के लिये कुछ न कुछ कार्यक्रम रहता।
शाम को विविध भारती की सभा शुरू होने से पहले भोपाल के स्थानीय प्रसारण सुनते। एक जानकारी से भरा कार्यक्रम आता \’युववाणी\’। हमारे घर से लगे दूसरे ब्लॉक में सचिन भागवत दादा रहते थे औऱ वो उस कार्यक्रम का संचालन करते तो इस तरह से इसको सुनने का सिलसिला शुरू हुआ। एक बार तो उन्होंने अपने कार्यक्रम में मुझे भी बुला लिया। ये याद नहीं क्या ज्ञान दिया था मैंने लेक़िन उसके बाद कभी मौका नहीं मिला रेडियो स्टेशन जाने का। पिताजी प्रदेश के समाचार जानने के लिये कभी कभार शाम को प्रादेशिक समाचार भी सुनते।
शाम को विविध भारती सुनने का नियम भी हुआ करता था। शाम सात बजे के समाचार औऱ उसके बाद आता फ़ौजी भाइयों के लिये कार्यक्रम \’जयमाला\’। इसमें हमारे फ़ौजी अपनी फ़रमाइश भेजते जिसको हम लोगों को सुनाया जाता। अपने घर से दूर फौजियों का एक तरह से संदेश अपने परिवार के लिये औऱ पूरा परिवार भी रेडियो के आसपास इकट्ठा होकर साथ में गाना भी सुनते। हफ़्ते का एक दिन किसी एक फ़िल्मी हस्ती के नाम रहता जहाँ वो अपनी पसंद के गाने सुनाते औऱ अपने अनुभव भी बताते।
हमारे घर में दो बड़े पुराने रेडियो थे जो शुरू होने में अपना समय लगाते। एक ट्रांज़िस्टर भी था जिसको लेकर हम बाहर जो खुली जगह थी वहाँ बैठ जाते औऱ गाने सुनते। मुझे याद है ऐसे ही रेडियो सिलोन पर अमीन सायानी साहब का बिनाका गीतमाला सुनना। बाद में ये प्रोग्राम विविध भारती पर भी आया लेक़िन रेडियो सिलोन पर ऊपर नीची होती आवाज़ को सुनने का मज़ा ही कुछ औऱ था। ज़्यादा मज़ा तब आता जब वो गाने की पायदान के बारे में कुछ बताना शुरू करते औऱ आवाज़ गायब औऱ जब तक वापस आते तब तक गाना शुरू। अब उस समय रिपीट तो नहीं होता था तो बस अगले हफ़्ते तक इंतज़ार करिये।
जब समसामयिक विषयों पर औऱ अधिक जानकारी की ज़रूरत पड़ी तो बीबीसी सुनना शुरू किया। बीबीसी लंदन पर हिंदी सेवा की पहले तीन शो हुआ करते थे औऱ बाद में एक औऱ जोड़ दिया गया था। कई बार जो सुनते उसको नोट भी करते। औऱ क्या कमाल के कार्यक्रम होते। आज भले ही टेक्नोलॉजी बहुत अच्छी हो गई है लेक़िन उस समय के कार्यक्रम एक से बढ़कर एक।
टीवी का आगमन तो 1984 में हो गया था लेक़िन उसका चस्का लगने में बहुत वक़्त लगा। इसके पीछे दो कारण थे। एक तो बहुत ही सीमित प्रसारण का समय औऱ दूसरा रेडियो तब भी एक सशक्त माध्यम हुआ करता था।
आज भी गाना सुनने में जो आनंद है वो गाना देखने में नहीं। कोई भी रेडियो कार्यक्रम सुन लीजिये, ये आपकी कल्पना को पंख लगा देता। कोई गाना सिर्फ़ सुना हो तो आप कल्पना करते हैं की उसे किस तरह फ़िल्माया गया होगा। लेक़िन जहाँ आपने उस गाने को देखा तो आपकी पूरी कल्पना पर पानी फ़िर जाता है। दूसरा सबसे बड़ा फ़ायदा है रेडियो का वो है आप को कहीं बैठकर उसको सुनना नहीं होता। आप अपना काम भी करते रहिये औऱ बैकग्राउंड में रेडियो चल रहा है। जैसे फ़िल्म अभिमान के गाने \’मीत न मिला रे मन का\’ में एक महिला गाना सुनते हुये अपने होठों पर लिपिस्टिक लगाती रहती हैं। आप यही काम टीवी देखते हुये करके दिखाइये। फ़िल्म चालबाज़ में रोहिणी हट्टनगड़ी जैसा मेकअप हो जायेगा।
जैसे मुझे अभी भी फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक का रेडियो प्रोमो याद है जिसमें जूही चावला का एक डायलॉग था औऱ अमीन सायानी साहब की आवाज़ में फ़िल्म के बारे में कुछ और जानकारी। उसके बाद फ़िल्म का गाना। क्या दिन थे…
रेडियो से जुड़ी एक मज़ेदार घटना भी है। कार्यक्रम के बीच में परिवार नियोजन के विज्ञापन भी आते। एक दिन सभी परिवारजन साथ में बैठे हुये थे औऱ एक ऐसा ही विज्ञापन आ गया। मेरी बुआ के बेटे जो उन दिनों वहीं रहकर परीक्षा की तैयारी कर रहे थे औऱ ये विज्ञापन पहले कई बार सुन ही चुके होंगे, अचानक विज्ञापन के साथ साथ उसकी स्क्रिप्ट बोलने लगे। उस समय परिवार नियोजन तो समझ नहीं आता था लेक़िन ये समझ गये कुछ गड़बड़ बोल गये क्योंकि उसके फ़ौरन बाद वो कमरा छोड़ कर भाग गये थे।
When rising covid cases in India was hogging all the news space, I had no clue I too would be part of the data. When it happened I had no clue what was in store for me. But after spending 17-days in the hospital, including a week in the ICU, a lot has changed. These are my life lessons.
Share: Your society WhatsApp group, yes the same where people get into lot of useless debates, will be most beneficial. Post your queries and someone will help you. I was in a very difficult situation after 3 family members tested positive as PMC smarties had sealed society. It was another covid +ive who came to my rescue and took me to hospital. Remember बात करने से बात बनती है। So pick up the phone and talk. The disease is such even when people want to help, they cannot. But they have connection oops network. So share with your friends as well.
Lessons: It just might be your lucky day. Mine certainly was (only difference it was night ). Got oxygen bed in a hospital close by. I was hopeful I would be out in couple of days but that was not to be. Learnt many lessons inside the hospital and here they come.
Stay positive: Whatever happens around you, stay focused on your recovery. Follow every single word your doctor says. They know the best. Whatever gyan you may have acquired from whatsapp univ or any such place, just delete it.
Fringe benefit: I had no visitors during my entire stay but I benefited hugely from visitors my ICU bed neighbor had. His two sons would share such positive messages with their father on life support that it rubbed on me. Would I be typing this in their absence? YES. Because I was good kid there. Followed all the instructions to T. Which reminds me of the tea served. It was awesome. Next is food. Day 1 in a shared ward, I did not polish off the dinner served. The senior citizen next to me said very simply – eat properly or you will become weak and recovery will take time.
Eat right: After that, not one meal was seen as what is this. Whatever was served was enjoyed and sometimes asked for a second helping as well (mostly daal). Huge credit to my lovely dear Maa. She made us eat whatever was served. That habit helped me get strength. In addition to hospital food, I had very few other things to eat (except some dryfruits by my amazing family friend ). I also had amazing hospital staff who fed me while I was in the ICU. As a vegetarian every morning I would say no to eggs. One attendant saw this. While feeding dinner, she said eat eggs till you are here and once out take a dip in any of the river and भगवान से माफ़ी माँग लेना। With support like this yeh dil nahin maange kuch aur.
Stay positive: The family friend would visit hospital to get update on my condition.The hospital staff started identifying him as my relative. Isn\’t it amazing. It happens only in India. Half the battle is won by staying positive and other half by eating right and following instructions and just listening to right things like pep talks to my neighbor. So were there no dark nights or bad days?
Blinkers: Well there were plenty, specially in ICU, but put on your blinkers and focus on your recovery. That\’s all that matters. Since I also had mobile with me, the family decided to censor all the unfortunate news on family whatsapp groups. I also stopped checking Twitter after situation became very bad outside. Fortunately I had couple of books downloaded but in Kindle cold storage. So brought them to life and read them. Huge thank you to Manish Misra for the recommendation. Better late than never.
Friends indeed: I am forever indebted to Suvasit Sinha who coordinated with a week-old first time father Naeem Shaikh to get my medicines. I cannot describe emotions when I saw Naeem from my bed. He was first and last familiar face I will see for next fortnight. Family n friends came together.
Go back to roots: Pranayam is best. Do the basics regularly. YouTube is flooded. Pick who you like and practice. Same for meditation. Couple of days off oxygen support I was to take a 6 min walk test (hope all know about it now). My levels dropped and so did my hopes of early discharge from hospital.But I started taking 5 min walk 3-4 times a day and it helped when I finally cleared the test and allowed to go home. Start small. 15 mins of pranayam and meditation. Plus some walk. Do what works but Just Do It (No Nike money).
One day: Take one day at a time. Don\’t worry about when will you go home. As the son told my ICU neighbor, you are here for treatment not to stay here. So just focus on getting better.
Thank you all the amazing doctors, sisters, brothers, support staff, cook who fed us nutritious meals every single day. We as a society may never be able to repay what you have done to save so many lives in various parts of the country. Gratitude forever.
गायक अभिजीत भट्टाचार्य ने शाहरुख़ ख़ान के लिये फ़िल्म फ़िर भी दिल है हिंदुस्तानी में एक गाना गाया था I am the best और लगता है अपने ही गाये हुये इस गाने से बहुत प्रभावित हैं। वैसे अभिजीत का विवादों से पुराना रिश्ता है। अपने बड़बोलेपन के चलते वो कई बार मुश्किलों में पड़ चुके हैं। हाल ही में उन्होंने अक्षय कुमार को गरीबों का मिथुन चक्रवर्ती बताते हुये उनकी सफलता के श्रेय अपने गाये हुये फ़िल्म खिलाड़ी के गानों का दिया।
अभिजीत के अनुसार फ़िल्म खिलाड़ी में उनके गाये हुये गीत \’वादा रहा सनम\’ बाद अक्षय कुमार की किस्मत बदल गई औऱ वो गरीबों के मिथुन चक्रवर्ती से एक कामयाब नायक की श्रेणी में आ गये थे। अब्बास-मस्तान के निर्देशन में बनी फ़िल्म चली तो बहुत थी औऱ उसका संगीत भी काफ़ी हिट रहा था। लेक़िन क्या इसका श्रेय सिर्फ़ अभिजीत को मिलना चाहिये ये एक बहस का मुद्दा ज़रूर हो सकता है।
वैसे इससे पहले अभिजीत ने अपने आपको शाहरुख़ ख़ान की आवाज़ बताते हुये ये कहा था की उनकी आवाज़ में ही किंग खान ने सबसे ज़्यादा हिट गाने दिये हैं। वैसे एक सरसरी निगाह डालें तो शाहरुख़ के लिये ज़्यादा गाने तो नहीं गाये हैं अभिजीत ने। उदित नारायण औऱ कुमार शानू ने कहीं ज़्यादा गाने गाये हैं शाहरुख़ के लिये। इस पर भी बहस हो सकती है जो ज़्यादा लंबी नहीं खिंचेगी। लेक़िन अभिजीत हैं तो मामला कुछ भी हो सकता है।
वैसे कुसूर उनका भी नहीं है। बरसों पहले सलमान ख़ान की फ़िल्म बाग़ी के हिट गाने देने के बाद भी वो सलमान की आवाज़ नहीं बन पाये औऱ ये सौभाग्य मिला एस पी बालासुब्रमण्यम जी को। इसके बाद शाहरुख़ ख़ान के लिये भी हिट गाने देने के बाद भी उदित नारायण औऱ कुमार सानू ने ही उनके अधिकतर गीत गाये।
आज ये अभिजीत मेरे निशाने पर क्यूँ हैं? यही सोच रहे होंगे आप। दरअसल आज दिन में देवानंद जी की फ़िल्म सीआईडी (1961) के गाने सुन रहा था तो अभिजीत का ख़्याल आया।
आमिर खान-करिश्मा कपूर की फ़िल्म \’राजा हिंदुस्तानी\’ बड़ी हिट फिल्म थी औऱ बहुत से कारणों से ये चर्चा में रही थी। फ़िल्म की सफलता में उसके संगीत का बड़ा योगदान रहा था। नदीम श्रवण के संगीत को आज भी पसंद किया जाता है। फ़िल्म का सबसे हिट गाना \’परदेसी परदेसी\’ रहा जिसको उदित नारायण, अलका याग्निक एवं सपना अवस्थी ने गाया था।
उदित नारायण को इस फ़िल्म के लिये फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था। अभिजीत जिनका फ़िल्म फ़रेब का गाना \’ये तेरी आँखें झुकी झुकी\’ भी फ़िल्मफ़ेअर के लिये नॉमिनेट हुआ था। उदित नारायण का ही एक औऱ सुंदर गाना घर से निकलते ही भी लिस्ट में था। लेक़िन अवार्ड मिला राजा हिंदुस्तानी के गीत को चूँकि वो बड़ा हिट गाना था बनिस्बत घर से निकलते ही के।
अभिजीत इस बात से बहुत आहत हुये थे और उन्होंने बाद में कहा की \”गाने में दो लाइन गाने के लिये उदित नारायण को अवार्ड दे दिया\”। अग़र आपने गाना सुना हो तो निश्चित रूप से उदित नारायण ने दो से ज़्यादा लाइन को अपनी आवाज़ दी थी। ख़ैर।
तो आज पर वापस आते हैं। फ़िल्म सीआईडी के गाने एक से बढ़कर एक हैं। आजकल तो ऐसा बहुत कम होता है की किसी फ़िल्म के सभी गाने शानदार हों, लेक़िन उन दिनों संगीत क़माल का होता था शायद इसीलिये आज उसीकी बदौलत बादशाह औऱ नेहा कक्कड़ जैसे लोगों का कैरियर बन गया है। बहरहाल, फ़िल्म का संगीत ओ पी नय्यर साहब का है औऱ बोल हैं मजरुह सुलतानपुरी साहब के। लेक़िन इस एक गीत के बोल लिखे हैं जानिसार अख्तर साहब ने।
इस गाने की खास बात देवानंद औऱ शकीला तो हैं ही लेक़िन उससे भी ज़्यादा ख़ास है इसका मुखड़ा। जो इस गाने के अंतरे हैं उसमें नायिका नायक से सवाल पूछती है औऱ नायक का बस एक जवाब होता है \’आँखों ही आँखों में इशारा हो गया\’। मोहम्मद रफ़ी साहब के हिस्से में मुखड़े की बस ये दो लाइन ही आईं औऱ गाने के अंत तक आते आते वो भी गीता दत्त के पास चला जाता है। लेक़िन जिस अदा से रफ़ी साहब मुखड़े की दो लाइन गाते हैं औऱ पर्दे पर देवानंद निभाते हैं…
लाइन दो मिलें या पूरा गाना बात तो उसको पूरी ईमानदारी से निभाने की है। अवार्ड मिले या न मिले। औऱ लोगों का क्या, उनका तो काम है कहना। औऱ ये मानने में भी कोई बुराई नहीं है की आप सबसे अच्छे हैं। बात तो तब है जब यही बात बाक़ी लोग भी कहें या माने।
कोरोनकाल औऱ अस्पताल की बातें तो अब ख़त्म हो गयी हैं लेक़िन एक बात साझा करना रह गई।
जब घर से अप्रैल में अस्पताल में भर्ती होने के लिये चले थे तो तैयारी सब थी। मतलब साबुन से लेकर कपड़े धोने का सब सामान साथ में था। अब कोई होटल तो था नहीं की कपड़े धुलने को दे दिये औऱ आराम से बैठ गये। और कुछ पता भी नहीं था की कितने दिन का प्रवास होगा।
लेक़िन पहुँचने के अगले दिन से ऑक्सिजन मास्क लग गया औऱ उसको कभी भी न हटाने की ताक़ीद भी मिल गयी थी। वाशरूम की सवारी वाली बात आपको बता ही चुका हूँ। तो ऐसे हालात में नहाने का या कपडे धोने का सवाल ही नहीं उठता। शुरू में घर से लाये हुये कपड़ों से काम चल गया लेक़िन कुछ दिन बाद कपड़ों की ज़रूरत महसूस हुई। मगर मजबूरी का भी ऐसा आलम था कि क्या कहें। सोसाइटी सील हो चुकी थी औऱ घर पर बाक़ी सब पॉजिटिव। तो सामान आने की कोई संभावना भी नहीं थी।
इसी बीच हमारी भी ICU में एंट्री हो गयी थी और वहाँ एक राहत वाला काम भी हुआ। एक दिन सुबह सुबह स्पंज के लिये जब कोई आया तो साथ कपड़े भी लाया। लेक़िन जिस राहत को मैंने महसूस किया था वो ज़्यादा देर नहीं मिली। जो अस्पताल से कपड़े मिले वो छोटे निकले। पायजामा तो फ़िर भी ठीक ही था (मतलब किसी तरह पहन लिया गया था), वो जो शर्ट दी थी मेरे पेट की बरसों की मेहनत वाली गोलाई पर फ़िट नहीं बैठ रही थी। अस्पताल का स्टॉफ शायद खाते पीते लोगों को ध्यान में रख कर कपडे नहीं बनाते।
तो शर्ट को वापस कर अपनी टीशर्ट से काम चलाया। लेक़िन पायजामा की तकलीफ़ आखिरी दिन तक बनी रही। सुबह सुबह स्टाफ से अपने नाप का पायजामा मांगना एक रूटीन हो गया था। कभी अगर न मिले तो उससे छोटे साइज वाले से काम चलाना पड़ता। उससे जो हालात उत्पन्न होते वो यहाँ बताना मुनासिब नहीं है।
पायजामे के बाद मशक्कत वाला काम होता था उसको बाँधा कैसे जाये। हाँथ में तो कैनुला लगा होता तो ज़्यादा कुछ कर नहीं सकते तो किसी तरह इस काम को धीरे धीरे अंजाम देते। ये समझ से परे है कि इलास्टिक क्यों नहीं लगाते जिससे इन सब परेशानियों से बचा जा सके।
ख़ैर अस्पताल में कोई इतना ध्यान भी नहीं देता है, लेक़िन चूँकि ज़्यादातर महिला स्टाफ होता था तो लगता था कपड़े ठीक हों। शुरुआत के दिनों में जब जनरल वार्ड में था तो एक सरदारजी एवं उनकी पत्नी भी इलाज के लिये भर्ती थे। उस दंपत्ति को लगता हॉस्पिटल से विशेष व्यवस्था के तहत कपड़े उपलब्ध हो रहे थे। दोनों हमेशा एक जैसे कपडे पहनते।
मेरा तो ये सुझाव भी था का की वो फ़्री साइज वाला पजामा रखें जिससे हृष्टपुष्ट लोगों को कोई परेशानी न हो। एक बार तो ये भी लगा की लुंगी जैसा कुछ पहन को दिया जाना चाहिये। मुझे लुंगी औऱ धोती पहनना बड़ा अच्छा लगता लेक़िन उसे संभालना नहीं आता। तो वर्षों पहले सुबह जब सोकर उठे तो ऐसा भी हुआ है की लुंगी कहीं पीछे रह गयी औऱ हम कहीं औऱ। ये दक्षिण भारत की फिल्मों में तो जिस आसानी से किरदार लुंगी पहनकर सब काम (बाइक भी चला लेते हैं), देखकर आश्चर्य ही होता है। वैसे अब संभालना आ गया है लेक़िन बाइक चलाने जैसा नहीं। पता चला बाइक पर बैठे तो सही लेकिन लुंगी हवा से बातें करने लगी और…
अस्पताल में शुरू के चार दिन तो ठीक रहे लेक़िन जब ICU में शिफ़्ट करने के बात हुई तब लगा मामला कुछ गंभीर है। ख़ैर अब औऱ कोई चारा तो था नहीं तो अपनी जो भी हिम्मत बची हुई थी उसको सहेजकर रखा औऱ कोरोना से अपनी लड़ाई का दूसरा औऱ निर्णायक दौर शुरू किया।
अपने आसपास के मरीज़ों को कोरोना से हारते हुये देख तो नहीं रहा था लेक़िन ये पता ज़रूर चल जाता था। बाहर के ख़राब हालात की पूरी तो नहीं थोड़ी थोड़ी जानकारी थी। मोबाइल पास ज़रूर था लेक़िन उसको इस्तेमाल करना एक कष्ट वाला काम था। कभी कभार ऐसे विचार जब आये की क्या कोई ऐसा काम जो करना रह गया? वैसे तो इसकी लिस्ट बहुत लंबी बन सकती है, लेक़िन मेरी लिस्ट में सिर्फ़ एक चीज़ थी उस समय – जीवन में जो कुछ भी मिला उसके लिये धन्यवाद, उन अनगिनत लोगों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना जिन्होंने किसी भी रूप में मदद करी या कुछ सीखा कर गये।
पढ़े-लिखे मूर्ख
जब घर वापस आया तो बाहर मेरे अस्पताल में रहने के दौरान कोरोना से परिवार में क्या घटित हुआ इसके बारे में थोड़ा सा पता चला। उस समय तक स्थिति संभली तो नहीं थी लेक़िन थोड़ी बेहतर हुई थी। लेक़िन तब भी रोज़ ही सुनते किसी जान पहचान वाले ने अपने क़रीबी को खोया है। ये सिलसिला अभी भी चल रहा है लेक़िन ईश्वर की कृपा से अब ऐसी खबरें कभीकभार सुनने को मिल रही हैं।
घर में क़ैद शाम अक़्सर बालकनी से बाहर चल रही दुनिया देखकर गुज़र जाती। लेक़िन बाहर का नज़ारा देखकर दुःख भी होता और गुस्सा भी आती। लोग कोरोना जब बहुत तेज़ी से फैल रहा था तब भी ऐसे घूम रहे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। पति पत्नी, बच्चे, नौजवान सबने जैसे सच्चाई से मुँह मोड़ लिया हो। सबसे ज़्यादा हैरानी औऱ दुःखी होने वाली बात थी कि जो भी इस कार्य में लिप्त थे वो सभी पढ़े लिखे थे। उनको कोरोना के कहर के बारे में भी निश्चित रूप से पता होगा। इसके बाद वो इतने लापरवाह कैसे हो सकते हैं?
चूँकि मैंने कोरोना के कहर को बहुत क़रीब से देखा था औऱ परिवार-जान पहचान वाले कई लोगों की जान कोरोना से गयी थी, तो ख़राब भी लगता। कई लोग ये कहते कोरोना जैसा कुछ नहीं है या बार बार बोलने के बाद भी मास्क नहीं पहनते, तो मन करता उनको कुछ घंटों के लिये ICU वार्ड में छोड़ दिया जाये। मुझे अभी भी समझ में नहीं आया की इतना सब होने के बाद लोग बिना किसी चिंता के बारात निकालकर शादी भी कर रहे औऱ रिश्तेदारों के कोरोना के चलते शादी में शरीक़ नहीं होने पर लड़ाई भी। अग़र पढ़ाई लिखाई के बाद भी लोगों की समझ ऐसी है तो इसका क्या फ़ायदा?
डर के आगे क्या है?
ये बात सही है कि हम डर कर नहीं रह सकते, लेक़िन हम जानबूझकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी भी तो नहीं मार सकते। जब भोपाल गैस काँड हुआ था तब बहुत छोटे थे औऱ जिन इलाकों में मिथाइल आइसोसाइनाइट ने क़हर बरपाया था वहाँ हमारे जान-पहचान वाले नहीं रहते थे। वो तो जब पत्रकारिता शुरू की औऱ उन इलाकों में गये तब पता चला लोगों ने क्या खोया। इस बार सब कुछ देखा भी, समझ भी आया। लेक़िन क्या हमने इससे जो भी सीखा है इसको याद रखेंगे?
तो आज की कोरोनकाल की सीख वाली किश्त के अंतिम भाग में सभी का धन्यवाद। किसी कार्यक्रम में अगर आप गये हों धन्यवाद ज्ञापन सबसे अंतिम काम होता है। आजकल इसको बीच में भी जगह मिल जाती है क्योंकि जिन लोगों के सहयोग से वो कार्यक्रम सम्पन्न हुआ उनके बारे में जानने की किसी को उत्सुकता नहीं रहती औऱ लोग बस बाहर निकलने की जल्दी में रहते हैं। तो मुझे अस्पताल के बिस्तर पर लेटकर यही लगता की \’बाहर\’ निकलने से पहले अग़र एक काम करना है तो जीवन के लिये धन्यवाद, उसमें जो कुछ भी मिला उसके लिये धन्यवाद ज़रूर करना चाहिये। ये एक काम अक़्सर हम टाल ही देते हैं।
ये धन्यवाद उन सभी का जो इसको पढ़ रहे हैं। शायद मैं आपको जानता हूँ, शायद हम कभी मिले हों, शायद कभी बात हुई हो या शायद अब हम सम्पर्क में न हों, शायद इसमें से कुछ भी नहीं। शायद मेरी लेखनी के ज़रिये हम जुड़े हों। आप सभी का आभार। जीवन आपके अनुभव का निचोड़ ही है तो इसमें आपके योगदान के लिये धन्यवाद।
औऱ मेरी प्रिय पम्मी। तुम्हारी लड़ाई को बहुत क़रीब से देखा है औऱ तुम्हारा वही जज़्बा अस्पताल में हिम्मत भी देता रहा। तुम्हारी अनगिनत मीठी यादों के लिये धन्यवाद। ❤️❤️❤️
आज वापस कोरोना से सीख पर क्योंकि कई बार ऐसा होता है की समय निकलते औऱ सीख भूलते देर नहीं लगती। तो इससे पहले की जो सीख हैं वो इस भीड़भाड़ में कहीं खो जायें, उन्हें संभाल कर रख दें। वैसे तो मेरा प्रयास है की ये सीख ताउम्र साथ रहें लेक़िन हूँ तो आख़िर इंसान ही।
क़दम क़दम बढ़ाये जा
तो इस सफ़र में जनरल वार्ड से ICU तक का माजरा आपको बताया है। अब बारी है स्पेशल वार्ड की जहाँ की सीख आपके साथ साझा कर रहा हूँ। बचपन से हमें ये सिखाया जाता है की किसी भी काम में महारत हासिल करनी हो तो उसकी रोज़ाना या नियमित प्रैक्टिस करो (गणित इसका अपवाद रही है मेरे लिये)। फ़िर चाहे वो संगीत हो या खेल या पढ़ाई। औऱ ये सही भी है। जैसे शुरू में जब साईकल चलाना सीखा तो ज़्यादा चलाने पर पैर दर्द होते लेक़िन फ़िर आदत हो गयी। कुछ ऐसा ही हुआ जब मॉर्निंग वॉक शुरू किया आदत तो थी नहीं तो बस दो दिन के बाद जब एक दिन आलस किया तो…!
अस्पताल में कुछ ग्यारह दिनों से ज़मीन पर चलने का काम नहीं किया था। कभी कभार बिस्तर से उठकर खड़े हो जाते जब बेडशीट बदली जाती नहीं तो जहाँ जाना होता वो भी एक ड्रिल होती। मतलब ऑक्सिजन सिलिंडर मंगाया जाता औऱ साथ में व्हीलचेयर भी। बस वही सवारी होती कहीं भी जाने के लिये। लेक़िन उसका भी उपयोग वार्ड बदलते समय या शुरुआती दिनों में वॉशरूम के लिये हुआ। चलना नहीं हुआ।
जब स्पेशल वार्ड में आये तो सबसे पहली ख़ुशी यही थी कि ICU से बाहर निकले लेक़िन आगे की राह कोई आसान नहीं थी। पहले ही दिन वहाँ के जो ब्रदर थे नाईट डयूटी पर उन्होंने बड़े प्यार से बात करी औऱ मेरे हाथ में जो सूजन आ गयी थी उसका ख़ास ध्यान भी रखा। नींद का थोड़ा सा मसला था तो काफ़ी देर तक जागता रहा औऱ उस दौरान ब्रदर औऱ उनके साथ जो नर्स थी, दोनों को सारी रात मरीजों का ख़्याल रखते देखा। वो मेरे वार्ड के सभी छह मरीजों के साथ एक और वार्ड की ज़िम्मेदारी बहुत ही अच्छे से उठा रहे थे।
ICU छोड़ने के एक दिन पहले से खाना अपने हाथ से खाने लगे थे औऱ यही सिलसिला यहाँ भी चला। हाँथ में IV कैनुला लगी हो तो थोड़ी मुश्किल ज़रूर होती लेक़िन कभी दायें से तो कभी बायें हाँथ से खा कर काम हो जाता था। अच्छा वो अस्पताल की कर्मी जिनके बारे में मैंने ज़िक्र किया था वो दो दिन से ICU में भी नहीं दिखीं औऱ नये वार्ड में भी उनका आना नहीं हुआ। लेक़िन उनसे मिलना हुआ।
चलते चलते
तो जिस वजह से मुझे ICU से निकलने का मौक़ा मिला था वो थी हालत में सुधार। अब दो दिनों में सेहत में थोड़ा औऱ सुधार हुआ था तो मुझे रात में अगर वॉशरूम जाना हो तो बिना किसी सहायक के जाने की परमिशन मिल गयी। लेक़िन ब्रदर की सख़्त हिदायत थी कि दरवाज़ा बंद न करूं। और जब वापस बेड पर आऊँ तो ऑक्सिजन लेवल चेक होता की पूरे चहलकदमी के कार्यक्रम से क्या असर पड़ा। चूँकि छोटा सा छह बिस्तर वाला वार्ड था तो इतना चलना भी नहीं होता था।
मेरे बेड से बाहर जो कॉरिडोर था वहाँ दिन में कई मरीज़ चहलकदमी करते दिखते। तीसरे दिन मैंने पूछ ही लिया कि क्या मैं भी वॉक कर सकता हूँ औऱ डयूटी पर जो डॉक्टर थीं उन्होंने कहा ठीक है आपका एक वॉक टेस्ट करते हैं। ये जो 6 minute वॉक टेस्ट आजकल चल रहा है, उस चिड़िया का नाम पहली बार उस दिन सुना था। उन्होंने कहा शाम को करते हैं औऱ मैं तैयार हो गया। अपनी वॉशरूम वाली चहलक़दमी से जो खुशफहमी पाल रखी थी शाम को उसकी ख़ुद मैंने ही धज्जियाँ उड़ा दीं। वॉक टेस्ट हुआ जिसमें मुझे कोई ख़ासी ऊपरी परेशानी नहीं तो हुई लेक़िन जब ऑक्सीजन लेवल नापा गया तो सब गड़बड़। हाँ रेखा की फ़िल्म घर का गाना आजकल पावँ ज़मी पर नहीं पड़ते मेरे ज़रूर याद आया। कमज़ोरी के चलते ये गाना आगे भी कई दिनों तक याद आया जब भी चलना होता।
डॉक्टर ने फ़िर समझाया की आपके फेफड़े (lungs) का काम अभी पूरी तरह ठीक नहीं हुआ है औऱ चलने के बाद आपको साँस लेने में तक़लीफ़ हो सकती है। ऑक्सीजन जो अब दिन में कई बार हटा भी दी जाती थी वो वापस लगा दी गयी। उन्होंने बोला अभी आपको कुछ दिन औऱ रहना पड़ेगा। इसके बाद तो लक्ष्य यही था की इस टेस्ट में अच्छे नम्बरों से पास होना है। बस तो फ़िर मैंने उसी दिन से तीन चार बार 2 मिनिट चलना शुरू किया वार्ड के अंदर ही। अगले दिन समय 4 मिनिट का औऱ उसके बाद 5 मिनिट। इसके साथ मैंने बिस्तर पर बैठे बैठे थोड़ा थोड़ा प्राणायाम भी शुरू किया।
ऊपर जो नियमित प्रैक्टिस वाली बात को समझने के लिये थोड़ा पीछे चलते हैं। आपको मैंने हमारे पास जो काली कार थी उसके बारे में बताया था। अगर आपने नहीं पढ़ा है तो आप उसे यहाँ पढ़ सकते हैं (काली कार की रंगीन यादें) औऱ रोड पर उसकी शान की सवारी आप यहाँ देख सकते हैं। तो ऑस्टिन नियमित चलती नहीं थी लेक़िन पापा हर थोड़े दिन में कार को गैराज से निकालकर उसे सामने जो जगह थी वहाँ खड़ी कर देते औऱ रात में कार को वापस गैराज में। चूँकि बैटरी डाउन रहती तो कार को धक्का लगाकर ये काम करना होता। पापा से पूछा कि इतनी मशक्कत क्यूँ तो उन्होंने इसका कारण बताया। अस्पताल से लौटने के बाद बालकनी में चाय का आनंद लेते हुये बहुत सी नई चीजों पर गौर करना शुरू किया। जैसे सामने वाली बिल्डिंग में एक शख्स अपनी गाड़ी को रोज़ शाम कवर्ड पार्किंग से निकालकर ओपन पार्किंग में खड़ी करते औऱ उसकी सफ़ाई करते। ये उनका रोज़ का रूटीन है। उनको ऐसा करता देख कर पिताजी का जवाब याद आ गया औऱ उसमे छिपी सीख भी जो कार और हमारे शरीर दोनों के लिये मान्य है। उन्होंने कहा था एक जगह खड़े रहने से कार के टायर खराब होते हैं औऱ उनकी हवा भी निकल जाती है। साथ ही गाड़ी को थोड़ा ही चलाने से भी टायर की पोजीशन बदल जाती है। यही तो हमें शरीर के साथ भी करना है क्योंकि कहा भी तो गया है शरीर भी एक मशीन है औऱ नहीं चलने से जैसे मशीन ख़राब होती है वैसे ही शरीर भी।
लेक़िन तीन दिन की प्रैक्टिस रंग लाई औऱ डिसचार्ज के पहले जो वॉक टेस्ट हुआ उसको ठीक ठाक नंबरों से पास कर लिया। घर आने के बाद से अब प्रणायाम को अपनी दिनचर्या का एक हिस्सा बना लिया है। कई लोगों ने कहा भी की इन साधारण से साँस लेने- छोड़ने की तकनीक से न सिर्फ़ फेफड़े बल्कि पूरे शरीर को फ़ायदा होता है। अपने 17 दिनों के प्रवास से वो समझ में आया जो इतने लंबे समय से समझ नहीं आया था। और वो कर्मी जिन्होंने मुझे खाना खिलाया था वो भी मुझे मिल गयीं जब मैं अस्पताल छोड़ कर निकल रहा था।
मेरे इस पूरे अनुभव से न सिर्फ़ डॉक्टर बल्कि इससे जुड़े अन्य कर्मियों के प्रति आदर औऱ सम्मान कई कई गुना बढ़ गया है। विशेषकर जिन परिस्थितियों में औऱ जितने सीमित साधनों में वो इस कठिन समय में मरीजों का ध्यान रख रहे थे वो काबिलेतारीफ है। औऱ बहुत कम मुझे सीनियर डॉक्टर्स या कर्मी मिले। सब नौजवान लेक़िन क़माल का जज़्बा। धन्यवाद शब्द बहुत छोटा लगता है उनके लिये औऱ शायद जो इस समय उनलोगों ने हम सभी के लिये किया है वो हम कभी भुला भी नहीं पायेंगे। उन सभी के इस सेवाभाव के लिये हमेशा कृतज्ञ रहूँगा।
सीख: आप अपने शरीर को किसी न किसी रूप में कष्ट देते रहें। हमारे बहुत से मेन्टल ब्लॉक होते हैं जिनके चलते हमें लगता है की हम इतना ही कर सकते हैं। जैसे जब कॉलेज जाना शुरू किया तो साईकल ही सवारी थी औऱ कॉलेज आना-जाना 20 किलोमीटर होता लेक़िन दो साल तक ये सफ़र किया रोज़ाना (लगभग)। उसी तरह अपने शरीर को भी आदत डलवाएं। प्राणायाम या जो आपको अच्छा लगे वो व्यायाम करें लेक़िन करें ज़रूर। प्राणायाम हमें विरासत में मिला वो तोहफ़ा है जिसकी क़दर हमने देर से की। इसको करने के कई फ़ायदे हैं जैसे जगह का कोई मसला नहीं औऱ मौसम का कोई बहाना नहीं। औऱ अब तो ये योगा बनकर विश्व में छाया हुआ है। तो किसी भी रूप में व्यायाम को अपने जीवन का हिस्सा बनायें। आपका शरीर आपको धन्यवाद कहेगा।
हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती। कोरोना की कहानियों की श्रृंखला के बीच ये सोना कहाँ से आया? वैसे तो सोना हम भारतीयों का प्रिय है लेक़िन उस विषय पर मेरा ज्ञान बहुत ही सीमित है। तो कहानी आगे बढ़ाते हैं।
अस्पताल से लौटने के बाद टीवी देखना बहुत कम हो गया है। समाचार देखना तो समय की बर्बादी लगता है तो बस कभी कभार हल्के फुल्के कार्यक्रम देख लेते हैं। मनोज बाजपेयी की द फैमिली मैन का दूसरा सीजन बहुत समय से अटकते हुये 4 जून को आ गया। पहला सीजन देखा था तो थोड़ी उत्सुकता थी इस बार क्या होगा। ट्रेलर देखकर लगा की इसको अपना समय दिया जा सकता है। तो बस इस हफ़्ते के कुछ घंटे उसको दे दिये। ये उसी का लेखा जोखा है। सोने वाली बात की गुत्थी आगे सुलझेगी।
किसी भी फ़िल्म, किताब या इन दिनों की वेब सीरीज़ की जान होती है उसकी स्क्रिप्ट। अच्छी स्क्रिप्ट हो औऱ ठीक ठाक कलाकार भी हों तो ये आपको बांधे रख सकते हैं। इस सीरीज़ में तो मनोज बाजपेयी जैसे कई मंझे हुए कलाकार हैं। इस बार दक्षिण से सामंथा अकिनेनी इससे जुड़ीं हैं। वैसे तो प्रयास यही है की बहुत ज़्यादा न बताया जाये लेक़िन अगर आपने अपने सप्ताहांत का सदुपयोग (?) नहीं किया है तो आप मेरी कोई पुरानी ब्लॉग पोस्ट पढ़ सकते हैं।
कहानी
अगर आपने पहला सीज़न देखा है तो आपको पता है मनोज बाजपेयी एक सीक्रेट सर्विस (टास्क) एजेंट हैं। इस बार शुरुआत में वो एक IT कंपनी में काम करते हुऐ दिखाई गये हैं। आपको ये तो पता है की देर सबेर वो वापस अपनी एजेंसी में जायेंगे तो ऐसा हो ही जाता है नहीं तो कहानी कहाँ से आगे बढ़ती? लेक़िन उनका और उनकी पत्नी का संबंध कुछ ठीक नहीं चल रहा है। चूँकि फैमिली मैन है तो परिवार वाला ट्रैक साथ में चलता रहता है औऱ इस बार मनोज बाजपेयी की बेटी का थोड़ा ज़्यादा काम है।
श्रीलंकाई तमिल आतंकवादियों का एक समूह भारतीय औऱ लंका के नेताओं पर हमले की फ़िराक में हैं। कैसे बाजपेयी औऱ उनकी टीम इसको नाकाम करते हैं यही कहानी है। पिछली बार जैसे मिशन कश्मीर में था इस बार दक्षिण भारत में कहानी सेट है। इसके अलावा इसके कुछ क़िरदार लंदन में भी हैं। कुल मिलाकर सीरीज़ बड़ी स्केल पर बनाई गई है।
अभिनय
मनोज बाजपेयी के साथ प्रियामनी, सामंथा अकिनेनी, सीमा बिस्वास, शारिब हाशमी मुख्य भूमिका में हैं। कलाकारों की लिस्ट लंबी है इसलिये कुछ का ही ज़िक्र कर रहे हैं। पहले सीज़न वाले कलाकार अपने क़िरदार में हैं औऱ उसी को आगे बढ़ाते हैं। सामंथा का किरदार बोलता कम है औऱ काम ज़्यादा करता है औऱ उन्होंने जो उन्हें काम दिया गया वो बख़ूबी निभाया है।
निर्देशक
निर्देशक राज और डीके कहानी को हल्की फुल्की रखने के चक्कर में बहुत सारी चीजों को नज़रअंदाज़ करते लगते हैं। औऱ जब लगता है कहानी यहाँ पर ख़त्म होगी तो उसको खींचते से लगते हैं क्योंकि उनको उसको एक बड़े स्केल पर दिखाना है। सीरीज़ का कैमरावर्क अच्छा है लेक़िन क्या सिर्फ़ बढ़िया कैमरे का काम आपको चार घंटे तक बाँधे रख सकता है?
क्यूँ देखें / न देखें
लगभग साढ़े चार घंटे की सीरीज़ है तो अगर आप समय का सदुपयोग करना चाहते हैं तो सोच समझ कर पहल करें। अगर आप देखना चाहते हैं तो ये एक टाइमपास सीरीज़ है जैसी ज़्यादातर सीरीज़ होती हैं। बहुत कुछ पहले सीज़न के जैसा है – गलियों में अपराधी के पीछे भागना। मतलब इसको तो हमारे निर्देशकों ने अब इतना भुना लिया है की अब इसमें कुछ नयापन नहीं दिखता। हाँ आजकल इसकी लंबाई ज़रूर चर्चा का विषय रहता है। लेक़िन अब इसमें वो मज़ा नहीं रहा। बहुत सी वर्तमान स्थिति पर लेखक टिप्पणी ज़रूर करते हैं लेक़िन चूँकि वो सीरीज़ का फ़ोकस नहीं है तो बस बात आई गयी हो जाती है।
एक सीक्वेंस है जिसको देख कर हँसी भी आती औऱ स्क्रिप्ट और डायरेक्टर की सोच पर आश्चर्य कम तरस ज़्यादा होता है। देश के शीर्ष नेता पर हवाई हमले की बात हो रही हो औऱ हमारी हवाई क्षमता का कोई ज़िक्र भी नहीं। औऱ तो औऱ शीर्ष नेताओं की सुरक्षा में लगी एजेंसी या हमारी सेनाओं से भी कोई तालमेल नहीं दिखाया गया है जो बहुत ही हास्यास्पद है। शायद इसलिये की बाजपेयी जी एक एजेंट हैं, एक फाइटर पायलट नहीं। इसलिये उनकी बंदूक के निशाने से ही…
इस सीरीज़ का अगला सीज़न भी बनेगा ऐसा आख़िरी एपिसोड में बता दिया गया है। इस बार निर्देशक ने कहानी अरुणाचल प्रदेश वाले इलाके में सेट करी है तो तैयार हो जाइये वहाँ की खूबसूरती देखने के लिये। औऱ अगर आपको कोई अच्छी सीरीज़ देखने का मन है तो मेरे दो ही सुझाव हैं : दिल्ली क्राइम औऱ स्पेशल ऑप्स। दोनों की स्क्रिप्ट औऱ उसका ट्रीटमेंट क़माल का है। वैसे इस सीरीज़ के लेखकों को गुल्लक भी एक बार देख लेना चाहिये। शायद तीसरे सीज़न में कुछ बात बन जाये।
रही सोने वाली बात – तो ट्रेलर से अपनी उम्मीदें न बांधें औऱ न ये समझें की मनोज बाजपेयी हैं तो बढ़िया होगी। क्योंकि हर चमकती चीज़…
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अस्पताल का सफ़र जब शुरू हुआ तब लगा था कुछ ही दिनों में घर वापस। जिन सज्जन ने खाने की सीख दी थी, जब उन्होंने बताया की अगले दो दिन में उन्हें छुट्टी मिल जायेगी तो लगा मुझे भी जल्द ही घर जाने का मौक़ा मिलेगा। लेक़िन ऐसा कुछ नहीं होने वाला था।
अगले दो दिनों में मुझे ICU में शिफ़्ट किया गया। इसकी जानकारी मुझे घर पर मेरे विश्वस्त सूत्र (श्रीमतीजी) ने पहले दे दी थी। हुआ कुछ ऐसा था की जब नईम दवाई के सिलसिले में अस्पताल आये थे, तब डॉक्टर ने उन्हें मुझे ICU में शिफ़्ट करने की बात करी थी औऱ श्रीमतीजी को भी इस बारे में बताने को कहा था। श्रीमतीजी ICU सुनकर घबड़ा भी गयीं थीं औऱ उन्होंने फ़ौरन मुझे फ़ोन कर ताज़ा जानकारी माँगी। चूँकि मुझे कुछ भी मालूम नहीं था इस बारे में सो मैंने बता दिया। लेक़िन जब फ़ोन रखा तो अस्पताल के कर्मी तैयार थे मुझे ICU में शिफ़्ट करने को।
ICU के बारे में कुछ मैं पहले भी बता चुका हूँ। जिस समय मैं भर्ती हुआ था उस समय कोरोना का कहर अपनी चरम सीमा पर था। फ़ोन बहुत ज़्यादा देखने को नहीं मिलता या देखना बंद कर दिया था। पारिवारिक जो व्हाट्सएप्प ग्रुप थे वहाँ ज़्यादा कुछ हलचल नहीं थी। वो तो बाहर आकर पता लगा की सभी को वहाँ कोई भी ऐसी ख़बर नहीं शेयर करने को कहा गया था जिसको पढ़कर मुझे आघात लगे। सही कहूँ तो आसपास भी इतना कुछ चल रहा था की मन ख़राब तो था लेक़िन इलाज और कमज़ोरी के चलते बहुत सी बातें जानने के बाद भी कुछ समय लगता उसका असर होने में।
ICU में रहते समय खाने में काफ़ी परेशानी हुई। चूँकि पूरे समय मास्क लगा रहता तो वहाँ पर तैनात डॉक्टर ने स्टॉफ से कहा कि मुझे नाश्ता खाना खिलाने की ज़िम्मेदारी उनकी। उस समय जो भी सामने होता उसको बुलाकर ये काम हो जाता। दो दिन के बाद जब रात को खाना मिला तो कोई था नहीं। एक अस्पताल की कर्मी जिन्हें मैं अपने दाखिले के पहले दिन से देख रहा था वो सामने आ गईं औऱ पूछने लगीं खाना खिलाना है? अगले तीन दिनों तक उन्होंने ही खाना खिलाया और समझाया भी की मुझे अंडा जो नाश्ते में मिलता है, वो खाना चाहिए। जब मैंने बताया मैं वेजेटेरियन हूँ तो उन्होंने बड़ी ही मासूमियत से कहा, \”अभी खा लो। बाहर जाकर किसी भी नदी में स्नान कर अपने भगवान से माफ़ी माँग लेना\”। हालाँकि मेरा नहीं खाने के निर्णय का धार्मिक नहीं है।
अंडा तो मैंने नहीं खाया लेक़िन उनकी सीख याद रखी कि खाना ठीक से खाना। उसके बाद वो दिखी नहीं औऱ अच्छी बात ये हुई की मेरी हालत में सुधार के चलते औऱ एक गंभीर मरीज़ को बेड की ज़रूरत के कारण ICU से दूसरे वार्ड में शिफ़्ट कर दिया।
यहाँ एक वाक्या साझा करना चाहता हूँ। इस बात को लगभग चौदह वर्ष हो गए हैं। मैं रेल से ओडिशा जा रहा था औऱ ट्रैन बीना से पकड़नी थी। भोपाल से बीना पहुँचकर अगली लंबी यात्रा का इंतजार कर रहे थे। लंबे सफ़र के चलते एसी में रिज़र्वेशन करवाया था। लेक़िन जब अपनी सीट पर पहुँचे तो वहाँ कोई औऱ ही विराजमान था और उनके पास बाकायदा टिकट भी था। एक बार तारीख़ वाली ग़लती के कारण पेपर बिछा कर सोना पड़ा था लेक़िन उस वक्त अकेले थे तो कोई परेशानी नहीं थी और था भी रात का सफ़र। इस बार परिवार भी साथ था औऱ सफ़र भी लंबा। लेक़िन अचानक प्रकट हुये टीसी ने कहा आप बगल वाले कोच में जाइये। आपका टिकट अपग्रेड हुआ है। वो पहली औऱ शायद अंतिम बार था जब भारतीय रेल मेहरबान हुई थी। यात्रा औऱ आराम से कटी।
इस घटना का ज़िक्र इसलिये की हमेशा अपग्रेड का अरमान होता है लेक़िन उस रात जब डॉ अश्विनी ने कहा की मुझे डाउनग्रेडेड स्पेशल वार्ड में शिफ़्ट कर रहे हैं तो इस डाउन ग्रेड को सबसे बड़ा अपग्रेड मानकर खुशी ख़ुशी मंज़ूर किया। अब इंतज़ार था कब घर जाने को मिलता। लेक़िन अभी भी समय था। कुछ औऱ बहुत ही प्रतिभावान हॉस्पिटल कर्मियों से मिलना बाक़ी था। कुछ अपने बारे में भी जानना बाक़ी था।
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बीमारी कोई भी हो वो आपको शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूप से प्रभावित करती है। कई बार इसका असर जल्दी चला जाता है तो कभी कुछ ज़्यादा दिनों तक रह जाता है। कई लोगों को कोरोना बस छू कर निकल गया और कई लंबे समय तक इससे परेशान रहे। आगे बढ़ने से पहले थोड़ा सा पीछे चलते हैं।
पापा जी मोबाइल का इस्तेमाल तो करते हैं लेक़िन बहुत ही सीमित रूप में। जैसे फ़ोन में नंबर ढूँढना एक मुश्किल काम है। आज भी उनके पास फ़ोन नंबर की लिस्ट की एक फ़ाइल है जिसमें सभी जरूरी नंबर हैं। किसी को फ़ोन लगाना होता है तो इस फ़ाइल की मदद ली जाती है। अब कोरोना के अपने अनुभव की शृंखला में यहाँ ये फ़ोन की लिस्ट कैसे आ गयी?
यहाँ मैं इसका ज़िक्र इसलिये कर रहा हूँ कि जब मैं अस्पताल में एडमिट हो गया तो मेरा फोन और उसमें के नंबर सब मेरे पास रह गये। वैसे तो श्रीमतीजी के पास सभी करीबी रिश्तेदारों के नंबर थे, लेक़िन मेरे दो बहुत ही क़रीबी सहयोगी जिनको वो जानती हैं और मुलाक़ात भी है औऱ जिन्होंने मेरे इलाज में एक बहुत बड़ी भूमिका निभायी, उनके नंबर नहीं थे।
ये नंबर न होना इसका एक पहलू था। दूसरा और परेशान करने वाला पहलू जिसका ज़िक्र मैंने पहली किश्त में किया था वो था बढ़ते कोविड केस के चलते हमारी सोसाइटी का सील होना। इसका मतलब आना जाना बंद। जो कोई ज़रूरी सेवाओं से जुड़े थे वही आ जा सकते थे। हमारे घर में दो पॉजिटिव केस थे तो घर भी सील तो नहीं लेक़िन आने जाने पर रोक। मतलब कुल मिलाकर अच्छी परीक्षा ली जा रही थी और जैसा मैंने बताया तैयारी बिल्कुल नहीं थी। आप कह सकते हैं कोरोना वायरस ने सिलेबस के बाहर का सवाल पूछ लिया था। एक तो मेरे पढ़ाई से वैसे ही ज़्यादा अच्छे संबंध नहीं रहे औऱ इस बार तो कुछ बहुत ही अजब गजब हो रहा था।
ख़ैर थोड़ी देर के बाद ही सही नम्बरों का आदान प्रदान हुआ औऱ मेरे इलाज का सिलसिला आगे बढ़ा। मैं जितने भी दिन अस्पताल में रहा मुझसे मिलने कोई नहीं आया। घर में सभी कोविड से ग्रस्त तो किसी के भी आने का प्रश्न ही नहीं उठता। अस्पताल में एक कर्मी ने हारकर एक दिन पूछ ही लिया घर से कोई मिलने नहीं आता आपके?
जो एकमात्र पहचान वाली शक्ल दिखी थी वो थी नईम शेख़ की। नईम अस्पताल में भर्ती होने के चार दिन बाद मेरी दवाई के सिलसिले में आये थे। नईम जो कुछ दस दिन पहले ही पिता बने थे, दौड़भाग कर दवाई का इंतज़ाम कर रहे थे। इस दवाई के इंतज़ाम में परिवार के बाक़ी सदस्य औऱ पुराने पारिवारिक मित्र भी लगे हुये थे लेक़िन मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं थी औऱ मेरा ICU का सफ़र शुरू हो रहा था।
जब अस्पताल से छुट्टी मिली तो मैंने एक टेलीफ़ोन नंबरों की लिस्ट बनानी शुरू करी। फ़िलहाल ये काम चल रहा है। लिखने में मेहनत भी लगती है औऱ कुछ याद भी रह जाता है। फ़ोन में नंबर हो और आप शेयर कर सकें तो इससे अच्छी कोई बात नहीं। लेक़िन जब नंबर ही न हो तो?
लेक़िन ये जानकारी साझा करने का काम सिर्फ़ टेलीफोन लिस्ट तक सीमित न रखें। अगर आपके बच्चे बड़े होगये हैं तो उनके साथ अपने बैंक एकाउंट से संबंधित जानकारी भी साझा करें, साथ ही अपना अगर हेल्थ इंश्योरेंस कराया है तो उसके बारे में भी जानकारी दें। जैसा की इस कोरोनाकाल में हुआ, कई घरों में पति, पत्नी दोनों ही अस्पताल में भर्ती रहे। ऐसे में बच्चों के पास जानकारी हो तो अच्छा है। एक औऱ ज़रूरी सीख ये थी सबको सभी काम के बारे में पता हो – मोबाइल से खाना कैसे ऑर्डर करने से लेकर बैंक का एटीएम कैसे ऑपरेट करते हैं। हैं बहुत छोटी छोटी बातें लेक़िन जानना बेहद ज़रूरी। आप परिवार से शायद प्यार के कारण सभी काम करते हैं या घर के बाकी सदस्य भी आप के होने पर इन चीजों के बारे में नहीं जानना चाहते। लेक़िन कभी उनको ये काम करना पड़ जाये और आप बताने की स्थिति में न हों, तो उनको पता होना चाहिये।
सीख: अपने ख़ास सहयोगियों के नंबर साझा ज़रूर करें। अगर कोई पुरानी डायरी हो तो वहाँ सभी ज़रूरी नंबर लिख कर रखिये और समय समय पर अपडेट भी करते रहें तो न बैटरी ख़त्म होने का डर न फ़ोन के नुकसान की चिंता। साथ ही घर के सभी सदस्यों के पास भी ये नंबर रहेंगे।
कोरोना ने पिछले दिनों ऐसा कहर ढाया है जिससे उबरने में समय लगेगा। हमने अपने परिवार, रिश्तेदारों या जानने वालों को खोया है औऱ कई ख़ुद भी इस बीमारी से ग्रस्त हुये और ठीक भी हुये। सबके अपने अनुभव हैं इस समय के जो इतिहास में अब हमेशा के लिये दर्ज हो गया हैं। जो अब हमारे साथ नहीं हैं उन सभी को सादर नमन।
सकारात्मक सोच पर ही बात आगे बढ़ाते हैं क्योंकि इस पर मुझे बहुत मदद मिली और वो भी बिल्कुल अनचाहे (लेक़िन बहुत ही कीमती ज्ञान)। पहली किश्त में मैंने भोजन वाली बात औऱ मेरे साथ वार्ड शेयर करने वाले एक वरिष्ठ नागरिक की सीख के बारे में बताया था, इस बार बिल्कुल उल्टा हुआ। एक वरिष्ठ नागरिक को उनके पुत्र सीख दे रहे थे।
ICU में मेरे बगल के बेड पर जो सज्जन भर्ती थे उनकी तबियत थोड़ी ऊपर नीचे चल रही थी। कभी तो सब ठीक रहता औऱ कभी थोड़ी चिंता की हालत रहती। रोज़ शाम को जब मिलने का समय रहता तो उनके पुत्र मिलने आते और उनसे बात करते। वो उन्हें बार बार समझाते और उन सज्जन के साथ मैं भी चुपचाप उनके पुत्र की हौसला बढ़ाने वाली बातें सुनता। इन सभी बातों का निश्चित रूप से मुझे भी लाभ हुआ क्योंकि मोबाइल बहुत सीमित समय के लिये इस्तेमाल कर पाता औऱ मिलने जुलने वाला कोई आना नहीं था (घर पर भी कोविड के मरीज़ थे)। तो अंकल जी के बाद शायद मुझे उनके पुत्रों का इंतज़ार रहता।
आपके आसपास ICU में मरीज़ रहते हों औऱ कुछ न कुछ चलता रहता हो तो ये सकारात्मक बातें बहुत बड़ा टॉनिक हो जाती हैं। ICU के बाहर अपने रोज़ मर्रा के जीवन में भी ऐसे परिवारजन, रिश्तेदार और दोस्त हों तो आपके लिये बहुत मदद हो जाती है। वैसे तो हम सभी सकारात्मक सोच रखते हैं, लेक़िन शायद अपने अंदर। वो जो आजकल एक नई श्रेणी के वक्ता या कहें एक नया व्यवसाय बन गया है मोटिवेशनल स्पीकर वाला, उन अंकल के बेटे उन सब से कहीं बेहतर। कम समय में वो अंकल (और साथ में मुझे भी) नये हौसले से भर देते। मैं हमेशा उन अनजान लोगों का ऋणी रहूँगा।
सकारात्मक सोच का एक बिल्कुल दूसरा रूप देखने को मिला जब ICU से दूसरे वार्ड में शिफ़्ट हुआ। वैसे तो हमेशा अपग्रेड होना ही अच्छा लगता है लेक़िन ये वो डाउनग्रेड था जिसका मुझे इंतज़ार था। इस वार्ड में रोज़ एक युवा, जिसने शायद अभी स्कूल ख़त्म ही किया हो, बार बार आता। लेक़िन वो अपने काम से काम रखता। मतलब वार्ड में कुछ भी चल रहा हो ये महाशय की एंट्री होती और ये सीधे जाकर सेनेटाइजर से अपने हाथों को साफ़ करते और उसके बाद वो अपना कुछ काम करते। इस पूरे समय उनका ध्यान सेनेटाइजर औऱ अपनी कुछ परेशानी पर रहता। जैसे एक दिन शायद उनकी चप्पल काट रही थी तो को पहले अपने पैर पर कुछ लगाया फ़िर अपनी चप्पल पर टेप लगाते रहे। वो इस बात से बिल्कुल भी परेशान नहीं कि वो अस्पताल के एक वार्ड में हैं जहाँ मरीज़ हैं या डॉक्टर भी आते जाते रहते हैं। इस बंदे के जज़्बे को भी सलाम!
तो पहले भोजन का ज्ञान और फ़िर बीमारी से लड़ने का हौसला बढ़ाने वाली बातें और सकारात्मक सोच। इन सबका निचोड़ यही की मन के हारे हार, मन के जीते जीत। जो अगली सीख मिली वो थी कुछ पुरानी आदतें को छोड़ना नहीं चाहिये।
कुछ दिन पहले सकारत्मकता पर एक फेसबुक पोस्ट पढ़ी थी। दरअसल वो सकारात्मक रहिये के ज़रिए एक कटाक्ष था आजकल जो हालात चल रहे हैं। मैंने पढ़ने के बाद उस पोस्ट की लिंक भी नहीं रखी औऱ ढूंढने पर भी नहीं मिली। ख़ैर ये पोस्ट उस पोस्ट के न मिलने के बारे में तो नहीं है, हाँ सकारात्मकता के बारे में ज़रूर है।
ये कोरोना से लड़ाई का मेरा व्यक्तिगत अनुभव है औऱ इसकी कोई कहानी नहीं है। तो अस्पताल में 17 दिन, जिसमें एक हफ़्ता ICU, में बिताने के बाद, जब कहा गया आप घर जा सकते हैं तो ये पूरा सफ़र याद आ गया। अस्पताल से निकलते वक़्त कम और घर पर जब 10 दिनों के लिये फ़िर कमरा बंद अर्थात क्वारंटाइन हुये तब। लिखना हो नहीं पाया तो अब आपके साथ साझा कर रहा हूँ।
सबक 1: हमेशा अच्छा सोचें या Always Think Positive
जिस समय मुझे कोरोना हुआ उसी समय देश के अन्य हिस्सों में भी हालात ख़राब होने लगे। जिस सोसाइटी में रहता हूँ वहाँ भी बहुत केस आये जिसके चलते स्थानीय नगर पालिका ने सोसाइटी सील कर दी। अर्थात अंदर से कोई भी गाड़ी बाहर नहीं जा सकती औऱ वैसे ही कोई बाहर की गाड़ी भी अंदर नहीं आ सकती। सील होने का मतलब दोनों गेट पर बल्लियां लगा दी गयी। अपनी हालत वैसे तो गाड़ी चलाने लायक नहीं थी तो कोई बात नहीं थी लेक़िन जिन समझदार व्यक्तियों ने ये किया था शायद उन्होंने इमरजेंसी में गाड़ी दूर होने के बारे में सोचा नहीं होगा या कोई चलने में असमर्थ हो उसके पास क्या विकल्प है – ये भी नहीं सोचा होगा।
मुझे भी कोई विकल्प नहीं दिख रहा था। कोरोना के चलते कोई चाह कर भी आपकी मदद नहीं कर सकता। ऐसे में मेरे मददगार बने हमारे पुराने पडोसी एवं एक और कोविड पॉजिटिव पेशेंट आशीष जी। उनका पूरा परिवार कोविड की चपेट में आ गया था। परिवार से याद आया हम चार में से तीन लोग पॉज़िटिव थे। उस समय बेड थोड़े मुश्किल से मिल रहे थे लेक़िन आशीष भाई को फ़ोन पर जानकारी मिली औऱ घर के नज़दीक ही हॉस्पिटल में बेड भी मिल गया। जब ये ढूँढाई चल रही थी उस समय सोसाइटी के कुछ और लोग भी अपने स्तर पर पता कर रहे थे। अगर आपको मदद चाहिये तो अपनी सोसाइटी के व्हाट्सएप ग्रुप या आपके जो इतनी सारे बाकी ग्रुप हैं, स्कूल, कॉलेज, ऑफिस वाले, सभी पर अपनी जो ज़रूरत है वो साफ शब्दों में लिख कर पोस्ट करें। इन ग्रुप में अगर बहुत कुछ फ़ालतू चलता है तो बहुत से लोग मदद करने वाले भी होते हैं। औऱ एक मैसेज को फॉरवर्ड ही करना है तो ज़्यादा समय भी नहीं लगेगा। उसके बाद आप बात कीजिये क्योंकि बात करने से ही बात बनती है।
अब यहाँ से ज्ञान की वर्षा शुरू होगी जो तूफ़ानी तो नहीं होगी इतना यकीं दिला सकता हूँ।
जब अस्पताल में भर्ती हुआ तो लगा था एक हफ़्ते में वापस घर चले जायेंगे। पहली सीख अगले ही दिन मिली जब वार्ड में मेरे साथ रहने वाले एक वरिष्ठ नागरिक ने समझाया की खाना नहीं खाने से यहाँ औऱ समय लगेगा। इसलिये अपना खाना ठीक से खाओ। दरअसल उन्होंने रात में मुझे प्लेट में खाना छोड़ते हुये देखा था। उस दिन के बाद से जो भी खाने को मिलता सब बहुत आनंद के साथ खाता। कोई न नुकुर या कोई शिकायत नहीं। इसका श्रेय माँ को जाता है जिन्होंने खाने के बारे में कोई नखरे बचपन से ही नहीं पालने दिये। कोई सब्जी कम पसंद हो सकती है लेक़िन वो थाली में परोसी ज़रूर जायेगी।
वैसे तो मेरा ये मानना है की जो भी थाली में परोसा जाय उसको चुपचाप खा लेना चाहिये। औऱ खाने को लेकर वैसे भी कोई ज़्यादा नखरे नहीं है (मेरा मानना है)। लेक़िन उसके बाद भी मुझे लगभग रोज ही अपने नाश्ते की प्लेट लौटानी पड़ती। इसके बारे में अगली बार।
सीख: जानकारी ज़्यादा लोगों के साथ शेयर करें औऱ आपकी क्या ज़रूरत है उसे भी साफ साफ बतायें। जैसे मुझे बात करने से आशीष भाई का साथ मिला ऐसे आपको भी किसी आशीष की मदद मिलेगी। सोच सकारात्मक रखें।
किसी भी कहानी का समय जब आता है तब आता है। अब इस पोस्ट को ही लें। इसको लिखने की प्रेरणा मिले हुये एक अरसा हो गया। मज़ेदार बात ये कि आलस त्यागते हुये पोस्ट लिख भी ली लेक़िन किसी न किसी कारण से इसको पोस्ट नहीं कर पाया। और अब जो चल रहा है मीडिया में उसके बाद आज ऐसा लगा यही सही समय है।
दुख, ग़म की मार्केटिंग भी एक कला है। मुझे इसका ज्ञान मेरे डिजिटल सफ़र के शुरू में तो नहीं लेक़िन कुछ समय बाद मिला। लोगों को दुःख बेचो मतलब ऐसी कहानी जो उनके दिल में वेदना जगाये, उन्हें व्यथित करे। अगर आपने लॉकडाउन के दौरान मीडिया में चल रही खबरों पर ध्यान दिया हो तो ऐसी कई ख़बरों ने ख़ूब सुर्खियां बटोरीं।
आज की इस पोस्ट के बारे में लिखने का ख़याल तो लंबे समय से बन रहा था लेक़िन फेसबुक पर आदित्य कुमार गिरि की पोस्ट पढ़ने के बाद लिखने का कार्यक्रम बन ही गया।
दुःख से दुःख उपजता है और कोई भी मनुष्य दुःख से जुड़ना नहीं चाहता। इसलिए लोग आपके दुःख में रुचि नहीं लेते क्योंकि मनुष्य का स्वभाव आनन्द में रहना है। आप दुःख को खोलकर बैठ जाइए, लोग आपसे कतराने लगेंगे।
भगवान को चिदानंद इसलिए कहा गया है क्योंकि वहां केवल आनन्द है। आप दुःख की दुकानदारी करके लोगों को पकड़ना चाहते हैं। लोग भाग जाएँगे।
इस संसार में जिसे भी पकड़ना चाहेंगे वह भागेगा। व्यक्ति प्रकृत्या स्वतंत्र जीव होता है। वह किसी भी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करता। इसलिए आप जब-जब, जिस-जिस पर बन्धन डालते हैं व्यक्ति तब-तब आपसे भागता है।
जीवन का एक ही सूत्र, एक ही मन्त्र है और वह यह कि आनन्द में रहिए। आनन्द आकर्षित करता है। अपने भीतर के खालीपन को सिर्फ अपने स्वभाव में रहकर ही आनन्द से भरा जा सकता है। दूसरे आपके खालीपन को कभी भी भर नहीं सकते।
व्यक्ति अपने अकेलेपन को दूसरों की उपस्थिति से भरना चाहता है लेकिन दूसरा आपके रीतेपन से नहीं आपके भरे रूप से खिंचते हैं। इसलिए दुःख का प्रचार बन्द कीजिए। दुःख को दिखाने से सहानुभूति मिलेगी, आनन्द में होंगे तो प्रेम मिलेगा।
अपने दुःखों और कष्टों को बढ़ा चढ़ाकर दिखाना एक किस्म का बेहूदापन है। इस तरह के लिजलिजेपन से प्रेम नहीं उपजता। आप जबतक दूसरों को प्रभावित करने के सम्बंध में सोचते रहेंगे, ख़ुद से दूर होते रहेंगे। और ख़ुद से दूर होना ही असल नर्क है।
किसी भी रियलिटी शो को देखिये। उसमें जो भी प्रतिभागी रहते हैं उनमें से किसी न किसी की एक दर्द भरी दास्ताँ होती है। शो के पहले एपिसोड से ही दर्शकों को ये बताया जाता है की वो कितनी मुश्किलें झेल कर उस मंच तक पहुंचा है।
पिछले दिनों ट्वीटर पर इसी से जुड़ा एक बड़ा ही दिलचस्प वाक्या हुआ। इंडियन आइडल शो में ऐसे ही प्रतियोगियों के बारे में बार बार बताते रहते हैं। एक दर्शक ने इस पर कहा की शो को गाने या इससे जुड़े विषय पर फ़ोकस रखना चाहिये औऱ इन बातों से बचना चाहिये। इन सब से लोग उसको नहीं चुनते जो उसका हक़दार है बल्कि उसे जिसकी कहानी से वो ज़्यादा व्यथित हो जाते हैं।
इस पर शो के एक जज विशाल ददलानी ने कहा की किसी भी कलाकार के बारे में फैंस जानना चाहते हैं। जिनको गाना सुनना है या कमेंट्स सुनने हैं वो ये सुनने के बाद अपना टीवी म्यूट कर सकते हैं।
इस पर कई लोगों ने प्रतिक्रिया दी औऱ बताया कैसे शो बनाने वालों ने दर्शकों के मन में सहानुभूति जगाने के लिये कुछ ज़्यादा ही दिखा दिया। वैसे मुझे नहीं पता जो भी कहानियाँ दिखाई जाती हैं उनमें कितनी सच्चाई है, लेक़िन मीडिया से जुड़े होने के कारण मेरी आँखों के सामने कई बार कहानियों के रिटेक हुये हैं।
टीवी पर आने वाले कई शो में ये रोना धोना दरअसल कैमरे के लिये ही होता है। इन आरोपों से मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान भी नहीं बचे हैं। उनके शो सत्यमेव जयते में ऐसा कई बार हुआ। ऐसा ही एक और संगीत से जुड़ा शो था जिसमें एक दिव्यांग प्रतियोगी था। उनका गाना उतना अच्छा नहीं था लेक़िन शो को उस प्रतियोगी के ज़रिये अच्छी रेटिंग मिल रही होगी शायद इसलिये काफ़ी समय तक वो शो में रहा लेक़िन जीता नहीं।
भारत का एक बड़ा हिस्सा मध्यम वर्गीय है और उन सभी के पास कुछ न कुछ ऐसी कहानी बताने के लिये होगी। संघर्ष सभी के जीवन में होता है उसका स्तर अलग हो सकता है। लेक़िन होता ज़रूर है। लेक़िन ये एक चलन सा भी बन गया है की लोग अपने संघर्ष को बड़े ही रोमांटिक अंदाज़ में बताते हैं। सिनेमाजगत में तो लगभग हर कलाकार के पास ऐसी ही कुछ कहानी होती है। किसी ने दस लोगों के साथ कमरा शेयर किया या लोकल के धक्के खाये।
आपके अनुभव किसी न किसी की ज़रूर मदद करेंगे लेक़िन उसके लिये आपको अपनी कहानी बताने का अंदाज़ बदलना होगा। हर बार वो ट्रैजिक स्टोरी सुना कर आप ट्रेजेडी किंग या क्वीन नहीं बन जायेंगे। अलबत्ता लोग ज़रूर आपसे कन्नी काटने लग जायेंगे।
ऐसी ही कहानी आपको आईपीएल के कई खिलाड़ियों के बारे में देखने या पढ़ने को मिलेगी। लेक़िन जब वो खिलाड़ी मैदान में उतरता है तो उसका जो भी संघर्ष रहा हो, पिच पर पहुँचने के बाद सिर्फ़ और सिर्फ़ ये मायने रखता है की वो अपने बल्ले से या गेंदबाजी से क्या कमाल दिखाता है।
पत्रकारिता बनाम व्हाट्सएप चैट
अब आते हैं आजकल जो चल रहा है। रिपब्लिक चैनल के मालिक और पत्रकार अर्णब गोस्वामी की कुछ व्हाट्सएप चैट इन दिनों ख़ूब शेयर की जा रही हैं। मामला है भारतीय जवानों पे हमले का और उनका कहना कि उन्होंने उसपर अच्छा काम किया है। मतलब उनकी चैनल को अच्छा ट्रैफिक मिला।
उनके इस कथन पर सबको घोर आपत्ति हो रही है। लेक़िन ये मीडिया का वो चेहरा है जिसके बारे में लोग कम बात करते हैं। आपने ये न्यूज़ चैनल को चुनाव या बजट पर तो अपनी पीठ ख़ुद थपथपाते देखा होगा। लेक़िन कम ही ऐसे मौक़े आये जब किसी त्रासदी पर कवरेज को लेकर ऐसा हुआ।
मैं अपने अनुभव से बता रहा हूँ आज जितने भी तथाकथित पत्रकार इस चैट पर घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं या अर्णब की तरफ़ उँगली उठा रहे हैं वो ख़ुद त्रासदियों को बेच बेच कर आगे बढ़े हैं। इस पूरे प्रकरण में एक बात औऱ साफ़ करना चाहूँगा की न तो मुझे अर्णब या उनकी पत्रकारिता के बारे में कुछ कहना है।
मॉरल ऑफ द स्टोरी: आपका संघर्ष, आपका दुःख बहुत निजी होता है। लोग संवेदना प्रकट करेंगे, आपसे सहानुभूति भी रखेंगे। लेक़िन आपको दुःख के उस पार का सफ़र भी तय करना होगा। क्योंकि सुख के सब साथी, दुःख में न कोय।
2020 जीवन के ऐसे ऐसे पाठ पढ़ा गया है जो ताउम्र नहीं भूल पायेंगे। यूँ तो साल 2020 से बहुत से गिले शिकवे हैं, लेक़िन इसीकी तारीखों में दर्ज़ हो गयी है एक कभी न भूलने वाली ऐसी तारीख़जिसने हमारी ज़िंदगी को हमेशा हमेशा के लिये बदल दिया है।
कहते हैं जिस तरह किसी का जन्म एक बड़ी घटना होती है, ठीक वैसे ही किसी की मृत्यु एक जीवन बदलने वाली घटना होती है। लेक़िन इस जीवन बदलने वाली घटना ने इस साल बहुत सी ऐसी बातें बताई जिन्हें हम नज़रअंदाज़ करते रहते हैं लेक़िन जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। मैं प्रयास करूँगा उन बातों को आपके साथ साझा करने का।
सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं, जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं।
आज, अभी
हम बहुत से काम कल पर टालते रहते हैं। किसी को फ़ोन करना हुआ, किसी की तारीफ़ करना हुआ, किसी को ये बताना की वो आपके लिये ख़ास हैं, किसी को ये बताना की कैसे उन्होनें आपका जीवन बदल दिया। मतलब लोगों का शुक्रिया अदा करना। अपने मन की बात करना। महीने के आखिरी रविवार नहीं, रोज़। प्रतिदिन।
2020 में मेरे दिल्ली के पीटीआई के मित्र अमृत मोहन ने भी हमको अलविदा के दिया। पीटीआई से निकलने के बाद मैंने अमृत से कई बार संपर्क साधने की कोशिश करी लेक़िन ये संभव नहीं हुआ। मैंने कई लोगों से उनका नंबर माँगा भी लेक़िन बात नहीं हो पाई। जब उनके निधन का दुखद समाचार मिला तो उस समय सिवाय अफ़सोस के मेरे पास कुछ नहीं बचा था। हाँ अमृत के साथ बिताये समय की यादें हैं और अब वही शेष हैं।
हमको मिली हैं आज ये घड़ियाँ नसीब से
अगर आप मोबाइल इस्तेमाल करते हैं या सोशल मीडिया पर फेसबुक देखते हों तो आपको कई बार पिछले वर्षों की कोई फ़ोटो या वीडियो देखने को मिल जाती है जो बताती है उस दिन एक साल या पाँच साल पहले आपने क्या कारनामा किया था। आप अगर सोशल मीडिया पर शेयर नहीं करते हैं तो आप एक बहुत बड़े स्कैंडल से बच जाते हैं। लेक़िन मोबाइल पर फ़ोटो तो फ़िर भी दिख ही जाती हैं। सभी के मोबाइल फ़ोटो से भरे पड़े हैं। लेक़िन आज से एक साल पहले 1 जनवरी 2020 के दिन हमने यशस्विता के साथ बिताया था और आज 1 जनवरी 2021 को बस उन्ही फ़ोटो औऱ हम लोगों की यादों में बसी है।
कुछ लोग एक रोज़ जो बिछड़ जाते हैं वो हजारों के आने से मिलते नहीं उम्र भर चाहे कोई पुकारा करे उनका नाम वो फिर नहीं आते…
तेरा कर्मही
मुझे पूरा विश्वास है चाहे हंसी मज़ाक में ही सही, भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में जो कहा है की कर्म करो फल की चिंता मत करो, इसे आपने कभी न कभी ज़रूर सुना होगा। इसमें ही जीवन का सार छुपा है। हालात कैसे भी क्यूँ न हों, हमे अपना कर्म करना चाहिये। फल को ध्यान में रखकर कर्म न करें। फल इस जीवन में मिले न मिले। लेक़िन कर्म करते रहिये। निरंतर।
जो भाग्य को मानते हैं उनके लिये चाणक्य ने कहा है
प्रश्न: अगर भाग्य में पहले से लिखा जा चुका है तो क्या मिलेगा? उत्तर: क्या पता भाग्य में लिखा हो प्रयास करने से मिलेगा?
आगे बढ़ें या…
कई बार जीवन हमें ऐसे दोराहे पर लाकर खड़ा कर देता है जहाँ समझ नहीं आता क्या करूँ। इससे जुड़ा एक मज़ेदार किस्सा है। वैसे तो ऐसा आजकल कम होता है, लेक़िन पहले फ़िल्म देखने जाओ तो ऐसे दर्शक बहुत रहते थे जो बीच फ़िल्म में मज़ेदार टीका टिप्पणी करते। ऐसे ही एक फ़िल्म में सीन था जिसमें नायिका भगवान के समक्ष अपनी दुविधा बयाँ करते हुये कहती है, भगवन मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा। आगे भी अंधेरा, पीछे भी अंधेरा समझ में नहीं आता क्या करूं। दर्शक दीर्घा से आवाज़ आयी – मोमबत्ती जलाओ।
ठीक ऐसे ही जीवन में कई क्षण आते हैं जब आपको समझ नहीं आता। अगरआपकी दर्शक दीर्घा से मोमबत्ती जलाने की आवाज़ सुनाई देती है तो ठीक नहीं तो हर्षद मेहता के जैसे अपना लाइटर निकालें और रोशनी कर लें। ये भी ध्यान रखें इन अंधेरों में रहने से रोशनी नहीं मिलेगी। इसके लिये आपको आगे चलना ही होगा।
आँखों में नमी, हँसी लबों पर
फिल्में देखते हुये या कोई किताब पढ़ते हुये या कोई गाना सुनते हुये कई बार आँख भर आती है या कई बार बाल्टी भरने की नौबत भी आ जाती है। लेक़िन इस पूरी प्रक्रिया के पूरे होने के बाद बहुत ही अच्छा, हल्का सा लगता है। इसमें कोई शरमाने वाली बात भी नहीं है। अगर दर्द हो रहा है औऱ आँसू निकल रहे हैं तो उनका निकलना बेहतर है। पुरषों को ये सिखाया जाता रहा है की आँसू कमज़ोरी की निशानी है या उनको ये ताना दिया जाता है लड़कियों वाली हरकत मत करो।
मॉरल ऑफ द स्टोरी:
ज़िन्दगी जीने का कोई एक तरीक़ा नहीं है। सबका अपना अपना तरीक़ा होता है। बस एक बात जो सब पर लागू होती है फ़िर चाहे आप किसी भी धर्म, सम्प्रदाय या देश के हों कि अगर जन्म हुआ है तो मृत्यु अवश्य होगी। फ़र्क होता है बस हम इन दो घटनाओं के बीच में क्या करते हैं। तो आप अपने जीवन को अपने हिसाब से चुने और अपने ही हिसाब से उसे जियें भी। और जियें ऐसे की सबको रंज हो।
ज़िन्दगी ज़िंदादिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या खाख जिया करते हैं।
If there has been one year that has changed everything – it is 2020. While in the past these changes were more personal, more local, thanks to covid19 the sufferings, the painis not about a country, state or city.
As I am typing this post to review 2020, the year gone by, I am filled with so many emotions – a big chunk occupied by pain, emptiness and loss. In this short life almost all the years have been filled with ups and down, sometimes more downs and fewer ups but 2020 has left such a vaccum in our lives that I cannot see anything filling it up in future. We will have to learn to live with this while we spend our time on this planet. But I will still attempt to review 2020 because if there has been one year that has changed everything – it is 2020. Surprisingly or not so surprising is the fact that while I feel sad about my personal loss, I also know of so many others who underwent similar pain. The much talked about new normal has become forever normal for us.
The year began on a very hopeful note. We were in Delhi to spend a week with my dear lovely sister Yashasvita who had undergone a rather difficult surgery in October 2019 and as part of her treatment, radiation and chemotherapy were lined up from January 2020. For past few years it had become a rather regular practice to spend end of December or early January, if not new year, with her when she would travel to Mumbai for her annual visit to the Tata Memorial Hospital.
Hope
Diagnosed with jaundice in October, subsequent tests had confirmed presence of cancer in the pancreas and hence the surgery. But post that – we were hopeful that like 2007, this time too Yashasvita will beat cancer. The initial month after surgery was difficult for her as she adjusted to the new diet and medicines. As she did in 2007, this time too Yashasvita was leading the fight from the front and all our conversations were only around how she wants to first beat the monster called cancer and later take care of everything else.
Celebrations
We all were looking forward to 2020 for so many reasons. It was the year when our parents were completing 50 years of togetherness. It was also the year when my father turned 75. So it was double celebration time. We started planning for it in 2019 itself with searching for a suitable venue to host the event. By January end coronavirus had arrived in India but things were not looking that bad and even after the lockdown we were hopeful that by June things would be better and the mega family get together would happen.
All is not well
The first signs of something was not right were felt in May when Yashasvita’s report showed alarming increase in one of the parameters. The parameters had reported increase in the past as well and while the doctors were still trying to find out the possible reason for this, we consulted the doctor at Tata Memorial who had treated her in 2007. When your mind is full of doubts and you are looking for some positive, reassuring sign – you want someone to tell you – things are okay. This is what happened when I met the doctor at TMH on a rather hot May afternoon. Dr Sudeep Gupta not only discussed how Yashasvita was doing but he also spoke to her doctor in Delhi who had worked with him in the past.
I still remember the glee on my face as I walked out of TMH to know it is fine. Remember the celebrations? Well as it became clear the lockdown was here to stay and that travelling is ruled out – we decided to have e-celebrations. Leading the tech team was Vishal – Yashasvita’s husband. Yashasvita was in and out of hospital during this period for her chemo sessions and she even had one couple of days before the event. But now it seems she had saved all her energy for the event. The first and second day after the chemo are really bad as all the chemicals inside the body do their trick and you just let the body adjust.
She is the jaan of all our get togethers. Cracking jokes, mandatory dance, may be some Madhuri Dixit steps too. And she danced that night. Like she had in all the gatherings she was part of in the past. And that was the last dance.
Things only got worse from there. The alarming increase in her parameter continued in July as well and her cramps only got worse and she was in terrible pain. Another test in July confirmed our worst fears – the disease was spreading.
I was to meet Dr Gupta again in August. This was after that phone call from Yashasvita that will remain in memory forever. When she was first diagnosed with cancer in 2007, she was expecting her second child. She gave birth to boy in October that year and continued with her treatment. But never during those trying times had I seen her spirit broken. She was the one who was giving us strength in her fight against cancer.
It was no different this time either. But that morning in August 2020 she was in pain. Terrible pain. Asking me, pleading me, ordering me to go and find out how can this pain go. The sheer helplessness I felt that moment. And when I met Dr Gupta he said it in so many words. I could barely walk to the car and burst into tears. There was no treatment possible now.
Could there be something else that we can try? We looked for all options and even got alternate medicines but nothing worked.
While we were all trying to come to terms with what was in store for all of us, Yashasvita and her husband Vishal, also knew how it is going to happen and how much time she has on her hands. Yashasvita was admitted to the hospital one last time in August. Around same time, I also fell ill with some mysterious disease and my darling sister who had few days on this planet, was telling me to take care of my health and the usual brother sister stuff. I was trying to give her gyan not knowing she had more gyan than me as far as her illness was concerned. She even recorded a sweet message for her kids while she was in hospital which Vishal shared after she left us.
And that brings me to a rather special thing that happened this year. It was the role reversal when younger siblings showed us the way. I will only remain indebted to them for life for their strength.
Our lives changed forever after Yashasvita has left us. Nothing and I mean nothing is the same anymore. We all are picking up pieces of our lives and finding our own ways and means to cope with this loss. There is no day when her memory comes rushing out of nowhere and leaves with a heavy heart and few tears.
Vishal has started work on a charitable trust in Yashasvita\’s memory and we will be working on areas and issues she strongly believed in. What better way to keep the memory of such a wonderful person alive than working on her dream project.
The mask, social distancing, lockdown etc were the new normal for us and everybody else in 2020. But those of us who know Yashasvita and were blessed to have her presence in our lives, this is not the new normal we wanted to live with. But live we will, because that is what life is all about.
कल जो समाचार सुनने के बारे में लिखा था उसके बारे में कुछ और बातें। जब हम लोग बड़े हो रहे थे तब रेडियो ही एकमात्र मनोरंजन का साधन हुआ करता था। अगर आकाशवाणी और विविध भारती मनोरंजन/समाचार का स्त्रोत हुआ करते तो बहुत से दूसरे रेडियो स्टेशन भी इस का हिस्सा थे।
आज जो बीबीसी देख रहे हैं हम लोग उसकी हिंदी सेवा को सुनकर बड़े हुये हैं। उनकी चार सभाएँ या कहें दिन में चार बार प्रसारण हुआ करता था। सब कार्यक्रम एक से बढ़कर एक। बस तकलीफ़ यही थी की सिग्नल अच्छा नहीं मिले तो कान को ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती। चूँकि सारे कार्यक्रम शॉर्टवेव पर होते थे तो ऐसा कई बार होता। लेक़िन तीन चार फ्रीक्वेंसी पर प्रसारण होता था विकल्प रहता था जब कभी सिग्नल ठीक न हो तो।
हमारे यहाँ शॉर्टवेव पर जो कार्यक्रम बड़े चाव से सुना जाता था वो था अमीन सायानी जी का बिनाका गीतमाला जो रेडियो सीलोन पर आता था। मुझे आज भी याद है जब रात में ट्रांज़िस्टर पर ये कार्यक्रम चलता रहता और हम सब उसके आसपास बैठे रहते और हफ़्ते के गानों के उतार चढ़ाव का किस्सा उनकी दिलकश आवाज़ में सुनते।
इसके बाद ये कार्यक्रम विविध भारती पर भी आया लेक़िन सच कहूँ तो जब तक ये हुआ तब तक काफ़ी कुछ बदल चुका था। शायद इसलिये इसका दूसरा संस्करण बहुत ज़्यादा कामयाब नहीं हुआ। आज जब किसी टीवी चैनल पर ऐसे किसी प्रोग्राम को देखता हूँ तो हँसी आती है – क्योंकि अपने दर्शकों को बांधे रखने के लिये वो तरह तरह के हथकंडे अपनाते हैं।
बीबीसी सुनने का चस्का या कहें शौक़ मुझे मामाजी के ज़रिये मिला। वो शाम को 7.30 बजे वाला कार्यक्रम सुनते और वहीं से ये आदत भी बन गयी। समय के साथ मेरा जुड़ाव बीबीसी के कार्यक्रमों से बढ़ता गया। लेक़िन उस समय ये नहीं पता था एक दिन मेरा जुड़ना इस पेशे से होगा।
औऱ सबसे यादगार दिन बना दिसंबर 3 की वो सुबह जब मैं भोपाल गैस पीड़ितों के एक कार्यक्रम में गया था। ये एक सालाना कार्यक्रम बन गया था जब सभी राजनीतिक दलों के नेतागण, संस्थाओं से जुड़े लोग एक रस्म अदायगी करते थे। मैं कार्यक्रम के शुरू होने का इंतज़ार कर रहा था कि एक सफ़ेद अम्बेसडर कार आकर रुकी और उसमें से बीबीसी के उस समय के भारत के संवाददाता मार्क टली साहब कार से उतरे।
उनको रेडियो पर ज़्यादा सुना था और टीवी पर कम देखा था लेक़िन पहचान गया। उनसे पाँच मिनिट ऐसे ही बात हुई औऱ उसके बाद वो अपने काम में लग गए। उसके बाद उनकी किताब भी पढ़ी और उनके कई कॉलम भी। लेक़िन उनको सुनने में जो मज़ा आता है वो कुछ और ही है।
बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो आपको अपने पद या बड़े होने का एहसास नहीं कराते हों। एक रिश्तेदार महोदय को अपने पद का बड़ा घमंड था। अपने आगे वो बाकी सबको छोटा ही महसूस करते और कराते। ऐसे कोई ऊँचे पद पर तो नहीं थे लेक़िन कमाई करने वाली पोस्ट ज़रूर थी तो उन्होंने पैसे को ही अपना रुतबा बना लिया, समझ लिया।
कभी किसी के यहाँ मिलने जाना हो तो पहले संदेश भिजवाते की वो मिलने आ रहे हैं। मज़ा तो तब आया कि ऐसे ही संदेश वो जिनको भिजवाते थे वो प्रमोट होकर बहुत बड़े ओहदे पर पहुँच गये और अब ये महाशय मिलने का समय माँगते फ़िरते। वो तो पुरानी पहचान के कारण उनको ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। लेक़िन सीख ज़रूर मिल गयी।
मामाजी जिनसे बीबीसी सुनने की सीख मिली वो प्रदेश में पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुये। लेक़िन न तो हम घरवालों को या बाहर वालों को लगता की वो किसी पुलिस अफ़सर से बात कर रहे हैं। एक बहुत ही साधारण सा जीवन जीने वाले एक बहुत ही असाधारण व्यक्ति थे। ऊपर बताये हुये सज्जन से बिल्कुल उलट।
ऐसी ही यादगार बात हुई थी गुलज़ार साब से फ़ोन पर उनकी भोपाल यात्रा के दौरान। इन दोनों वाक़ये से क्या सीखा?
मॉरल ऑफ द स्टोरी: आप कितने भी बड़े क्यूँ न हो जायें, अपना ज़मीनी रिश्ता कभी मत भूलिये। कभी भी अपने पद का घमंड न करें। वक़्त सभी का बदलता है औऱ इसकी कोई आहट भी नहीं होती। इन दोनों महानुभवों से जब बात हुई तब मैं अपने पत्रकारिता के जीवन की शुरुआत ही कर रहा था। लेक़िन उन्होंने अपना एक सीनियर होने या एक नामी गिरामी गीतकार-लेखक-निर्देशक होने का एहसास नहीं कराया।
टीवी पर समाचार के नाम पर जो परोसा जाता है वो देखना बहुत पहले ही बंद हो चुका है। लेक़िन दो दशकों की समाचार के बीच रहने आदत के चलते अब अपने को अपडेट करने का दायित्व आकाशवाणी को दिया है। सच मानिये रोज़ सुबह शाम पंद्रह मिनट का बुलेटिन सुनने के बाद किसी दूसरे माध्यम की ज़रूरत महसूस नहीं होती।
ट्विटर एक विकल्प हो सकता था लेक़िन वहाँ पर जो हंगामा होता है उसमें समाचार कहीं गुम हो जाता है और फ़ालतू की बहस शुरू हो जाती है। उसमें बीच में बहुत ही मज़ेदार वाकये होते हैं जैसे किसी गुरु के समर्थक अपने जेल में बंद गुरु की रिहाई की माँग करते हैं। लगभग रोज़ ही ऐसा होता है।
फ़ेसबुक पर भी ऐसा ही कुछ नज़ारा होता है। एक तो अल्गो के चलते अगर कभी ग़लती से किसी पोस्ट को क्लिक कर लिया तो फेसबुक ये मान लेता है आप इस विषय में रुचि रखते हैं। लेक़िन ऐसा होता नहीं है। इसलिए थोड़ा सोच समझ कर ही क्लिक करते हैं।
ये जो मोबाइल डिवाइस है जिससे ट्विटर, फेसबुक का सफ़र होता है, इसके भी कान होते
हैं। हम जाने अनजाने बहुत सारी एप्प्स को इस बात की आज्ञा देते हैं कि वो मोबाइल के माइक्रोफोन (माइक) को इस्तेमाल कर सकते हैं। बस तो वो दीवारों के भी कान होते हैं वाली कहावत में से दीवार को हटा दें औऱ उसकी जगह मोबाइल लगा दें। आपके मुँह से निकले हर शब्द को कोई न कोई सुन रहा है औऱ उसी के आधार पर आपको सुझाव नज़र आते हैं।
ये विश्वास करना शुरू में मुश्किल था। लेक़िन उसके बाद एक दिन ऐसा भी आया जब ये विचित्र किंतु सत्य बात साक्षात सामने प्रकट हुई एक एसएमएस के रूप में। मेरी एक पुरानी चोट है 2009 नवंबर की जिसमें पैर का लिगामेंट चोटिल हो गया था। ये चोट यदा कदा अपना आभास कराती रहती है। डॉक्टर ने फुट मसाज के बारे में कहा।
दो दिन के बाद SMS आया एक मसाज से सेंटर के बारे में। जबकि मैंने किसी से इस बारे में संपर्क भी नहीं किया था तो नंबर किसी के पास होने की संभावना नहीं के बराबर थीं। बाद में एक नामी केरल मसाज सेन्टर गये और मसाज करवाया लेक़िन उस सेन्टर से जाने के बाद कोई संदेश आज तक नहीं आया। अलबत्ता बाकी ढ़ेर सारे सेन्टर के आये और अब भी आते रहते हैं। और वो बहुत सारी \’सेवाओं\’ का भी विज्ञापन भी करते रहते हैं।
इसके अलावा अगर गलती से मोबाइल डेटा चालू रह जाता है तो गूगल आपकी सारी खोज ख़बर रखता है। आप कहाँ गये, वहाँ का मौसम, जहाँ रुके उसके बारे में, सब जानकारी रहती है। इसके बाद भी लोग किसी सीक्रेट मिशन के बारे में बात करते हैं तो थोड़ा अजीब सा लगता है। जैसे हमारे एक जानने वाले घर पर कुछ और बोलकर दो दिन हिल स्टेशन पर बिता कर आये। घर वालों को भले ही पता न चला हो, गूगल सब जानता है।
वैसे ये गूगल मैप है बड़ा उपयोगी। आप उसमें बस सही गली, मोहल्ला डाल दीजिये और वो आपको वहाँ पहुँचा ही देगा। सितंबर में एक रात लांग ड्राइव न होते हुये भी हो गयी इसी मैप के चलते। जहाँ भी वो मुड़ने का बताता या मोहतरमा बतातीं वहाँ से मुड़ना थोड़ा मुश्किल ही होता। नतीजा ये हुआ की 10 km की ड्राइव 110 km की हो गयी।
मॉरल ऑफ द स्टोरी: टेक्नोलॉजी हमारे जीवन को बेहतर ज़रूर बनाती हैं लेक़िन उनके ही भरोसे न रहें। अपने आसपास के मनुष्यों को भी मौका दें। कभी रुक कर किसी से पुराने जमाने की तरह पता भी पूछ लें। टेक्नोलॉजी में बाक़ी सब कुछ होगा लेक़िन एक दिल और कुछ एहसास अपने आसपास के लोगों में ही मिलेगा।https://youtu.be/C_dI4mXlxNg
पिछले कुछ दिनों से सभी जगह ठंड ने अपने पैर जमा लिये हैं। मुम्बई में भी मौसम कुछ रूमानी सा ही रहा है पिछले कुछ दिनों से। उत्तर भारत जैसी कड़ाके की सर्दी तो नहीं लेक़िन मुम्बई वालों के हिसाब से यही काफी है सबके गर्म कपड़ों के ढ़ेर को बाहर निकालने के लिये।
हर मौसम की अपनी एक ख़ासियत होती है। सर्दियों के अपने आनंद हैं। आज की इस पोस्ट का श्रेय जाता है मेरे फेसबुक मित्र चारुदत्त आचार्य जी को। उन्होंने एक पोस्ट करी थी सर्दियों में स्नान के बारे में और कैसे पानी बचाते हुये ये स्नान होता था और उसका अंतिम चरण। आप इस पोस्ट को यहाँ पढ़ सकते हैं।
आज जो शहरों में लगभग सभी घरों में जो गीजर होता है, उसका इस्तेमाल 1980-90 के दशक में इतना आम नहीं था। सर्दियाँ आते ही गरम पानी की भी ज़रूरत होती स्नान के लिये। चूँकि गैस सिलिंडर उन दिनों इतनी जल्दी जल्दी नहीं मिलते थे तो पानी गर्म करने के लिये दो ही विकल्प रहते – या तो घासलेट (केरोसिन) से चलने वाला स्टोव या लकड़ी या कोयले से चूल्हा जलाया जाये।
केरोसिन के साथ भी समय पर मिलने की समस्या होती। राशन की दुकान पर आने के पहले ही ख़त्म हो जाने का बोर्ड लग जाता। स्टोव जलाना भी एक मशक्क़त वाला काम हुआ करता था। थोड़ी थोड़ी देर में जैसे चूल्हे की आग को देखते रहना पड़ता वैसे ही स्टोव को भी पंप करते रहना पड़ता था।
लेक़िन कोयला आसानी से मिलता था। सुबह सुबह ठेले पर जैसे सब्ज़ी वाले निकलते वैसे ही कोयले वाले भी निकलते। कोयला स्टॉक कर लीजिये और सर्दियों की सुबह लग जाइये इस काम पर। अगर कोयला भी नहीं मिले तो लकड़ी का जुगाड़ करिये क्योंकि ठंडे पानी से नहाने का अवार्ड अभी भी नहीं मिलता। वैसे कई लोगों को जानता हूँ जो हर मौसम ठंडे पानी से ही स्नान करते हैं।
बहरहाल, बहुत लंबे समय तक पानी ऐसे ही गर्म होता रहा। हमारे सरकारी घर में जो पड़ोसी थे उनके यहाँ पानी गर्म करने का अलग यंत्र था। उसकी तस्वीर नीचे लगी है। बस रोज़ सुबह जिस समय हमारे यहाँ आग लगा कर चूल्हा जलाने की मशक्कत चालू रहती उनके यहाँ इस यंत्र को आंगन में रखा जाता और पानी गर्म करने की प्रक्रिया शुरू।
पानी की समस्या तो नहीं थी लेक़िन जैसा चारुदत्त जी ने कहा गर्म पानी का सप्लाई बहुत ही सीमित मात्रा में होता। मतलब जितनी बड़ी पतीली उतना ही पानी। तो आज जो शॉवर के नीचे या टब के अंदर समय न पता चलने वाला जैसा स्नान संभव नहीं होता। और उस स्नान का अंत एकदम वैसा जैसा की वर्णन किया गया है – बाल्टी उठा कर सिर पर पानी डालने की प्रक्रिया।
जैसे गीजर जीवन में लेट आया वैसे ही प्लास्टिक भी। तो उस समय जो बाल्टी हुआ करती थी वो भी लोहे की। मतलब उसका भी वज़न रहता। बस वो 3 Iditos वाला सीन, सिर के ऊपर बाल्टी, नहीं हुआ।
जब गीजर आया तो वो ड्रम गीजर था। मतलब जो आजकल के स्टोरेज गीजर होते हैं वैसा ही लेक़िन दीवाल पर नहीं टंगा होता। मतलब अब गर्म पानी की सप्लाई में कोई रोकटोक नही। जब तक सरकारी घर में रहे तब तक इसका ही आसरा रहा। जब स्वयं के घर में गये तो थोड़ा सॉफिस्टिकेटेड से हो गए। मतलब अब सबके बाथरूम में अलग गीजर।
गीजर से जुड़ा एक मज़ेदार वाकया भी है। किसी रिश्तेदार के यहाँ सर्दियों में गये थे। उनके यहाँ एक गीजर था जिसकी सप्लाई सभी जगह थी। लेक़िन समस्या ये थी की अगर कहीं और भी गर्म पानी का इस्तेमाल हो रहा होगा तो आपको नहीं मिलेगा या कम मात्रा में मिलेगा। ये बात तब मालूम पड़ी जब शॉवर के नीचे खड़े हुये।
मॉरल ऑफ द स्टोरी: सर्दी हो या गर्मी हर मौसम के मज़े लीजिये। हर मौसम के ज़ायके का भी जब तक मज़ा ले सकते हैं, ज़रूर से लें। जैसे सर्दियों में गाजर का हलवा और छौंका मटर।
मुँह में राम बगल में छुरी वाली कहावत जब बचपन में सुनी थी तो लगता था छुरी भी दिखाई देगी। वक़्त के साथ समझ आया कि ये छुरी दिखने वाली नहीं है। हाँ आपको इसका आभास अलग अलग रूप में हो जाता है।
जैसे आपके सच्चे हितेषी कौन हैं ये बात आपको समझते समझते समझ में आती है। अक़्सर ऐसा होता है कि जिसको आप अपना शुभचिंतक समझ रहे थे वो दरअसल अपने मतलब के लिये आपके पास था। ये वो लोग होते हैं जो आपको चने के झाड़ पर चढ़ाने का काम करते हैं औऱ चूँकि हम सभी को तारीफ़, प्रशंसा अच्छी लगती है तो हम ये सब सुन सुनकर फूल फूल के कुप्पा हुये जाते हैं। लेक़िन जब तक समझ आता है की आप उतने भी अच्छे नहीं है जितना बताया जा रहा था तो बड़ी ठेस लगती है।
जब मुझे टीम को नेतृत्व करने का मौक़ा मिला तो कई सारे ट्रेनिंग प्रोग्राम में जाने का मौक़ा भी मिला। इसमें से एक था कि आप किसी को फ़ीडबैक कैसे दें। कंपनी के नियम ही कुछ ऐसे थे कि आप को हर महीने टीम के सभी सदस्यों की परफॉर्मेंस देखनी होती थी और रेटिंग देनी होती थी। इसके बाद हर तिमाही आपको आमने सामने बैठकर इस पर थोड़े विस्तार से बातचीत करनी होती थी। एक समय मेरी टीम लगभग 70 से अधिक सदस्यों की हो गयी थी और मेरे कई दिन इसमें निकल जाते थे। साल के अंत में तो महीना इसके लिये निकाल कर रख दिया जाता था।
इसका दूसरा पहलू भी था। टीम के सदस्यों को भी उनके लीडर (यानी मुझे) रेट करना होता था। जो भी अच्छा बुरा होता वो सीधे HR के पास पहुंच जाता और इसके बाद बॉस, मैं और HR के बीच मेरे बारे में इस फीडबैक पर चर्चा होती। इसमें बहुत सी बातें पता चलती। मसलन टीम भले ही अपने टारगेट कर रही थी लेक़िन कुछ न कुछ शिक़ायतें भी ज़रूर रहतीं। वैसे तो मैंने टीम के सभी सदस्यों को ये छूट दे रखी थी की अगर मेरी कोई बात ग़लत हो तो बता दें। लेक़िन कुछ को छोड़ दें तो बाक़ी लोगों को कोई शिक़ायत नहीं होती। ऐसा मुझे लगता।
लेक़िन जब शिकायतों की शुरुआत होती तो लगता ये तो कुछ अलग ही मामला है। लेक़िन जब आप नेतृत्व कर रहे होते हैं तो आपको एक और बात भी समझ में आती है की कुछ तो लोग कहेंगें, लोगों का काम है कहना। आप इस कहने से कितना परेशान होते हैं ये आप पर निर्भर करता है क्योंकि उस कहने की सच्चाई आपको भी पता होती है। लेक़िन इसका ये मतलब नहीं की जो आपकी निंदा कर रहे हो वो ग़लत ही हों। शायद आपको अपने में कुछ बदलने की भी ज़रूरत हो सकती है।
लेक़िन कुछ लोगों की फ़ितरत ऐसी नहीं होती। मतलब बेईमानी तो जैसे उनके डीएनए में ही होती है। और न तो समय और न उम्र उनमें कुछ बदलाव लाती है। आप कह सकते हैं ये उनका मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट होता है। लेक़िन जैसे किसी उपकरण की कई खामियां/कमियाँ आपको उनके इस्तेमाल के बाद पता चलती हैं, वैसे ही इन महानुभावों के असली चेहरे के बारे में तब पता चलता है जब आप किसी मुसीबत में हों या आपको उनकी सहायता की ज़रूरत हो।
अगर आपने फ़िल्म नासिर हुसैन की तीसरी मंज़िल देखी हो तो जैसे उसमें आख़िर में पता चलता है तो आपको एक शॉक सा लगता है। पहली बार तो ऐसा हुआ था। मैंने अपने कार्यस्थल और निजी जीवन में भी ऐसी कई उदाहरण देखे जिनके बारे में सुनने पर विश्वास नहीं होता। ऐसे लोगों के चलते मन ख़राब भी बहुत होता है क्योंकि आपको सामने ये दिखता है की सब कुछ ग़लत करने के बाद भी (जिसके बारे में सबको मालूम भी है) वो व्यक्ति अपने जीवन को ऐसे जी रहा है जैसे कुछ हुआ ही न हो। आप यही उम्मीद करते हैं जैसे सबको अपने कर्मों का फल मिलता है इन \’गुणी\’ लोगों को भी मिले।
वापस मुँह में राम बगल में छुरी पर आते हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण देखने को मिलेंगे जहाँ दानवीर धर्मस्थलों पर बड़ी रक़म तो दान कर देते हैं लेक़िन किसी असली ज़रूरतमंद की मदद करने से कतराते हैं। अब जब चूँकि अंदर वो अपनी आस्था का लेनदेन कर चुके होते हैं तो बाहर काला चश्मा पहनकर वो निकल जाते हैं।
मॉरल ऑफ द स्टोरी: अपना काम करते रहिए। जिनको आपका ऐसे या वैसे उपयोग करना होगा वो करेंगे। उनसे आप नहीं बच सकते। अगर घर में आपके सगे संबंधी आपको छोड़ देंगे तो बाहर कोई आपका दोस्त, सहयोगी आपकी ताक में बैठा होगा। लेक़िन इन लोगों के चलते उसकी उम्मीद मत तोड़ियेगा जिसका जीवन आप के एक भले काम से बदल सकता है।
स्कूल में किसी ने मुझसे पूछा तुम्हारे पास कार है? कक्षा उम्र का बिल्कुल भी ध्यान नहीं। ये उस समय की बात है जब हर घर में टीवी या कार न होना एक बहुत सामान्य बात थी। लेक़िन मेरे जवाब से उस बंदे को ज़रूर चक्कर आया होगा। मैंने कहा हाँ है तीन कारें।
जिस वक़्त का ये घटनाक्रम है उस समय परिवार बड़े हुआ करते थे औऱ सभी साथ में भी रहते थे। तो ऐसे में सभी की सब चीजें हुआ करती थीं। हमारा संयुक्त परिवार तो नहीं रहा इस लिहाज से मेरा जवाब ग़लत था। लेक़िन ऐसे मौके कई बार आये जब घर के अंदर, मतलब गेट के अंदर, तीन तीन कारें खड़ी होती थीं। वो होती तो परिवार के बाकी सदस्यों की लेक़िन मैंने उनको अपनी कार माना। तो शायद मैंने यही सोच कर जवाब दिया होगा। लेक़िन ये बात मुझे इसलिये याद रही क्योंकि उस बंदे ने पूछा तुम्हारे पिताजी की कौनसी कार है? इसी से जुड़ा एक और किस्सा है बाद के लिये।
पिताजी के पास पहली कार, उनकी पहली कार, इस वाकये के लगभग बीस साल बाद आई। इसके पहले दादाजी की पुरानी कार ऑस्टिन की ख़ूब सेवा करी और हम सबसे करवाई भी। पिताजी को गाड़ी चलाने का ही शौक़ नहीं है बल्कि आज भी उसके रखरखाव का भी पूरा ध्यान रखते हैं। परिवार के कई सदस्यों को कार चलाना सिखाने का श्रेय भी पिताजी को जाता है। बाक़ी सबको तो वो प्यार से सिखाते लेक़िन हम लोगों को कुछ ज़्यादा ही प्यार से सिखाते। जब तक एक दो प्यार की थपकी नहीं पड़ती लगता नहीं गाड़ी चलाई है।
ऑस्टिन में फ्लोर गेयर हैं और उस समय रोड पर वो गेयर बदलना और नज़र सामने ही रखना – ये लगभग एक असंभव कार्य हुआ करता था। बार बार नज़रें गेयर के हैंडल पर जाती और पिताजी बोलते सामने देखो, नज़रें रोड पर। बस यहीं से गड़बड़ शुरू होती और पिताजी से प्रसाद मिलता। मुझे ऐसा मौका बहुत कम मिला जब पिताजी किसी और को सीखा रहे हों और मुझे भी कार में बैठने का मौक़ा मिला हो। मतलब ये देखने का की प्रसाद वितरण किसी और रूप में तो नहीं हुआ है।
अच्छी बात ये थी कि ऑस्टिन जब रोड पर निकलती तो बरबस सबकी निगाहें उसी तरफ़ होती। अब नई पीढ़ी ने हमारा स्थान लेना शुरू कर दिया है – मतलब अब वो कार चलाना सीख रहे हैं तो अपने सीखने के दिन याद आ गए। आजकल की कारें बहुत ही ज़्यादा व्यवस्थित होती हैं तो सीखने में ज़्यादा परेशानी भी नहीं होती। अब प्रसाद वितरण भी नहीं होता होगा ऐसा मेरा मानना है।
आज कारों की बातें क्योंकि आज से 35 साल पहले भारत में पहली मारुति 800 की डिलीवरी।हुई थी। आज सोशल मीडिया पर पहली मारुति खरीदने वाले दिल्ली के हरपाल सिंह जी फ़ोटो देखी।
जब मारुति की कारें रोड पर दिखने लगीं तो लगा पता नहीं क्या कार बन कर आई है। एक तो दिखने में बहुत छोटी सी क्योंकि इससे पहले बड़ी अम्बेसडर कार या फ़िएट ही सड़कों पर दौड़ती दिखती। जिनके पास ये नई कार आयी उनसे इसकी खूबियाँ सुनते तो लगता बड़ी कमाल की गाड़ी है। लेक़िन जब बैठने का मौका मिला तो लगा अपने जैसे फ़िट लोगों के लिये अम्बेसडर की सवारी ही बढ़िया है। अब बड़ी गाड़ियों का चलन वापस आ रहा है। छोटी गाड़ियों से लोग अब इम्प्रेस नहीं होते। अगर घर के बाहर SUV खड़ी हो तो बेहतर है।
जिन तीन कारों का मैंने ऊपर उल्लेख किया है, दरअसल उनमें से एक भी पिताजी की स्वयं की गाड़ी नहीं थी। लेक़िन ये बात समझ में थोड़ी देर से आई की अपनी चीज़ क्या होती है और आप हर चीज़ को अपना नहीं कह सकते। मतलब आप उन गाड़ियों को ठीक करवाने में अपना पूरा दिन बिता तो सकते हैं लेक़िन मालिकाना हक़ किसी और का ही रहेगा। और मालिक की समझ सिर्फ़ इतनी की अगर गाड़ी बीच सड़क में खड़ी हो जाये तो बस पेट्रोल है या नहीं इतना ही देख सकते हैं।
ये बात यादों पर लागू नहीं होती तो आज उस काली कार की यादों में।
पहली लाइन में क्लियर कर दूँ। ये उस दिल के मामले की बात नहीं हो रही है जिसपर काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है बल्कि ये बात है और गहरे कनेक्शन की।
जब घर से बाहर निकले नौकरी करने के लिये तो शुरुआती समय तो काम समझने और अकेले रहने के तामझाम में ही निकल जाता। तामझाम से मेरा मतलब है अपने रहने, खाने आदि का इंतज़ाम करने में निकल जाता। जो छुट्टी मिलती उसके काम बिल्कुल निर्धारित होते। कपड़े धुलना, उनका प्रेस करवाना और सोना। उस समय गाने देखने से ज़्यादा सुनने का चलन था तो रेडियो चलता रहता और काम भी।
इन सबके बीच अगर घर की याद आये तो एसटीडी बूथ पर पहुंच जाइए औऱ 11 बजे का इंतजार करिये जब कॉल करने में सबसे कम पैसे लगते। उसके बाद सरकार ने तरस खाकर ये समय बदला। आज जब फ़ोन कॉल फ्री हो गया है और आप जितनी चाहें उतनी बात कर सकते हैं। लेक़िन एक समय था जब नज़र सामने चलते काउंटर पर होती थी और उँगली तुरंत डिसकनेक्ट करने को तैयार।
इन सबके बीच घर की याद बीच रोड पर आ जाती या इस बात का एहसास करा जाती की आप घर से दूर हैं, जब आपको उस प्रदेश/शहर के नंबर प्लेट की गाड़ियों के बीच एक नंबर अपने प्रदेश का दिखाई दे जाय। औऱ चूँकि आपकी नज़रें उन नंबरों को अच्छे से पहचानती हैं तो वो नज़र भी फ़ौरन आ जाते हैं। मुझे नहीं पता ऐसा आप लोगों के साथ हुआ है या नहीं लेक़िन मेरे साथ ज़रूर हुआ है।
आदमी स्वभाव से लालची ही है। तो प्रदेश का नंबर ठीक है लेक़िन अपने शहर का देखने को मिल जाये तो लगता उस गाड़ी वाले को रोककर उससे कुछ गप्प गोष्ठी भी करली जाये। क्या पता कुछ जान पहचान भी निकल जाये। हालांकि ऐसा कभी किया नहीं लेक़िन इच्छा ज़रूर हुई।
पहले जो गाड़ियों के नंबर हुआ करते थे उनमें ऐसा करना थोड़ा मुश्किल होता था लेक़िन जब नया सिस्टम आया जिसमें राज्य के बाद शहर का कोड होता है तो अब शहर जानना आसान हो गया है। मतलब वाहन चालक आपके शहर से है ये नंबर प्लेट बता देती है। अब तो एप्प भी है जिसमें आपको गाड़ी की पूरी जानकारी भी मिल सकती है। कहाँ तो नंबर प्लेट से कनेक्शन ढूंढ रहे थे और कहाँ अब मालिक का नाम पता भी मिल जाता है। वैसे मैं तबकी बात कर रहा हूँ जब ये व्हाट्सएप या वीडियो कॉल या फ़ेसबुक कुछ भी नहीं होता था। लेक़िन लोगों की नेटवर्किंग ज़बरदस्त। लोगों ने अपने प्रदेश, शहर आदि के लोगों को ढूंढ भी लिया और वो नियमित मिलते भी।
ये दिल का कनेक्शन तब और खींचता है जब आप कहीं बाहर गये हों। मतलब घर से और दूर विदेश में। उस समय कोई भारत से मिल जाये तो अच्छा, उस पर अपनी बोली, प्रदेश और शहर का हो तो लगता है दुआ कबूल हो गई औऱ घर पर खाने के लिये बुला ले तो…
पिछले दिनों कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति बनने पर कुछ ऐसा ही देखने को मिला। सबने ढूंढ ढूंढ कर उनके भारतीय कनेक्शन निकाले औऱ उसके बाद बस ऐसा माहौल बना जैसे कोई भारतीय बन गया हो। लेक़िन सच्चाई कुछ और ही है। वैसे भी इस राजनीतिक टिप्पणी से भटकने की संभावना ही ज़्यादा है।
तो विदेश यात्रा पर ये दिल हिंदुस्तानी हो जाता है औऱ एक दो दिन के अंदर ही भारतीय खाने की तलब लगने लगती है। अच्छा बुरा जैसा मिले बस खाना अपना हो। उस समय ये जज़्बात फूट फूट के बाहर निकलते हैं। अब भारत वापस आ जाते हैं। यहाँ भी ऐसा ही होता है। जैसे जिस शहर से आप आये हैं वहाँ का अगर कुछ खानपान मिलने लगे तो सबको पता चल जाता है।
मैं तो कुछ ऐसे लोगों को भी जनता हूँ जो शहर, प्रदेश घूमने के बाद भी वही नंबर रखते हैं क्योंकि ये नंबर प्लेट से उनका दिल का कनेक्शन होता है। आज ये विषय दरअसल कौन बनेगा करोड़पति की देन है। एक प्रतियोगी ने मध्यप्रदेश में अपने किसी संबंधी को कॉल करके मदद माँगी थी। टीवी स्क्रीन पर इंदौर देखा तो एक अलग सी फीलिंग आयी। हालाँकि इंदौर शायद बहुत कम जाना हुआ है लेक़िन है तो अपना शहर।
वैसे अब ऐसा नंबर प्लेट देखकर प्यार कम उमड़ता है क्योंकि जैसे जैसे समझ आती जा रही है ये पता चल रहा है की ये सब सोच का कमाल है। आप कई बार सिर्फ़ शरीर से कहीं होते हैं लेक़िन मन से कहीं और। मतलब घर की यादों को अब महसूस करते हैं और रूहानी तौर पर वहीं पहुँच भी जाते हैं। लेक़िन फ़िर भी कभी कभी ऐसा हो जाता है।
वैसे ये फीलिंग आप नीचे धरती पर हों या हवाई जहाज में या अंतरिक्ष में। पहले और एकमात्र भारतीय अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा से भी जब इंदिरा गांधी ने पूछा कि ऊपर से भारत कैसा दिखता है तो उनका जवाब – सारे जहाँ से अच्छा।
यात्राओं का मेंरे जीवन में एक बहुत एहम स्थान है और शायद आप सभी के जीवन में भी ऐसा ही कुछ होगा। जो भी खट्टे मीठे अनुभव हुये वो जीवन का बड़ा पाठ पढ़ा गये। जैसे हिंदी में लिखना शुरू करना 2017 में दिल्ली से भोपाल की ट्रैन यात्रा के दौरान हुआ। लेक़िन उसके पहले की कई सारी यात्राओं के बारे में भी लिख चुका हूँ।
2020 में कोरोना के चलते कोई यात्रा नहीं हो पाई। माता पिता के विवाह की स्वर्णिम सालगिरह, जिसका हमने बहुत बेसब्री से इंतजार किया, वो भी सबने ज़ूम पर ही मनाई। उस समय इसका आभास नहीं था की लगभग तीन महीने बाद यात्रा करनी ही पड़ेगी।
किसी भी यात्रा पर जब आप जाते हैं तो उसका उद्देश्य पहले से पता होता है। तैयारी भी उसी तरह की होती है। जैसे जब मैं पहली बार 17 घंटे की फ्लाइट में बैठा था तो ये पता था सुबह जब आँख खुलेगी तो विमान न्यूयॉर्क में होगा। उसके बाद काम और घूमने की लिस्ट भी थी। मतलब एक एजेंडा सा तैयार था और वैसी ही मनोस्थिति।
जब सितंबर 18 को छोटे भाई ने फ़ोन करके यशस्विता की बिगड़ती हालत औऱ डॉक्टरों के कुछ न कर पाने की स्थिति बताई तो जो भी डर थे सब सामने आ गये थे। भाई का साल की शुरुआत में ही तबादला हुआ था और विशाल के बाद उसने ही अस्पताल में यशस्विता के साथ सबसे अधिक समय व्यतीत किया। इस दौरान उसने अपना दफ़्तर भी संभाला, शिफ्टिंग भी करी और कोरोना का असर भी देखा। यशस्विता के अंतिम दिनों में भाई की पत्नी ने भी बहुत ही समर्पित रह कर सेवा करी।
तो जिस यात्रा का मैं ज़िक्र कर रहा था वो अंततः करनी ही पड़ी। इस यात्रा में क्या कुछ होने वाला था इसकी मुझे और बाकी सब को ख़बर थी। जब अक्टूबर 3 की रात ये हुआ तो…
उस क्षण के पहले मुझे लगता था की मैं इस बात के लिये तैयार हूँ की मेरी छोटी बहन हमारे साथ नहीं होगी। मैं बाक़ी लोगों को समझाईश देने की कोशिश भी करता। लेक़िन उनके बहाने मैं शायद अपने आप को ही समझा रहा था। बहरहाल जब ये सच्चाई सामने आई तो इसे पचा पाना बड़ा मुश्किल हो गया। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जितना भी ज्ञान अर्जित किया था लगता है सब व्यर्थ क्योंकि अपने आपको समझा ही नही पा रहे। किसी भी तरह से इसको स्वीकार नहीं कर पा रहे थे।
ये समझ में नहीं आ रहा था आगे क्या होगा? कैसे यशस्विता के पति, बच्चे अपना आगे का जीवन बितायेंगे। हमारे माता पिता का दुःख भी बहुत बड़ा था। पिछली अक्टूबर से वो यशस्विता के साथ ही थे और माता जी ने कोरोनकाल में जब उनकी मदद करने के लिये कोई नहीं था तब स्वयं ही बच्चों की सहायता से सब मैनेज किया।
पूरे कोरोनकाल के दौरान यशस्विता, उनके पति और छोटे भाई ने अस्पतालों के अनगिनत चक्कर लगाये। यशस्विता आखिरी बार जिस अस्पताल में भर्ती हुईं वो एक कोविड सेन्टर था। कैंसर के कारण शरीर की प्रतिरोधक क्षमता वैसे ही कम हो जाती है। उसपर बढ़ते हुये कैंसर के कारण शरीर भी बेहद कमज़ोर। लेक़िन इन तीनों ने बहुत सावधानी बरती।
फ़िल्म दीवार का वो चर्चित सीन तो आपको पता होगा जिसमें अमिताभ बच्चन अपनी माँ के लिये प्रार्थना करने जाते हैं। आज खुश तो बहुत होंगे… वाला डायलाग। बस वैसी ही कुछ हालत हम सबकी थी। जब डॉक्टरों ने जवाब दे दिया तो भगवान का रुख़ किया। जिसने जो बताया वो दान पुण्य किया, उन मंत्रों का जाप किया। मंदिरों में पूजा अर्चना करी, करवाई। लेक़िन जो होनी को मंज़ूर था वही हुआ। एक ईश्वरीय शक्ति में विश्वास के अलावा बाक़ी सब अब ढकोसला ही लगते हैं।
पिछले दिनों pk और देखली तो मन और उचट सा गया है। फ़िल्म में आमिर खान अपने ग्रह पर वापस जाने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं लेक़िन बात कुछ बन नहीं रही है। हताश होकर एक शाम जब वो लौटते हैं तो मूर्तिकार की गली में कई मूर्तियाँ आधी बनी हुई रखी हैं। वो उनसे पूछते हैं की उनकी शंका का समाधान करें। कोई कहता है सोमवार को व्रत रखें, कोई कहता है मंगलवार को रखें। कोई कहता है सुर्यास्त के पहले भोजन करें, कोई कहता है सूरज ढलने के बाद रोज़ा तोड़ें। मंदिर में जूते चप्पल बाहर उतारकर जायें या चर्च में बढ़िया सूटबूट पहन कर।
https://youtu.be/JXJ3rmyBqyg
pk की परेशानी हमारी ही तरह लगी। किसी ने कहा इस मंत्र का जाप, किसी ने कहा फलां वस्तु का दान तो किसीने ग्रह देखकर कहा समय कठिन है लेक़िन अभी ऐसा कुछ नहीं होगा। फ़िर कहीं से कुछ आयुर्वेदिक इलाज का पता चला तो बहुत ही सज्जन व्यक्ति ने ख़ुद बिना पैसे लिये दवाइयाँ भी पहुँचायी। लेक़िन उसका लाभ नहीं हुआ क्योंकि कैंसर बहुत अधिक फ़ैल चुका था।
इस पूरे घटनाक्रम में यशस्विता के बाद जो दूसरे व्यक्ति जो सभी बातों को जानते थे औऱ रोज़ अपनी पत्नी के एक एक दिन का जीवन कम होते हुये देख रहे थे वो हैं उनके पति विशाल। जब पहली बार 2007 में कैंसर का पता चला तो उन्होंने इलाज करवाने के लिये शहर बदल लिया। जब सब ठीक हुआ उसके बाद ही उन्होंने मुम्बई छोडी। इस बार भी जब पता चला तो उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी इलाज में। जहाँ रिपोर्ट भेज सकते थे भेजी। जो टेस्ट करवाना हुआ करवाया ताकि कहीं से कोई उम्मीद की किरण दिखे।
जिन यात्राओं का मैंने ऊपर ज़िक्र किया है उसके अलावा दूसरों की यात्राओं से भी ऐसे ही बहुत कुछ सीखने को मिला है। जैसे यशस्विता को जब अगस्त में डॉक्टरों का जवाब पता चल गया था की धरती पर अब उनकी यात्रा चंद दिनों की बची है तो उन्होंने जो किया जिसका जिक्र मैंने कल किया था, उसके बाद भी अपना जीवन ऐसे जीना जैसे कुछ हुआ ही न हो।
इस पोस्ट को लिखने का सिलसिला पिछले कई दिनों से चल रहा है, लेक़िन मैं किसी न किसी बहाने इसको टालता रहा। अब आज जब न लिखने के सब बहाने ख़त्म हो गये तो प्रयास पुनः आरंभ किया।
आपके परिवार में माता पिता के अलावा आपके भाई बहन ही आपका पहला रिश्ता होते हैं। समय के साथ ये लिस्ट बड़ी होती जाती है और इसमें दोस्तों, रिश्तेदारों एवं जीवनसाथी, उनके परिवार के सदस्य का नाम भी जुड़ जाता है। लेक़िन जो आपके कोर ग्रुप होते हैं वो वही होते हैं।
ऐसा कई बार हुआ है हम भाई, बहन किसी बात पर हँस हँस कर लोटपोट हुये जाते हैं लेक़िन वो जोक किसी और को समझ में नहीं आता। ये जो वर्षों का साथ होता है इसमें आपने साथ में कई उतार चढ़ाव साथ में देखे हैं। आपको माता पिता का वो संघर्ष याद रहता है। कई यात्रओं की स्मृति साथ रहती है। अक्सर इन अच्छी यादों, अच्छे अनुभवों को आपने अपने बच्चों के साथ एक बार फ़िर से जीना चाहते हैं और इसलिये कुछ वैसे ही काम करते हैं।
जैसे जब हम बड़े हो रहे थे तब टीवी देखना परिवार की बड़ी एक्टिविटी हुआ करती थी। अब आज के जैसा जब समय मिले तब देखना हो जैसी सुविधा नहीं थी। दिन और समय नियत होता था। आप काम ख़त्म करके या ऐसे ही टीवी के सामने बैठ जायें ये आपके ऊपर है। कुछ वैसा ही हाल रेडियो का भी था। संगीत का शौक़ और उससे जुड़ी कई बातें पहले भी साझा करी हैं। लेक़िन जिस घटना को आज बता रहा हूँ उसका संगीत से सीधा जुड़ाव नहीं है।
इस बात को लगभग 20-22 साल बीत चुके हैं लेक़िन ये पूरा वाकया बहुत अच्छे से याद है। पिताजी से मैंने एक सोनी के म्यूजिक सिस्टम की ज़िद कर ली। ज़िद भी कुछ ऐसी की ना सुनने को तैयार नहीं। जब लगा की बात बन नहीं रही है तो एक दिन उनके स्कूल पहुँचकर उनको साथ लेकर दुकान पर गया और सिस्टम लेकर ही बाहर निकला।
घर पर काफ़ी समय से इस मुद्दे पर गरमा गरम चर्चा हो चुकी थी। लेक़िन जब सिस्टम घर पहुंचा तो पिताजी ने कुछ नहीं कहा अलबत्ता छोटी बहन यशस्विता ने मेरी ख़ूब खिंचाई करी। ख़ूब गुस्सा हुई औऱ शायद रोई भी। उसको इस बात से बहुत दुख था की एक मोटी रक़म ख़र्च कर सिस्टम लिया था जबकि वही पैसा किसी और काम में इस्तेमाल आ सकता था।
इसके बाद ये झगड़ा, अलग सोच एक रेफरेंस पॉइंट बन गया था। कुछ सालों बाद हम इस बात पर हँसते भी थे लेक़िन इस एक घटना ने मेरी बहन की सोच को सबके सामने लाकर रख दिया था। वैसे वो म्यूजिक सिस्टम अभी भी है, अलबत्ता अब चलता नहीं है।
2007 में जब छोटी बहन यशस्विता को कैंसर का पता चला तो उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था इस बीमारी को हराना और अपने आने वाले बच्चे को बड़ा करना। टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल में जब हम डॉक्टर का इंतजार कर रहे तो वो इधर उधर टहल रही थी। जब डॉक्टर ने ये बताया की कैंसर ही है तो शायद एकाध बार ही उसके आँसू निकले होंगे। उसके बाद तो जैसे उसने लड़ाई की ठान ली थी।
उस पूरे समय मुझे ये लगता था की उसका ये लड़ने का जज़्बा ही हम सबकी हिम्मत बन गया था। सारी तकलीफ़ झेली उन्होंने लेक़िन हिम्मत हम सबको देती रही। इस लड़ाई की योद्धा, सेनापति सभी रोल वो बखूबी निभा रही थीं। ट्रीटमेंट ख़त्म होने के बाद मुंबई सालाना दिखाना के लिये आना होता औऱ सब कुछ ठीक ही चल रहा था।
लेक़िन अक्टूबर 2019 में जब कैंसर ने दुबारा दस्तक दी तो बात पहले जैसी नहीं थी। लेक़िन हमारी योद्धा की हिम्मत वैसी ही रही जैसी बारह साल पहले थी। हमेशा यही कहती की मुझे इसको हराना है। जब ये साफ हो गया की अब बात चंद दिनों की ही है तो उन्होंने एक और हिम्मत का काम किया और अपने पति और बच्चों, परिवार के लिये एक बहुत ही प्यारा सा संदेश भी रिकॉर्ड किया जो 3 अक्टूबर 2020 को उनके जाने के बाद सुना। जब ये सुना तब लगा जिस सच्चाई को स्वीकारने में मुझे इतनी मुश्किल हो रही थी उसको उसने कैसे स्वीकारा।
वैसे तो जब साथ में बड़े हो रहे थे तब सभी ने एक दूसरे को ढेरों नाम दिये। लेक़िन एक नाम जो मैंने पम्मी को दिया और एक उसने मुझे जो बाद के वर्षों में बस रह गया साथ में। मुझे ये याद नहीं इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई। लेक़िन ये याद रहेगा इसका अंत कब हुआ।
आज जब वो हमारे बीच नहीं है तो भी मेरी हिम्मत वही बढ़ाती है। उसके जाने के बाद बहुत से ऐसे मौके आये जब मैंने अपने आपको बहुत कमज़ोर पाया लेक़िन अपनी छोटी बहन के जज़्बे ने बहुत हिम्मत दिलाई। कैंसर से उसकी लड़ाई, जीने की उसकी ललक अब ताउम्र हम सभी का हौसला बढ़ाती रहेगी।
जब मेरा डिजिटल पत्रकारिता का दूसरा चरण शुरू हुआ तब जल्द ही मुझे एक टीम को नेतृत्व करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस समय डिजिटल का इतना बोलबाला नही था। जो मीडिया संस्थान इस माध्यम का उपयोग कर रहे थे उनके पास दूसरे माध्यम भी थे।
मैं जिस वेबसाइट में काम कर रहा था वो केवल डिजिटल पर ही निर्भर थी। मतलब किसी अन्य तरह का कोई सपोर्ट नहीं था। मेरी टीम के सभी सदस्य कॉलेज में या तो पढ़ रहे थे या बस पढ़ाई पूरी ही करी थी। मतलब अनुभव की कमी थी। यही सबसे अच्छी बात भी थी क्योंकि सब कुछ नया सीख रहे थे तो कोई पुराना सीखा हुआ भुलाने की ज़रूरत नहीं थी।
लेक़िन जो ऊपर बताया ये टीम के सदस्यों को कैसे समझायें? खाने पीने के शौकीन मैंने उसी का सहारा लिया। अपने आप को रोज़ दुकान लगाने वाले एक दुकानदार की तरह सोचने को कहा। उसको रोज़ ताज़ा सामान तैयार करना पड़ता है बनिस्बत उस दुकानदार के जिसके पास जगह होती है पहले से तैयारी की और सामान बना कर रखने की।
पिछले दिनों जीवन में बड़ा उलटफेर हो गया। जो सारे फलसफे पढ़े थे सब फालतू हो गये। अपने आसपास जो भी देखा, पढ़ा सब को आज़माने का मौक़ा मिल गया। लेक़िन सब सिखा, पढ़ा धरा का धरा रह गया। जो बदला था उसको गले लगाना था औऱ आगे के सफ़र पर कूच करना था। लेक़िन दिल इधर उधर भटक ही जाता। उस समय मुझे रोज की ये दुकान लगाने वाला वाक्या याद आया। अच्छा नहीं हो हम एक एक कर दिन गुज़ारें औऱ कल की चिंता कल पर छोड़ दें? आज का काम अच्छे से, सच्चे दिल से करें।
वैसे ऐसा सभी कहते हैं लेक़िन हम एक एक दिन जीना भूलकर भविष्य के दिनों में जीने का इंतज़ार करते रहते हैं। उस भविष्य में हम होंगे की नहीं ये हमें नहीं मालूम लेक़िन लालच हमें आज के आनंद से वंचित कर देता है या यूं कहें हम अपने आप को वंचित रखते हैं।
इसे हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री का दुर्भाग्य ही कहेंगे की यहाँ सब घुमाफिरा कर बात करने में उस्ताद हैं। आप किसी से कोई सीधा सा सवाल पूछिये लेक़िन उसका सीधा जवाब नहीं मिलता। इसका दूसरा पहलू ये है की अगर इसी इंडस्ट्री में रहना है तो क्यूँ उनको नाराज़ रखा जाये जो आपको काम दे सकते हैं। मतलब आपके मुँह खोलने से आपका नुक़सान हो तो अच्छा है मुँह बंद रखा जाए। यही बात मीडिया पर भी लागू होती है।
मीडिया इस इंडस्ट्री का एक अभिन्न हिस्सा है। ट्विटर औऱ फ़ेसबुक पर तो हंगामा अब मचना शुरू हुआ है। लेक़िन उसके बाद भी मीडिया का एक बहुत बड़ा रोल है इंडस्ट्री से जुड़े लोगों औऱ दर्शकों के बीच की दूरी ख़त्म तो नहीं लेक़िन कम करने में। औऱ फ़िर सभी लोग ट्विटर और फ़ेसबुक पर भी नहीं हैं।
सुशांत सिंह राजपूत के मामले में जितना जो कुछ ग़लत हो सकता था सब हो गया है, हो रहा है और आगे भी होयेगा। मीडिया बंट गया है, जिसकी उम्मीद थी, लेक़िन इंडस्ट्री भी बंट गयी है, जो किसी भी हाल में नहीं होना चाहिये था। मीडिया, यहाँ मेरा मतलब वो पोस्टमैन से एक्ससीलुसिव बात करने वाले नहीं, बल्कि वो लोग जो इंडस्ट्री को कवर करते रहे हैं, की ख़ामोशी भी शर्मनाक है। इस इंडस्ट्री से जुड़े मीडियाकर्मी अग़र किताबें लिखना शुरू करदें तो पता चले यहाँ क्या नहीं होता है। लेक़िन ऐसा होगा नहीं क्योंकि कोई भी बुरा बनना नहीं चाहता औऱ उनको ये भी पता है जैसे ही उन्होंने कुछ लिखा इंडस्ट्री उनका हुक्का पानी शराब कबाब सब बंद करवा देगी। अब कौन ख़ुद अपने पेट पर लात मारकर ये काम करेगा। इसलिये सब अच्छा ही लिखेंगे।
अग़र इंडस्ट्री के लोग इसको एक परिवार मानते हैं तो आज इनको इनके किसी साथी के साथ कुछ ग़लत हुआ है तो साथ देना चाहिये था। साथ खड़े होने का मतलब ये बिल्कुल नहीं है कि आप उनके विचारों से भी सहमत हों। आपसे किसी आंदोलन को समर्थन देने की उम्मीद नहीं कि जा रही है। आपके विचार अलग हो सकते हैं, आप अलग अलग विचारधारा का समर्थन करते होंगे लेक़िन जिस समय आपको सिर्फ़ साथ देना था, आप पीठ दिखा कर खड़े हो गये। ये भी सही है की ये सबके बस की बात नहीं है और शायद यही हमारा दुर्भाग्य है।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बेबाक़ लोगों में से एक अनुराग कश्यप हैं। मुझे अनुराग की ये बेबाक़ी शुरू से पसंद आई लेक़िन उनकी फिल्मों के बारे में मैं ये नही कह सकता। उनकी बनाई बहुत से फिल्में मैंने नहीं देखी हैं और जो देखी हैं वो कुछ ख़ास पसंद नहीं आईं। उनकी मनमर्ज़ीयाँ का संगीत काफ़ी अच्छा है। लेक़िन फ़िल्म बोरिंग थी।
तो इन्ही अनुराग कश्यप ने सुशांत सिंह के मैनेजर के साथ हुई अपनी चैट सार्वजनिक कर दी। उन्होंने इसके बाद एक और ट्वीट कर बताया क्यों इंडस्ट्री के लोग सुशांत के साथ नहीं है क्योंकि इन लोगों ने सुशांत सिंह के साथ समय बिताया है और वो उनके बारे में जानते हैं।
चलिये अनुराग माना सुशांत में सारे ऐब होंगे जो एक इंसान में हो सकते हैं। लेक़िन वो तब भी आपकी इंडस्ट्री का एक हिस्सा था। आज वो नहीं है तो आप उसकी कमियाँ गिनाने लगे। अरे इंडस्ट्री के अपने साथी के नाते न सही, इंसानियत के नाते ही सही आप साथ देते। इंडस्ट्री के इसी रवैये के चलते ही लोगों के अंदर इतना गुस्सा है।
लेक़िन ये सवाल एक अनुराग कश्यप, एक कंगना रनौत या एक रिया का नहीं है। आप सब उस इंडस्ट्री का हिस्सा हैं जो भारत के एक बहुत बड़े तबके का एकमात्र मनोरंजन का साधन रहा है। लेक़िन आज आप उसके साथ नहीँ हैं जिसके साथ ग़लत हुआ है। रिया की टीशर्ट पर जो लिखा था उसपर तो सबने कुछ न कुछ कह डाला लेक़िन आपकी बिरादरी के एक शख्स पर जब सरकारी तंत्र ने ज़्यादती करी तो सब ख़ामोश रहे। ये दोहरे मापदंड सबको दिख रहे हैं। अगर रिया के साथ जो हो रहा है वो ग़लत है तो जो इंडस्ट्री अपने एक साथी के साथ कर रही है वो सही है? इंडस्ट्री से जुड़े लोगों की ये ख़ामोशी शायद उनकी मजबूरी भी बयाँ करती है। लेक़िन जहाँ से हम, दर्शक और इंडस्ट्री के चाहने वाले देख रहे हैं, ये ख़ामोशी सिर्फ़ एक ही बात कह रही है All is not well.
कहते हैं पालतू जानवर आपके जीवन में बहुत सी परेशानियों को दूर करता है। बचपन से बहुत से परिवारों के पास जानवर देखे थे। लेक़िन उनसे बड़ा डर भी लगता। पिताजी के परिवार में भी एक दो पालतू जानवर रहे घर में। लेक़िन वो सब हम लोगों के जन्म से पहले।
धर्मेंद्र जी की शुरुआत वाली फिल्में बहुत ही बढ़िया थीं। लेक़िन जबसे वो एक्शन हीरो बने और शोले आदि जैसी फिल्में करीं तबसे उन्होनें कुत्तों के ऊपर बड़ी मेहरबानी दिखाई। आज जब ये लिख रहा हूँ तो कुत्ता/ कुत्ते लिखने में थोड़ा सा संकोच सा हो रहा है। उनसे पहले अंग्रेजों ने भारतीय और कुत्तों के आने जाने पर बैन लगा रखा था।
बचपन की यादें
हमारे पहले पड़ोसी के पास भी एक पालतू कुत्ता था लेक़िन उसकी बहुत ज़्यादा कारस्तानी याद नहीं है। उसी घर में कुछ समय बाद जो परिवार रहने आया उसने कुछ वर्षों पश्चात एक जर्मन शेफर्ड को अपने घर का सदस्य बनाया। उसके अलग ही जलवे थे और उसने कोहराम मचा रखा था। मजाल है कोई उनका गेट खोल के अंदर घुस पाये।
फेसबुक या ट्विटर पर आपको अक्सर ऐसे वीडियो देखने को मिल जाते हैं जिनमे पालतू जानवर के कभी मज़ेदार तो कभी बहुत ही प्यारे प्यारे वीडियो देखने को मिल जाते हैं। जैसे पिछले दिनों दो तीन पालतू गाय के वीडियो देखने को मिले जिनमे मालिक ने परेशान होने का नाटक किया और गौ माता ने दूर से देखकर दौड़ लगा दी अपने सेवक को बचाने के लिये। बेज़ुबान जानवर के प्यार का एक और अनोखा उदाहरण है।
बचपने में ही हम एक परिवार के यहाँ एक जन्मदिन मनाने गये थे। उनके पास शायद दो या तीन पालतू कुत्ते थे। लेक़िन वो उनको बिल्कुल अपने बच्चों के जैसे ही रखती। उनके बढ़िया कपड़े भी बनवाये थे। ये सब हमने पहली बार देखा था तो इसलिये बड़ा अजीब सा लगा। लेक़िन अब तो लोग अपने पालतू पशुओं के जन्मदिन भी धूमधाम से मनाते हैं। उसमें उन पशुओं के अन्य पशु दोस्त भी अपने अपने मालिकों के साथ शिरकत करते हैं।
आपका दोस्त
आज पालतू जानवर पर इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि पिछले दिनों सुशांत सिंह राजपूत के पालतू कुत्ते फ़ज के बारे में पढ़ा था की पटना में कैसे वो जब भी दरवाज़े खुलता है तो देखता है इस उम्मीद में की सुशांत वापस आ गये। दूसरा मुझे सुबह सुबह कई लोग दिखते हैं जो अपने पालतू जानवर को घुमाने निकलते हैं और वो सड़क पर घूमने वाले मोहल्ले के कुत्तों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं।
एक अधेड़ उम्र दंपत्ति अपने कुत्ते के साथ जब रहते हैं तो उसकी बड़ी हिफ़ाज़त करते हैं। मोहल्ले के कुत्ते अगर पीछे लग जाएं तो वो ऐसे झिड़कते हैं कि अगर इंसान हो तो वापस न आये। लेक़िन ये जानवर तो बस प्यार की उम्मीद लगाये बैठे रहते हैं। आप उनको थपथपा दीजिये और वो आपके दोस्त बन जाते हैं।
लेक़िन उसी सड़क पर एक कन्या भी अपना जर्मन शेफर्ड घुमाती हैं औऱ वो इन सभी आवारा कुत्तों को प्यार करती है। जैसे ही वो दिखती है, सब उसके आसपास घूमने लगते हैं। हाँ, उस दिन उन्हें निराशा होती है जब कन्या की जगह उसके पिताजी ये ज़िम्मेदारी निभाते हैं।
जिस सोसाइटी में मैं इन दिनों रहता हूँ वहाँ एक पढ़े लिखे परिवार के लोग अपने प्रिय पालतू पशु को सोसाइटी में खुला छोड़ देते और वो जगह जगह अपने आने का प्रमाण छोड़ देता। वो तो जब इसके ऊपर हंगामा हुआ तो ये कार्यक्रम बंद हुआ। वैसे जितने भी लोग सुबह अपने पशु को इसके लिये बाहर निकलते हैं वो सभी सार्वजनिक स्थल पर यही करते हैं। ये सभी पढ़े लिखे लोग हैं लेक़िन उनको इस तरह गंदगी फैलाते हुये दुख ही होता है। हम पढ़े लिखे लोग ही अगर अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सजग रहें तो काफ़ी सारी समस्याओं से निजात पा सकते हैं।
जब विदेश जाने का मौक़ा मिला तो देखा वहाँ आप अपने पालतू जानवर को लेकर कहीं भी जा सकते हैं। मॉल में, ट्रैन में, मेट्रो में बग़ैर किसी रोकटोक के। हाँ साफसफाई की ज़िम्मेदारी मालिकों की है तो किसी को क्या तकलीफ़ हो सकती है। ब्रिटेन जाने का मौक़ा नहीं मिला तो पता नहीं वहाँ क्या स्थिति है क्योंकि उन्हें भारतीयों और कुत्तों से बहुत परेशानी थी। अब शायद दोनो से प्यार हो गया हो।
और फ़िर एक दिन…
जैसा मैंने बताया, हमारे घर में ऐसा कोई पालतू पशु नहीं था लेक़िन बड़ी इच्छा थी। भोपाल में मेरे मित्र विनोद ने एक दिन फ़ोन करके बोला वो दो बच्चे लाये हैं और मैं एक को ले जाऊं। मुझे उनके घर से अपने घर की यात्रा याद नहीं, लेक़िन उसके आने के बाद माताजी ने खूब ख़ातिर करी हमारी। उन्होंने बोल दिया अगर पालना है उसके सब काम करने को भी तैयार रहो। घर में बाकी लोग भी इसके पक्ष में नहीं थे। शाम तक होते होते एक रिश्तेदार को बुलाया गया औऱ उसको उनके सुपुर्द कर दिया गया।
ये कुत्तों के डर का एक और मज़ेदार किस्सा है। जिस कॉलोनी में हम रहते हैं वहाँ एक दो घरों में पालतू कुत्ते हैं और अक्सर बच्चों की बॉल अगर बाहर चली जाती है तो वो मुँह में दबाकर भाग जाते हैं।
ख़ैर उस शाम गेंद का कुछ लेना देना नहीं था। जिसकी इन दिनों सबसे ज़्यादा पूछपरख है – जी वही कामवाली। उस दिन शायद उसने दर्शन नहीं दिये थे तो पूछने के लिये एक तीन सदस्यीय मंडल ने भेंट करने का कार्यक्रम बनाया। सब कुछ व्यवस्थित चल रहा था की अचानक से गेट खुला और घर से कुत्तों ने बाहर दौड़ लगा दी। उसके बाद दौड़ लग गयी, लोग गिर पड़े और उन पालतू जानवरों की मलकिन ने किसी तरह सब संभाला। हाँ इस सब में वो किसी के हाथ पर चढ़ गयीं।
जब कुत्तों ने आज़ादी की दौड़ लगाई तो दल के दो सदस्यों ने भी मदद की पुकार लगाई। जिसके चलते हमारे घर से कुछ सदस्यों ने ये सारा दृश्य लाइव देखा था। अच्छा वो जो दो प्यारे बेज़ुबान प्राणी कौन थे? एक था पग जो आपको काट नहीं सकता और दूसरा जो शायद काट सकता था लेक़िन काटा नहीं।
सबक़
हमारे पत्रकारिता में कहा जाता है कुत्ते ने आदमी को काटा ये कोई न्यूज़ नहीं है। हाँ आदमी ने कुत्ते को काटा ये समाचार है। दिल्ली पहुंचने के कुछ दिनों बाद इसका नमूना भी मिल गया। नहीं किसी ने किसी को नहीं काटा, लेक़िन कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके सीताराम केसरी के निधन के बाद उनकी पालतू पशु रुचि ने भी प्राण त्याग दिये थे। जब ये ख़बर ये फ़ाइल हो रही थी तो मुझे नहीं पता था अगले दिन ये हर अख़बार में होगी। लेक़िन मुझे अभी बहुत कुछ सीखना बाक़ी था, है।
अभिनेता आमिर ख़ान ने भी एक विवादास्पद बयान दिया था कुछ वर्षों पहले जब उन्होंने कहा था शाहरुख उनके पैरों में बैठा है। लेक़िन बाद में उन्होंने बताया की शाहरुख उनके पंचगनी के नए बंगले के मालिक के कुत्ते का नाम है।
अग़र आपके पास कोई पालतू जानवर है तो अपने अनुभव बतायें और कैसे उसके आने से आपके जीवन में बदलाव आया। ख़ुश रहें।
अब जैसा होता आया है, आज कुछ और लिखने का मन था लेक़िन जो लिखा जा रहा है वो कुछ और है। ये मौसम का जादू है कहता लेक़िन ऐसा नहीं है। अब हर चीज़ का ठीकरा मौसम के ऊपर फोड़ना भी ठीक नहीं है।
फ़िल्में देखना और उनके बारे में लिखना (बिना लीपा पोती के) शायद इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। लेक़िन अब फिल्में बड़ी स्क्रीन से छोटी स्क्रीन पर आ गयी हैं तो वो मज़ा भी नहीं आता और शायद कुछ खास अच्छी फिल्में पिछले महीनों में देखने को मिली भी नहीं हैं। रही बात लिखने की तो उसका स्क्रीन से कोई लेना देना नहीं है।
आज गुंजन सक्सेना – द कारगिल गर्ल देखने का मन बना ही लिया। वैसे फ़िल्म की रिलीज़ वाले दिन नेटफ्लिक्स या प्राइम पर देखने का ये पहला मौका था। शाम को शायद फ़ुर्सत भी थी तो फ़िल्म लगा दी। इस फ़िल्म से वैसे मुझे कोई उम्मीद नहीं थी। नेपोटिस्म की जो बहस चल रही है उससे इसका कोई लेना देना नहीं है।
क्या है
फ़िल्म एक वायु सेना की अफ़सर की असल जिंदगी पर बनी है। इन दिनों सबको जैसे ऐसे किरदारों की तलाश रहती है। पुरुष किरदारों के ऊपर तो ऐसी कई फिल्में बनी हैं लेक़िन महिला किरदार का नंबर अब लगना शुरू हुआ है। शकुंतला देवी के बाद गुंजन सक्सेना। इससे पहले भी बनी हैं लेक़िन अब तो जैसे बायोपिक का मौसम है। यहाँ मौसम को दोष दिया जा सकता है।
वैसे अच्छा हुआ निर्माता करण जौहर ने फ़िल्म को सिनेमा हॉल में रिलीज़ करने का प्लान त्याग दिया औऱ नेटफ्लिक्स को अपनी लाइब्रेरी सौंप दी है। ये जो असली ज़िन्दगी के किरदार होते हैं ये या तो आपको प्रेरणा देते हैं या आप उनके जीवन से कुछ सीखते हैं, उनके बारे में कुछ नया जानते हैं। चूँकि आपको उस क़िरदार के बारे में सब मालूम है तो देखना ये रहता है क्या और कैसे दिखाया जायेगा।
गाँधी फ़िल्म इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। फ़िल्म गाँधीजी के बारे में थी, बहुत सी बातें हमने पढ़ी हुई थीं। लेक़िन आज भी इस फ़िल्म को मैं देख सकता हूँ। धोनी भी एक बहुत अच्छी फ़िल्म बनी थी। इसका बहुत बड़ा श्रेय सुशांत सिंह राजपूत को जाता है जिन्होंने किरदार में जान फूंक दी थी।
अब ये कारगिल से गाँधी मतलब फ़िर से घोड़ा चतुर, घोड़ा चतुर।
गुंजन सक्सेना भारतीय वायुसेना की पहली महिला अफ़सर थीं। उनका एक संघर्ष रहा अफ़सर बनने से पहले और बाद भी। हालाँकि वायुसेना ने अपनी नकारात्मक चर्चा पर आपत्ति जताई है। उनके अनुसार महिला अफसर के साथ ऐसा सलूक बिल्कुल नहीं होता जैसा फ़िल्म में दिखाया गया है। अगर ऐसी बात है तो उन्होंने फ़िल्म के रिलीज़ होने का इंतज़ार क्यूँ किया ये समझ से परे है।फ़िल्म के ट्रेलर से ही ये समझ में आ गया था की वायुसेना के गुणगान नहीं होने वाले हैं।गुंजन सक्सेना के बारे में एक और ख़ास बात थी कारगिल युद्ध में उनका भाग लेना। ये वाला भाग बहुत अच्छा बन सकता था। लेक़िन ये बहुत ही कमज़ोर था। शायद कलाकारों के चलते।
अभिनय
शायद फ़िल्म की कहानी सुनने में अच्छी लगती हो लेक़िन बनते बनते वो कुछ और ही बन गयी। स्क्रिप्ट पर निश्चित रूप से कुछ और काम करने की ज़रूरत दिखी। लेक़िन अगर स्क्रिप्ट अगर यही रख भी लेते तो फ़िल्म के मुख्य कलाकार ने बहुत निराश किया। जहान्वी कपूर की ये तीसरी फ़िल्म है। मैंने उनकी ये पहली पूरी फ़िल्म देखी है। उनके अभिनय में वो दम नहीं दिखा जो इस तरह के क़िरदार के लिये ज़रूरी है। कहने वाले कहेंगे अभी वो नईं हैं इसलिये जल्दी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना नहीं चाहिये। तो कितनी फिल्मों तक उनको ये छूट मिलनी चाहिये?
पंकज त्रिपाठी जी का मैं ख़ुद एक बहुत बड़ा फैन रहा हूँ। लेक़िन गुंजन सक्सेना के पिता के रूप में वो जँचे नहीं। वो एक पिता के रूप में बहुत बढ़िया हैं लेक़िन वो एक फ़ौजी पिता हैं और फौजी पिता का क़िरदार असल ज़िन्दगी में थोड़ा अलग तो होता। लेक़िन उनको देखकर लगा वो वही बरेली की बर्फी वाले पिता थे जिनका घर बदल दिया और पौशाक भी।
अगर आदिल हुसैन साहब ये क़िरदार निभाते तो शायद और बेहतर होता। जहान्वी के क़िरदार के लिये सान्या मल्होत्रा या फ़ातिमा सना शेख़ भी अच्छे विकल्प हो सकते थे। इनके अलावा भी कई और नाम हैं लेक़िन इनकी हालिया फ़िल्म के चलते नाम याद रहा। लेक़िन करण जौहर तो जहान्वी को ही लेते। तो इसपर माथापच्ची करने का कोई मतलब नहीं है।
क्या करें
कभी कभार आपके पास जो चाय का प्याला या खाने की थाली आती है जो बस ठीक होती है। अच्छी से बहुत कम और बहुत अच्छी से कोसों दूर। गुँजन सक्सेना फ़िल्म भी कुछ ऐसी ही है। बुरी नहीं है तो अच्छी भी नहीं है। अब ये फ़ैसला आपके ऊपर है की आप अच्छी चाय का इंतज़ार करने को तैयार हैं या सामने जो प्याला है उसको ही नाक मुँह बनाते हुये पीना पसंद करेंगे।
2007 की बात है। अक्टूबर का महीना रहा होगा। वैसे तो शाम को ऑफिस 6 या 6.30 बजे तक छूट जाता था लेक़िन घर पहुँचते पहुँचते 8.30 बज ही जाते थे। उस शाम मैंने जल्दी निकलने की बात करी बॉस से। मेरे पीटीआई के पुराने सहयोगी जो उस संस्था में पहले से कार्यरत थे उन्हें समझ नहीं आया ऐसा मैं क्यों जल्दी जा रहा था। उन्होनें पूछा तो मैंने बताया की आज करवा चौथ है इसलिये जल्दी जाना है। उन्होनें ख़ूब हँसी भी उड़ाई लेक़िन उससे मुझे कोई शिकायत नहीं थी।
आज इस घटना का उल्लेख इसलिये कर रहा हूँ क्योंकि आज हरछठ त्यौहार है। वैसे तो हमारे यहाँ त्योहारों की कोई कमी नहीं है औऱ सावन मास ख़त्म होते ही इनकी शुरुआत हो जाती है। लेक़िन हरछठ या सकट चौथ या करवा चौथ जैसे त्योहारों से मुझे घोर आपत्ति है। क्योंकि बाकी का तो नहीं पता लेक़िन ये तीन त्यौहार सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरुषों (बेटों/पतियों) के लिये किये जाते हैं। पहले दो माँ अपने बेटों के लिये करती हैं औऱ आख़िरी वाला पत्नी अपने पत्नियों के लिये।
आप ये बात समझिये की हम एक बहुत ही छोटी उम्र से अपने बच्चों में ये भेदभाव शुरू कर देते हैं। ये बेटे और बेटियों के बीच का भेदभाव। लड़का दुनिया में आता नहीं की माँयें उसके लिये उपवास रखना शुरू कर देतीं हैं। विवाह ऊपरांत पत्नी भी माँ के साथ इस कार्य में जुट जाती है। हमारी बेटियाँ शुरू से ये देख कर ही बड़ी हो रहीं हैं। जब घर पर ही एक बेटी और बेटे के बीच फ़र्क़ दिखेगा तो कैसे दोनो बच्चे अपने आप को समान समझेंगे?
दुख की बात ये है की हमारे समाज के पढ़े लिखे लोग भी इन सब बातों को मानते हैं। एक बेटे की लालसा में लोग न जाने क्या क्या करते हैं लेक़िन वो बेटा नालायक निकल जाये तब भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। बस बेटा होना चाहिये। अगर किसी की दो या तीन बेटियाँ हो जायें तो उसका मज़ाक बनाया जाता है। जिनके बेटे होते हैं वो सीना चौड़ा करके चलते हैं और उन लोगों पर ताना मारते हैं जिनकी बेटीयाँ होती हैं। ये सब उस सोच का नतीजा है जो लड़का और लड़की में भेदभाव करती है। महाभारत क्या है? अगर धृतराष्ट्र अपना पुत्र मोह त्याग देते तो संभवतः महाभारत ही नहीं होती।
फ़िल्म दंगल हमारे समाज को आईना दिखाने का काम करती है। महावीर सिंह फोगाट ने बेटे की चाह में चार बेटीयाँ को इस दुनिया में लाया। क्यूँ? क्योंकि उनकी चाहत थी की उनका बेटा हो और वो कुश्ती में स्वर्ण पदक जीते। उनके इस पदक की चाहत उनकी बेटी ने ही पूरी की। लेक़िन आज भी ऐसे परिवार हैं जो एक बेटे की चाहत में लड़कियों की लाइन लगा देते हैं। उनको समाज में अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिये एक बेटे की सख़्त ज़रूरत महसूस करवाई जाती है। दंगल में ही देख लें जब तीसरी बेटी पैदा होती है तो गाँव के बड़े बुज़ुर्ग सांत्वना देते हैं।
अगर बेटों के लिये न होकर ये सन्तान के लिये किया जाने वाला व्रत होता तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होती। लेक़िन ऐसा नहीं है। फ़ेसबुक पर एक आज सज्जन बोल गये की उनकी माँ ये उपवास करती थीं लेक़िन उनकी पत्नी नहीं करती। लेक़िन उनकी बेटियाँ ये व्रत ज़रूर रखती हैं। उन्होंने शायद ध्यान नहीं दिया होगा की उन्होंने अनजाने में ही सही लेक़िन अपने पत्नी के इस व्रत को न रखने की वजह भी बता दी।
हमारे यहाँ बेटियों को देवी कहा जाता है। उनकी पूजा होती है। लेक़िन पूछ परख सिर्फ़ बेटों की। कौन सा ऐसा व्रत है जो बेटियों के लिये रखा जाता है? वो बेटी, बहु, पत्नी जो वंश को आगे बढ़ाने का काम करती है उसको हम समाज के पुरुष क्या देते हैं?
और दूसरी बात जिससे मुझे आपत्ति है वो बेटी को बेटा बनाने की ज़िद। क्या आप कभी अपने बेटे को बेटी कहते हैं? नहीं? तो फ़िर बेटी को बेटा बनाने पर क्यों तूल जाते हैं? क्यों बेटी के दिमाग में ये बात डालते हैं की आपको एक बेटे की ज़रूरत थी लेक़िन वो नहीं है तो अब तुम्हे उसका रोल भी निभाना पड़ेगा। अलबत्ता अगर आपका बेटा कुछ बेटीयों जैसा व्यवहार करने लगे तो आप तो उसकी क्लास लगा दें।
मेरी माँ ने इस बेटों के व्रत की प्रथा को अपने परिवार के लिये ही सही लेक़िन बदला। उन्होनें ये पहले ही बोल दिया ये दोनों व्रत बच्चों के लिये रखे जायें न की सिर्फ़ पुत्रों के लिये। ये एक बहुत बड़ा बदलाव था लेक़िन क्या बाकी लोग ऐसी सोच रखते हैं? मैं दावे के साथ कह सकता हूँ की बहुत कम ऐसे परिवार होंगे जो पुत्रियों के लिये इस व्रत को रखने की आज्ञा भी देंगे। हम अपने रूढ़िवादी विचारों में इतने जकड़े हुये हैं की \”लोग क्या कहेंगे\”, \”समाज क्या कहेगा\” इस डर से जो सही है वो करने से भी डरते हैं।
और ये एक तरफा चलने वाला ट्रैफिक क्यूँ है? संतान माता पिता की लंबी आयु, उनके स्वस्थ रहने के लिये क्यों कोई व्रत उपवास नहीं रखते? माँ 70 साल की भी हो जाये तब भी अपने 40 से ज़्यादा उम्र के बेटे के लिये ये व्रत रखती है। ये कहाँ तक उचित है? करवा चौथ अगर पति के लिये रखा जाता है तो उस पत्नी के लिये पति उपवास क्यों न रखे जो परिवार का ध्यान रखती है और हमेशा उनकी सेवा में लगी रहती है।
जब उस 2007 की शाम में जल्दी घर आने का प्रयास कर रहा था तो उसका मक़सद अपने को भगवान बना कर पूजा करवाना नहीं था। मैं तो सिर्फ़ काम में हाँथ बटाना चाहता था क्योंकि श्रीमती जी उपवास तो रखेंगी और सारे पकवान भी बनायेंगी। लेक़िन दिनभर निर्जला रहकर शाम को इन पकवानों का स्वाद आता है? इस बार रहकर देख लीजिये।
पिछले कई दिनों से फ़ेसबुक पर प्रेमचंद जी के बारे में कुछ न कुछ पढ़ने को मिल रहा था। तब ये नहीं पता था की उनकी जयंती है 31 जुलाई को। उनके जन्मस्थान के बारे में तो रट ही चुके थे स्कूल में लेक़िन बाक़ी जानकारी याद नहीं रही।
उनके बारे में ये नहीं पता था की वो मुम्बई भी आये थे। ये तो फेसबुक पर उनका पत्नी को लिखा पत्र किसी ने शेयर किया जिससे ये पता चला की वो लगभग तीन वर्ष मायानगरी में रहे। उनकी लिखी कहानियों पर फ़िल्म तो बनी हैं लेक़िन उन्होंने स्वयं किसी फ़िल्म की कहानी, संवाद या पटकथा लिखी इसका मुझे ज़रा भी ज्ञान नहीं।
उनके मुम्बई से लिखे पत्र पढ़कर मुझे अपने मुम्बई के दिन याद आ गए। जब साल 2000 में मेरा मुंबई तबादला हुआ तो कई मायने में ये एक सपने के सच होने जैसा था। इससे पहले मुम्बई आना हुआ था लेक़िन उस समय छात्र थे तो उसी तरह से देखा था। अब मैं एक नौकरीपेशा युवक था जिसकी ये कर्मभूमि बनने जा रही थी।
प्रेमचंद जी जब बम्बई आये थे तब वो शादीशुदा थे और पिता भी बन चुके थे। मेरे जीवन में इस अवस्था के आने में अभी वक़्त था। हाँ उनके जैसे परिवार की कमी मुझे भी खलती थी लेक़िन नौकरी भी थी। इसलिये जब भी घर की याद आती, भारतीय रेल ज़िंदाबाद। शायद ही कोई महीना निकलता जब भोपाल जाना नहीं होता। इसके लिये मेरे सहयोगियों ने बहुत मज़ाक भी उड़ाया लेक़िन घर के लिये सब मंज़ूर था।
इन्हीं शुरुआती दिनों में पहले मेरे उस समय के मित्र सलिल का आना हुआ और बाद में माता पिता और छोटी बहन भी आये। जिस समय मेरा तबादला हुआ उसी समय मेरी बुआ भी मुम्बई में रहने के लिये आयीं थीं तो कभी कभार उनके पास भी जाने का मौक़ा मिल जाता। कुल मिलाकर घर को इतना ज़्यादा याद नहीं किया। अकेले रहने का मतलब बाकी सभी काम का भी ध्यान रखना होता।
इसलिये जब प्रेमचंद जी ने लिखा की \”लगता है सब छोड़ कर घर वापस आ जाऊं\”, तो ये बात कहीं छू गयी। मुम्बई अगर बहुत कुछ देती है तो थोड़ा कुछ छीन भी लेती है। अब ये आप पर निर्भर करता है आप क्या खोकर क्या पाना चाहते हैं और क्या आप वो क़ीमत देने को तैयार हैं।
अमूमन जैसा लेखकों के बारे में पढ़ा है की वो लिखते समय एकांत पसंद करते हैं, उसके विपरीत प्रेमचंद जी का घर के प्रति, परिवार के सदस्यों के प्रति इतना लगाव कुछ समझ नहीं आया। इसलिये जब उनके जीवन से संबंधित और जानकारी पढ़ी तो पता चला कैसे बाल अवस्था में पहले अपनी माँ और उसके बाद अपनी दादी के निधन के बाद प्रेमचंद अकेले हो गये थे। शायद इसके चलते जब उनका परिवार हुआ तो उसकी कमी उन्हें बहुत ज़्यादा खली।
इसी दिशा में गूगल के ज़रिये पता चला की उनके पुत्र ने अपने पिता के ऊपर एक पुस्तक लिखी है और उनकी पत्नी ने भी। पुत्र अमृत राय ने \”प्रेमचंद – कलम का सिपाही\” लिखी और इसके लिये उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा भी गया। उनकी पत्नी शिवरानी देवी ने \”प्रेमचंद घर में\” शीर्षक से किताब लिखी जो प्रेमचंद की मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई।
मेरी पढ़ने की लिस्ट में फिलहाल ये दोनों किताबें सबसे ऊपर हैं। प्रेमचंद की लिखी कौन सी क़िताब आपको बेहद पसंद है जिसे ज़रूर पढ़ना चाहिये? आप जवाब कमेंट कर बता सकते हैं।
किताबों का अपना एक जादू होता है। ये लेखक की ख़ूबी ही रहती है की वो शब्दों का ऐसा ताना बाना बुनते हैं की आप बस पन्ने पलटते रह जाते हैं किरदारों की दुनिया में खोये हुये। आपने ऐसी कई किताबें ज़रूर पढ़ी होंगी जिनकी कहानी, क़िरदार आप पर गहरी छाप छोड़ते हैं।
मेरी शुरुआती किताबें अंग्रेज़ी की रहीं। जब थोड़े बड़े हुये तो हिंदी साहित्य की समझ आना शुरू हुआ। दादाजी कर्नल रंजीत की किताबें पढ़ा करते थे। नाम इसलिये याद है क्योंकि उन्हीं के साथ लाइब्रेरी जाना होता और वो क़िताब बदल कर लाते। हमें इसके लिये एक टॉफ़ी मिला करती थी। मुझे याद नहीं मैंने कर्नल रंजीत पढ़ी हो और आज जब लिख रहा हूँ तो उन किताबों के कवर याद आ रहे हैं।
हिंदी के महान लेखक स्कूल में पढ़ाये जाते थे। लेक़िन वो बहुत ही अजीब सी पढाई होती थी। मतलब लेखक की जीवनी याद करो औऱ उनकी कुछ प्रमुख कृतियों के नाम याद करो। किसी भी विषय को पढ़ाने का एक तरीक़ा होता है। जब आप साहित्य या किसी कहानी पढ़ रहे हों तो उसको भी ऐसे ही पढ़ना जैसे किसी समाचार को पढ़ रहे हों तो ये तो लेखक के साथ ज़्यादती है।
उदाहरण के लिये आप मजरूह सुल्तानपुरी साहब का लिखा हुआ माई री और इस पीढ़ी के बादशाह का तेरी मम्मी की जय दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है। अब जिन्होनें पहले वाले को नहीं सुना हो और दूसरे को ही सुना हो तो उनको फ़र्क़ समझ नहीं आयेगा। लेक़िन जो दोनों को जानते हैं उन्हें शायद मजरूह के शब्दों की गहराई समझ आयेगी।
स्कूली दिनों में हिंदी साहित्य की ये गहराई तो समझने का अवसर भी नहीं मिला और न ऐसे शिक्षक जो अपने इस ज्ञान को साझा करने के इछुक हों। अभी भी बहुत ज़्यादा समझ नहीं आयी लेक़िन कोई कभी क़िताब बता देता है या ज़्यादा मेहरबान रहा तो किताब ही दे देता है। तो बस ऐसे ही पढ़ते रहते हैं।
मेरा पास बहुत दिनों तक अमृता प्रीतम जी की रसीदी टिकट रखी थी जो मेरी मित्र ने मुझे दी थी। एक दिन ऐसे ही उठा कर पढ़नी शुरू करदी। उसके बाद उनकी और किताबें पढ़ने की इच्छा हुई। लेक़िन बात कुछ आगे बढ़ी नहीं। ऐसे ही प्रेमचंद जी की आप बीती भी इस लिस्ट में शामिल है। जितनी सरल भाषा में और जितनी गहरी बात वो कह जाते हैं वैसे कम ही लोग लिख पाते हैं।
शायद ये भाषा की सरलता ही है जो किसी लेखक और पाठक के बीच की दूरी कम कर देती हैं। मैंने ऐसी क्लिष्ट हिंदी अभी तक नहीं पढ़ी है। हाँ ऐसी किताबें ज़रूर पढ़ी हैं जो लगता है किसी प्रयोग के इरादे से लिखी गयी हों। कुछ समझ में आती हैं कुछ बाउंसर।
अंग्रेज़ी में मैंने अरुंधति रॉय की बुकर पुरस्कार से सम्मानित \’गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स\’ को मैं कई प्रयासों के बाद भी नहीं पढ़ पाया। किताब पढ़ना मानो माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने जैसा था। हारकर क़िताब को उसकी जगह रख दी औऱ तबसे वो वहीं शोभा बढ़ा रही है।
लेखक शब्दों के जादूगर होते हैं इसका एक और उदाहरण पढ़ने को मिला उषा प्रियंवदा जी की लिखी \’पचपन खंबे लाल दीवारें\’ में पढ़ने को मिलता है। जब वो लिखती हैं कि सर्दी की धूप परदों से छनकर आ रही थी तो आप सचमुच सुषमा और नील को कमरे में बैठे हुये देख सकते हैं औऱ धूप उनके बदन को छू रही है।
कई बार ये किताबों की बनाई दुनिया असल दुनिया से अपनी कमियों के बावजूद, कहीं बेहतर लगती है। उसके पात्र जाने पहचाने से लगते हैं – जैसे हैरी पॉटर। क़माल के होते हैं ये लेखक।
पिताजी गाड़ी में जब काम करवाने जाते तो सुबह से निकल जाते और शाम होने पर लौटते। वो गाड़ी मरम्मत के लिये छोडने के सख़्त ख़िलाफ़ थे। उन दिनों आज की जैसी सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी की फ़ोन कर दिया औऱ घर पर कोई गाड़ी लेने आ जायेगा। अगर होती भी तब भी इसकी संभावना कम ही होती।
लेक़िन ये सिर्फ़ गाड़ियों के साथ ही नहीं था। अगर कोई बिजली का काम करने आया है तो उसके पास खड़े रहो और उसको किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो वो देना। मतलब अग़र कोई काम हो रहा है तो आप उसको देखें। हम लोग पिताजी से हमेशा इस बात पर बहस करते की आपको काम करनेवालों से कुछ ज़्यादा ही लगाव है। आम बोलचाल में \’चाय पानी\’ के पैसे पिताजी ने नहीं दिये लेक़िन उनको चाय-नाश्ता करवाते। उस समय हम मुँह बनाते लेक़िन आज लगता है उन कामकरने वालों को इज़्ज़त देना ऐसे ही सीखा।
आज इनका ज़िक्र इसलिये क्योंकि पिछले दिनों घर पर कुछ मरम्मत का काम करने के लिये कोई आया। आदत से मजबूर मैं उसके पास ही खड़े होकर उसका काम करता देख रहा था। लेक़िन शायद उस बंदे के साथ ऐसा नहीं होता था। मतलब शहरों में जैसे होता है कि जब कोई ऐसे काम के लिये आता है तो उसको क्या ठीक करना है वो बता कर उसको काम करने दिया जाता है और आप अपने मोबाइल पर वापस एक्शन में।
जो शख़्स काम करने आया था वो बार बार पीछे मुड़कर देखता की क्या मैं वहीं खड़ा हूँ। पहले तो मुझे भी ठीक नहीं लगा औऱ एक बार ख़्याल आया कि मैं भी मोबाइल पर अपनी व्यस्तता दिखाऊँ। लेक़िन वहीं खड़ा रहा। शायद उस काम करनेवाले शख़्स को भी अंदाज़ा हो गया था क्योंकि उसके बाद वो अपने काम में मसरूफ़ हो गया।
वापस गाड़ी पर आते हैं। जब गाड़ी बदली तो लगा पिताजी का ये गैरेज पर दिन भर बिताना बंद हो जायेगा। अब तो कंपनी वाले स्वयं फ़ोन करते हैं और पूछ भी लेते हैं कि गाड़ी लेने किसी को भेजें। लेक़िन पिताजी को अपने सामने गाड़ी ठीक होते हुये देखना अच्छा लगता है। तो वो अपने सामने ही काम कराते। इसका उन्होंने एक दूसरा तोड़ भी निकाल लिया औऱ वर्कशॉप के एक मैकेनिक से बातों बातों में पूछ लिया अगर वो घर पर गाड़ी ठीक करेगा।
अब जब भी घर पर ठीक करने लायक कोई ख़राबी होती तो उसको फ़ोन करते और वो अपनी सहूलियत से आकर काम करते। जब मैंने जीवन की पहली गाड़ी ख़रीदी और उसकी सर्विसिंग करवाने गया तो मुझे याद आया काली कार की मरम्मत के वो दिन और वो दिन भर बैठे रहना औऱ इंतज़ार करना।
उन दिनों सबके पास लैंडलाइन फोन भी नहीं होते थे तो पहले से अपॉइंटमेंट लेने जैसा कोई कार्यक्रम नहीं होता। आप कब आने वाले हैं ये आप दुकान पर जाकर बताते और अग़र कोई और गाड़ी नहीं होती तो आपकी बुकिंग कन्फर्म होती। मैने ज़्यादा तो नहीं लेक़िन 4-5 बार पिताजी के साथ इस काम में साथ दिया। गाड़ी ठीक करने वाले भी सब एकदम तसल्ली से काम करते। कहीं कोई दौड़ाभागी नहीं। आज तो जिधर देखिये सब अति व्यस्त दिखते हैं।
हमारे यहाँ बच्चे अगर पढ़ाई में अच्छे नंबर नहीं लाता है तो उसको क्या ताना देते हैं? अच्छे से पढ़ो नहीं तो मेकैनिक का काम करने को भी नहीं मिलेगा। वैसे तो सब कहते रहते हैं कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। लेक़िन छोटे छोटे शब्दों में नीचे लिखा रहता है नियम व शर्तें लागू। हम ये सब काम, मतलब जिनके लिये हम एक फ़ोन करते हैं औऱ बंदा हाज़िर, उनको हम ज़रा भी इज़्ज़त नहीं देते। लेक़िन विदेश में यही काम करवाने के लिये एक मोटी रक़म ख़र्च करनी पड़ती है। इसलिये आपने देखा होगा वो अपने घर की पुताई भी स्वयं करते हैं औऱ बाक़ी अन्य काम भी।
लॉक डाउन में अगर लॉक डाउन हटने के बाद सबसे ज़्यादा इंतज़ार हो रहा है तो वो है कामवाली बाई के लौटने का। जबतक मैं व्हाट्सएप पर था तो लगभग सभी ग्रुप में इस पर या तो चर्चा चल रही होती या इसपर कुछ हल्का फुल्का हँसी मज़ाक चलता रहता। लॉक डाउन की शुरुआत वाला वो वीडियो शायद सबने देखा होगा जिसमें एक गृहणी कार में अपने यहाँ काम करनेवाली महिला को लेकर आती है औऱ उनकी इस पर उस सोसाइटी की सिक्युरिटी और बाकी लोगों से गर्मागर्म बहस हो जाती है। आज भी सब एक दूसरे से यही पूछ रहे हैं कि घर कब आओगे।
गाड़ी से बाई और बाई से वापस गाड़ी ऐसा ही लगता है जैसे फ़िल्म पड़ोसन में एक चतुरनार बड़ी होशियार में मेहमूद जी बोलते हैं ये फ़िर गड़बड़ किया, ये फ़िर भटकाया। तो वापस विषय पर। अब जो गाड़ियाँ ठीक होती हैं तो आपको नहीं पता होता कौन इसको देख रहा है। एक सुपरवाइजर आपको समय समय पर संदेश भेजता रहता है और जब काम ख़त्म तो आप गाड़ी ले जाइये। कई बार तो ऐसा भी हुआ की एक सर्विस से दूसरी सर्विस के बीच में नंबर वही रहता लेक़िन सुपरवाइजर बदल जाते। वो ठीक करने वाले के साथ चाय पीने का मौसम अब नहीं रहा।
सुनी होगी। जब लॉक डाउन शुरू हुआ था तब सभी के लिये ये एक नई बात थी। शायद कर्फ्यू देखा हुआ था तो इसका अंदाज़ा था ये क्या होता है। लेक़िन कर्फ्यू बहुत कम पूरे शहर में रहता। वो तो उसी इलाक़े तक सीमित रहता जहाँ कुछ गड़बड़ हो। लेक़िन बाक़ी जगहों पर सब ठीक ठाक रहता।
नया प्यार
क्या आपको कभी किसी से मोहबत हुई है? याद है वो शुरुआती दौर जब बात बस शुरू होती है और आपको उस समय हर नखरा उठाने में भी इश्क़ ही नज़र आता है।
लॉक डाउन उस लिहाज़ से कुछ ऐसा ही अनुभव रहा। सभी चीजें बंद। न कहीं आना न कहीं जाना। सबके लिये मोबाइल फोन जैसे एक जीवन रक्षक घोल की तरह बन गया। बीते चार महीनों में इतने सारे वीडियो कॉल किये औऱ आये हैं जिनका की कोई हिसाब नहीं (वैसे हिसाब मिल सकता है अग़र आप समय दें तो)। उसके बाद शुरू हुआ ज़ूम का दौर। इसकी शुरुआत हुई स्कूल की क्लास से लेक़िन जब पता चला इस एप्प के चीनी होने का तो धीरे धीरे सबने दूसरे इस तरह के प्लेटफॉर्म को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
इसके बाद शुरू हुआ ज़ूम जैसी नई एप्प की तलाश औऱ एक दो एप्प ने ज़ोर आज़माइश भी करी लेक़िन बात कुछ बनी नहीं। हमारी जुगाड़, जो अब जग प्रसिद्ध है, कुछ क़माल नहीं कर पाई। बड़ा आश्चर्य होता है की हमारे यहाँ कहने को तो बड़ा टैलेंट है, IT में बहुत ही बढ़िया कंपनी हैं लेक़िन न तो हम ज़ूम की टक्कर की कोई एप्प दे पाये न ही हमारे डिजिटल इंडिया के नारे का कोई बड़ा करिश्मा दिखा। हाँ जिओ ने खूब पैसे बटोरे लेक़िन इसका फ़ायदा पहुँचने में अभी वक़्त लगेगा और क्या वो जियो के ग्राहकों के अलावा बाकियों के लिये भी होगी ये आनेवाला वक़्त ही बतायेगा।
इस विषय पर पहले भी लिखा है लेक़िन आज फिर से क्योंकि एक बहुत ही दुखद ट्वीट देखा जिसमें एक आदमी स्ट्रेचर पर पड़ी एक औरत की लाश में जान डालने की कोशिश कर रहा है। ऐसे न जाने कितने वाकये सुने जिसमें लॉक डाउन के चलते लोगों ने क्या क्या नहीं झेला है।
इतने महीनों के बाद भी हमारे पास न तो ऐसी कोई एप्प है न कोई वेबसाइट जो कोरोना के मरीजों के डेटा को पारदर्शी तरीके से दिखाये। जिस जगह मैं रहता हूँ वहाँ के नगर निगम ने अभी पिछले 15 दिनों से अपनी कोरोना वायरस की अपनी प्रेस रिलीज़ को ठीक ठाक किया है। नहीं तो पहले खिचड़ी बनी आती थी।
जैसा मैंने कल अपना ऑनलाइन शॉपिंग का अनुभव बताया था, बहुत सी कंपनी तो अभी भी वही पुराने तरीक़े से आर्डर ले रहीं हैं (फ़ोन करिये और एक एक आइटम के बारे में पूछिये)। इन महीनों में क्या हमारे डिजिटल इंडिया के सौजन्य से कुछ ऐसा बनकर आया जिसे देखकर आपको लगे क्या एप्प है? उल्टा ऐसी कई वेबसाइट/ एप्प की कलई खुल गई जो अपनी सर्विसेज का दम्भ भरती थीं।
हम और हमारे नेता बस बातों के लिये अच्छे हैं। जितने बड़े नेता, उतने बड़े और खोटे बोल। लॉक डाउन शुरू होने के कुछ दिन बाद अपने एक पुराने सहयोगी से बात हुई तो उन्होंने बताया था गावों में इसको कोई नहीं मान रहा है औऱ न भविष्य में ऐसा कुछ होने की संभावना है। आज जब गावों से नये केस थोक के भाव में आ रहे हैं तो उनकी प्रतिक्रिया लेना रह गया।
जब ये शुरू हुआ तो प्रवासी मज़दूरों का मुद्दा ख़ूब चला। सबने अपनी रोटियाँ सेकीं पत्रकारों ने इसी के चलते भारत भ्रमण भी कर लिया। अब उस फुटेज को भुनाया कैसे जाये ये एक जटिल समस्या है। चूँकि हमारे यहाँ जो दिखता है वो बिकता है औऱ अभी तो उन मज़दूरों की किसी को नहीं पड़ी है, तो बस अब उनकी ख़ैर ख़बर लेने वाला कोई नहीं। कहीं मैंने ये भी पढ़ा की बहुत से ऐसे मज़दूर अब वापस अपनी नौकरियों पर आ गए हैं तो उनकी कहानी ख़त्म।
समाज के सबसे बड़े तबके यानी हमारी मिडिल क्लासको तो इस सबसे भूल ही गये हैं। ऐसा लगता है उनको कोई परेशानी हुई ही नहीं है या उनकी परेशानी मायने नहीं रखती। मेरे न जाने कितने जाननेवालों की नौकरी भी चली गई और नई मिलने की संभावना निकट भविष्य में क्षीण हैं लेक़िन मजाल है कोई इस पर कुछ दिखाये। सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं।
एक तीर, दो शिकार
इस लॉक डाउन ने हमारे देश की दो सबसे बड़ी प्राथमिकताओं पर ही सवाल लगा दिये है। पहली तो जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था जो आज उस वेंटिलेटर पर है जिसकी बिजली कभी भी बंद हो सकती है। चाहे वो मुम्बई जैसा बड़ा शहर हो या बिहार जैसा पिछड़ा राज्य। सभी जगह ईलाज के बुरे हाल हैं।
— Sushil Kumar Modi (मोदी का परिवार ) (@SushilModi) July 25, 2020
ये नेताजी उस समय का हिसाब माँग तो रहे हैं लेक़िन ये नहीं बता रहे इन्होंने अपने समय में क्या किया।
दूसरी है हमारी शिक्षा व्यवस्था। शहरों में सरकारी स्कूलों की हालत बेहद ख़राब वैसे ही है। लेक़िन इस महामारी के चलते ये भी पता चला की एक ही शहर में आपको ग़ैर सरकारी स्कूल मिलेंगे जो इन तीन महीनों में काफ़ी हद तक डिजिटल क्लास चला पाये लेक़िन सरकारी स्कूलों में या तो शिक्षक के डिजिटल रेडी न होने के कारण या विद्यार्थियों के पास मोबाइल के न होने के कारण ये नहीं हो पाया।
अभी जब रोज़ लगभग 50 हज़ार केस आ रहे हैं तो हमारे नेताजी स्कूलों को फ़िर से खोलने पर काम कर रहे हैं। चलिये खोल दीजिये स्कूल लेक़िन उसके बाद अगर केस बढ़ते हैं तो क्या आपके पास उसकी तैयारी है? उस समय तो आप ये दोष किसी अफ़सर के ऊपर मढ़ देंगे।
समाधान
ऐसा नहीं है की इस विशाल देश में सिर्फ़ समस्याओं का ढ़ेर है। बहुत से समाधान भी हैं लेक़िन उन समाधानों के प्रति हम अपनी राय उस पर बनाते हैं कि वहाँ किस की सरकार है, उनके बाक़ी राज्यों, केंद्र से कैसे संबंध हैं। इस सब में जब ईगो, अहम या अना बीच में आती है तो अच्छे काम भी बुरे दिखने लगते हैं। जैसे केरल ने शुरू से इस लड़ाई में बहुत अच्छी तैयारी रखी औऱ बहुत बढ़िया काम भी किया। लेक़िन जैसे किसी संयुक्त परिवार में होता है एक बहु का अच्छा काम न तो बाक़ी बहुओं को भाता है और न तो सास को।
डिजिटल की मेरे सफ़र की सबसे बड़ी सीख यही रही की आगे बढ़ना है तो लीडर को देखो। उसका अनुसरण करो (कॉपी नहीं) औऱ फ़िर उसमें से अपना रास्ता बनाओ। बाक़ी राज्यों को केरल से ज़मीनी औऱ तकनीकी ज्ञान को अपने राज्य में लागू करना था। लेक़िन ऐसा करते तो उनकी तथाकथित दुकानों का नुकसान होता। तो बस अब कहीं अमरीका की डिज़ाइन है तो कहीं बहुत ही घटिया देसी डिज़ाइन।
ये सही है की ऐसी कोई स्थिति होगी इसके बारे में कभी किसी ने सोचा नहीं था। लेक़िन जब ऐसी स्थिति हो गयी तब हमने क्या किया? आज हमारे पास अभी तक की सबसे बेहतरीन टेक्नोलॉजी है, सबसे अच्छे सिस्टम हैं लेक़िन उसके बाद भी अगर हम कुछ नहीं कर पाते हैं तो इसके लिये कौन ज़िम्मेदार है? क्या तीन महीने में कुछ बहुत ही तूफ़ानी सा काम हो जायेगा ये सोच ही ग़लत है?
लेक़िन जब ये सब ख़त्म हो जायेगा तब हम सब ऐसे आगे बढ़ जायेंगे जैसे ये एक बुरा सपना था। लेक़िन भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस महामारी के झटके कई वर्षों तक महसूस करेगा।
आज शुरुआत गुलज़ार साहब की एक रचना के चंद शब्दों के साथ। फ़िल्म इजाज़त और गाना वही मेरा कुछ सामान। लेक़िन इस बार बात उस ख़त की जो टेलीग्राम के रूप में महिंदर और सुधा तक पहुँचता है। लिखा माया ने है और वो सामान वापस करने का ज़िक्र कर रही हैं एक कविता के ज़रिये।
आपने कभी वो ऑनलाइन सेल में कुछ खरीदा है? जिसमें सेल शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाती। थोड़ी देर बाद वो कंपनी बड़े घमंड के साथ सोशल मीडिया पर आती और बताती कितने सेकंड में उनका माल बिक गया। इन सेल में मेरी किस्मत बहुत नहीं चली (अपने लिये) लेक़िन बाक़ी लोगों के लिये मुझे एक दो बार कामयाबी ज़रूर मिली।
कोरोना के चलते मुझे इस सेल वाले अनुभव की फ़िर से याद आयी जब रात में राशन पानी लेने के लिये वेबसाइट के खुलने का इंतज़ार कर रहे थे। आसपास की सभी दुकानें बंद और वो सभी डिलीवरी करने वाली एप्प ने भी हमारे इलाके से कन्नी काट रखी थी। एक वेबसाइट तो 20 में से चार वो चीज़ें ही डिलीवर करने को तैयार थी जिनके बिना काम चल सकता था।
रात के लगभग 12 बजे जब साइट ने आर्डर लेना शुरू किया तो बस किसी तरह आर्डर जल्दी से हो जाये इसका ही प्रयास कर रहे थे। जल्दी इसलिये की अगर 10 चीज़ें आर्डर करी हैं तो कमी के चलते उसमें ही 5 ही आपके घर पहुँचती हैं। ऐसा पहले भी होता रहा है की पूरा सामान नहीं आया हो। लेक़िन इन दिनों लालच बढ़ गया है और दूसरा ये की बाहर निकलने पर क्या मिले क्या न मिले इसका कोई भरोसा नहीं है।
बहरहाल सभी प्रयासों के बाद सामान का आर्डर नहीं हुआ। एक दो बार पैसा भरने तक पहुँचे भी लेक़िन उसके आगे टायें टायें फिस्स। सभी डिलीवरी स्लॉट भर गये थे। सेल में फ़ोन या एक रुपये में फ़िटनेस बैंड मिलने का इतना दुख नहीं हुआ जितना इस आर्डर के न होने पर हुआ था।
आँखों से नींद कोसों दूर थी औऱ उस कंपनी के लोगों को ज्ञान देने की भी इच्छा थी। ढेर सारा की वो हम ग्राहकों से इतना बेचारा जैसा व्यवहार क्यों करती हैं। इसी उधेड़बुन में एक बार फ़िर वेबसाइट पर पहुंचा और एक औऱ प्रयास किया। ये क्या? बड़ी आसानी से एक के बाद एक रुकावटें पार करते हुये आख़िरी पड़ाव यानी भुगतान तक पहुँच गये। विश्वास नहीं हो रहा था और लग रहा था जैसे सिग्नल की लाइट लाल होती है वैसे ही किसी भी समय ये हो सकता था।
लेक़िन उस रात कोई तो मेहरबान था। क्योंकि अंततः आर्डर करने में सफलता मिली औऱ जब कंपनी से इसका संदेश आ गया तो उस समय की फीलिंग आप बस समझ जाइये। लेक़िन साथ ही उस शख़्स के लिये भी बुरा लगा जिसने प्रयास किये होंगे लेक़िन समय सीमा के चलते शायद वो ऐसा नहीं कर पाये।
इस पूरे घटनाक्रम से यही सीख मिली कि जब आपको लगने लगे सब ख़त्म हो चुका है, एक बार औऱ प्रयास कर लीजिये। शायद कुछ हो जाये। वैसे हमारे ऐसे अनुभव काली कार के साथ बहुतहुये हैं। चूँकि चलती कम थी तो बैटरी की हमेशा साँस फूली रहती। हूं लोगों को कभी घर के अंदर नहीं तो बाहर सड़क पर उसको धक्का देना होता। और कुछ नख़रे दिखाने के बाद जब कार स्टार्ट होती तो उससे मधुर आवाज़ कोई नहीं होती।
ऐसा ही एक अनुभव पिछले वर्ष हुआ था अगस्त के महीने में। सपरिवार भोपाल जाने का कार्यक्रम था और टिकट भी करवा लिये थे। लेक़िन मुम्बई में हमेशा बनती रहने वाली सड़कों के चक्कर में स्टेशन पहुँचे तक गार्ड साहब वाला डिब्बा और उसमें से वो हरा सिग्नल दिख रहा था। मायूस से चेहरे लेकर ऐसे ही टिकट काउंटर पर जाकर पूछा शाम की दूसरी ट्रेन के बारे में औऱ… तीन घंटे बाद वाली ट्रेन में कन्फर्म टिकट मिल गया।
सीख वही ऊपर वाली। प्रयास करते रहिये।
अब इसमें गुलज़ार साहब का क्या योगदान? जी वो चिल्लर की बात जो माया देवी कर रहीं थी, बस वैसी ही ज़िन्दगी लगती है जब ऐसा कुछ होता है।
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मुंबई में और देश के बाक़ी हिस्सों में भी बारिश मुम्बई की बारिश के अपने किस्से कहानियाँ हैंचालू है। वैसे जो शहर खूबसूरत हैं वो हर मौसम में खूबसूरत ही लगते हैं। लेक़िन कुछ ख़ास आनंद कम ही लिया हैमौसम में इन शहरों की खूबसूरती और निदिल्ली की सर्दियां बेहदखर जाती है। चूँकि बात मुम्बई की चल रही है तो वैसे तो इस शहर को कांक्रीट जंगल कहते हैं (है भी), लेक़िन बारिश में ये शहर एक अलग ही शहर लगता है।
आप जो पानी से भरी सड़कें या सबवे समाचारों में देखते हैं वो भी बारिश का एक दूसरा पहलू है। लेक़िन ये तो हर मौसम पर लागू होता है। बारिश की अपनी परेशानी है तो गर्मी की अपनी दिक्कतें हैं। लेक़िन दिक्कतों से परे ये सभी मौसम हर शहर का क़िरदार दिखाते हैं।
भोपाल में रहने का फायदा ये रहा की सभी मौसमों का लुत्फ़ उठाया। गर्मी और सर्दियों में जब कभी सुबह सैर करने का मौक़ा मिलता तो वो एक बहुत ही खूबसूरत अनुभव होता। हालाँकि ऐसा आनंद कम ही लिया हैलेक़िन जब भी लिया दिल खोल के लिया।
भोपाल के बाद नंबर आता है दिल्ली का और मुझे हमेशा से दिल्ली की सर्दियां बेहद पसंद रहीं हैं। उन दिनों रजाई में घुसे रहने के अपने मज़े हैं लेक़िन रजाई से बाहर निकल कर अगर घूमने निकल जाये तो मौसम के अलग मज़े लेने को मिलते हैं। औऱ अगर ऐसे मौसम में सड़क किनारे अग़र अदरक की गरमाराम चाय पीने को मिल जाये तो क्या बात है।
ऐसा नहीं है की मुम्बई की सुबह खूबसूरत नहीं होती हैं लेक़िन बड़े शहरों के अपने मसले हैं। यहाँ सुबह साढ़े चार बजे से लोकल शुरू हो जाती है (फ़िलहाल बंद हैं) तो सड़कों पर गाड़ियाँ भी दौड़ने लगती हैं। छोटे शहरों में या उभरते हुए मिनी मेट्रो में अभी दिन की शुरुआत इतनी जल्दी नहीं होती।
मेरे पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में मेरे इंदौर के एक सहयोगी जो अक्सर भोपाल-इंदौर के बीच अपनी मोटरसाइकिल से सफ़र करते थे, वो कहते थे हर शहर की अपनी नाइटलाइफ़ होती है। अगर किसी शहर का क़िरदार मालूम करना हो तो उसको रात में देखो। भोपाल में ऐसे मौके कम मिले लेक़िन दिल्ली में और उसके बाद मुम्बई में ऐसा कई बार हुआ।
अब ये फ़िरसे मौसम से दिन रात पर भटकना शुरू हो रहा है इसलिये इसको यहीं ख़त्म करते हैं। मुम्बई की बारिश के अपने किस्से कहानियाँ हैं लेक़िन अगर आपको कभी मौक़ा मिले तो ज़रूर देखिये इस शहर को बारिश के मौसम में। बस प्रार्थना इतनी सी है की आप बारिश में कहीं फँसे नहीं।
वैसे बारिश से याद आया हमारी फिल्मों में भी बारिश का एक अलग महत्व है। ढेरों गाने लिखे गये हैं सावन पर। ये नया प्रेम नहीं है। ये दशकों से चलता आ रहा है और आज भी बरकरार है।
किशोर कुमार जी की आवाज़ में रिमझिम गिरे सावन शायद पहला गीत था जिसके बोल मैंने लिखे थे अपने लिये। क्यों तो पता नहीं लेक़िन शायद गाना पसंद ही आया होगा। बारिश के कई गाने हैं जिनमें से ये एक है जिसमें बारिश का ज़िक्र तो ज़रूर है लेक़िन बारिश के अतेपते नहीं है।
ये बात भी पिताजी ने ही बताई की इस गाने को लता मंगेशकर जी ने भी गाया है। ज़्यादातर किशोर कुमार जी वाला ही देखने सुनने को मिलता। जब लता जी की आवाज़ वाला गाना सुना तो बहुत अच्छा लगा। लेक़िन जब इसको देखा तब इस गाने से मोहब्बत सी हो गयी। बारिश के गानों के साथ जो परेशानी है वो है माहौल बनाने की। मतलब आप साज़ो सामान से माहौल बनाते हैं, बारिश दिखाते हैं। लेक़िन अगर आपने ये गाना देखा होगा तो आपको इसमें बारिश से भीगा हुआ शहर दिखेगा।
सरफ़रोश के इस गाने को भी असली बारिश में शूट किया था। शायद इसलिये गाना खूबसूरत बन पड़ा है।
https://youtu.be/RFK0h5nyPZo
इस गाने में ठंडी हवा, काली घटा भी है लेक़िन बारिश का इंतज़ार हो रहा है। औऱ फ़िर जब यही मधुबाला बारिश में भीग कर किशोर कुमार जी के गैराज में अपनी कार की मरम्मत कराने पहुँचती हैं तो एक और खूबसूरत गीत बन जाता है जिसमें बारिश भी एक क़िरदार है लेक़िन उसका सिर्फ़ ज़िक्र है।
मुझे ऐसा लगता है मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने सबसे ज़्यादा बारिश पर गाने लिखे हैं। जब सर्च कर रहा था तब ज़्यादातर गाने उनके ही लिखे हुये मिले। ऐसा ही एक और उनका ही लिखा हुआ बहुत ही प्यारा बारिश का गाना जिसमें बारिश नहीं है, ज़िक्र है।
तो आपका कौनसा पसन्दीदा मौसम है औऱ उस मौसम पर लिखा/फ़िल्माया गाना पसंद है? ज़रूर बतायें। इनाम तो कुछ नहीं, लेक़िन आपके बारे में बहुत कुछ बताता है ये मौसम। क्योंकि ये मौसम का जादू है मितवा…
कल की पोस्ट में जो कैफ़ियत शब्द का इस्तेमाल किया था इसको पहली बार गुलज़ार साहब की आवाज़ में सुना था। एल्बम था गुलज़ार के चुनिंदा गानों का औऱ उनकी वही भारी भरकम आवाज़ में वो कहते हैं, \”मिसरा ग़ालिब का, कैफ़ियत अपनी अपनी\”।
जब कैसेट पर ये सुना था तब समझ में नहीं आया। उस समय इंटरनेट भी नहीं था लेक़िन उर्दू जानने वाले काफ़ी लोग थे और उनसे मतलब पूछा था। उस समय समझा और आगे बढ़ गए। उन दिनों भाषाओं की इतनी समझ भी नहीं थी। आगे बढ़ने से पहले – मिसरा का मतलब किसी उर्दू, कविता का आधारभूत पहला चरण। कैफ़ियत – के दो माने हैं हाल, समाचार या विवरण।
गुलज़ार ने इसके बाद अपना लिखा जो गाना सुनाया वो था दिल ढूँढता है फ़िर वही फ़ुरसत के रात दिन। इस गाने में सारे मौसम का ज़िक्र है। जाड़ों की बात है तो गर्मियों की रात का भी ज़िक्र है और बर्फ़ीली सर्दियों का भी। इसी गाने का एक दूसरा भाग भी है जो दर्द से भरा है। इस गाने से संबंधित एक बात और जिसकी शिकायत गुलज़ार साहब से है की उन्होंने इसमें बरसात का ज़िक्र क्यूँ नहीं किया? बात कैफ़ियत से शुरू हुई थी और एक गाने में सिमटती जा रही है।
जो मैं अर्ज़ करना चाह रहा था वो ये की किसी भी भाषा का ज्ञान कई स्त्रोतों से मिलता है। कई शब्द सुनकर सीखते हैं और चंद पढ़कर भी। अब जैसे अपशब्द की तो कोई क्लास नहीं होती लेक़िन अपने आसपास आप लोगों को इसका इस्तेमाल करते सुनते हैं और धीरे धीरे ये आपकी भाषा का अंग बन जाता है। पहले तो सिनेमा में भाषा बड़ी अच्छी होती थी लेक़िन अब गालियों का खुलकर प्रयोग होता है और वेब सीरीज़ तो परिवार के साथ न देखने न सुनने लायक बची हैं। अभी ऊपर भटकने से बचने के बात करते करते वापस उसी रस्ते।
जिस तरह के आजकल के गाने बन रहे हैं उससे लोगों की अपशब्दों की डिक्शनरी ही बढ़ रही है। जब सेक्सी शब्द का इस्तेमाल हुआ था तो हंगामा हुआ था। आखिरकार बोल बदलने पड़े थे। अब बादशाह, कक्कड़ परिवार, हनी सिंह ने पूरी पीढ़ी को नई भाषा ज्ञान का ज़िम्मा उठाया है और इसके नतीज़े आपको कोरोना ख़त्म होते दिखेंगे जब ससुराल गेंदा फूल पर छोटे छोटे बच्चे नाचेंगे।
गानों का किसी भाषा को समझने की पहली कड़ी मान सकते हैं। ये कोई फ़िल्म भी हो सकती है लेक़िन किताब नहीं क्योंकि आप उसका अनुवाद पढ़ रहे होते हैं। ग़ालिब को पढ़ा तो नहीं लेक़िन उनको सुना है। सुनकर ही शब्दों के माने जानने की कोशिश भी करी क्योंकि उनके इस्तेमाल किये शब्द भारीभरकम होते हैं। जैसे:
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
जब पहली बार ये शेर सुना तो कुछ भी समझ में नहीं आया। फ़िर अलग अलग शब्दों के माने समझ कर समझा की ग़ालिब क्या कह रहे हैं।
https://youtu.be/KhWUUPo0pTQ
ऐसा ही एक और बेहद खूबसूरत गीत है फ़िल्म घरौंदा का तुम्हे हो न हो मुझको तो इतना यकीं है । बांग्लादेशी गायिका रुना लैला की आवाज़ में ये गाना दरअसल बयां कितनी मोहब्बत है इसका है लेक़िन सीधे सीधे नहीं बोलकर गुलज़ार साहब नें शब्दों के जाल में एक अलग अंदाज में बताया है। जब शुरू में ये गाना सुना तो लगता वही जो मुखड़ा सुनने पर लगता है। लेक़िन जब अंतरे पर आते हैं तो समझ में आता है की बात कुछ और ही है। ये मुखड़े से अंतरे तक का सफ़र बहुत कठिन रहा लेक़िन मज़ा आया। अगर आप ये गाना देखेंगे तो ये एक दर्द भरा गीत भी नहीं है।
पिछले दिनों एक पुराने सहयोगी ने बताया उर्दू की क्लास के बारे में। तो बस अब उस क्लास से जुड़ने का प्रयास है औऱ एक बरसों से दबी ख्वाइश के पूरे होने का इंतज़ार।
एक आख़िरी गाना जिसके शब्द बचपन से याद रहे। उन दिनों रेडियो ही हुआ करता था तो उसपर कई बार सुना। अब तो जैसे इस गाने के बोल रट से गये हैं और उनके माने भी समझ में आने लगे। हाय हाय ये ज़ालिम ज़माना।
दरअसल गाने और उनके संबंध पर चर्चा के बारे में किसी ने एक बहुत ही खूबसूरत बात कही थी जिससे इस पोस्ट का आईडिया पनपा। लेक़िन लिखते लिखते भटक से गये। ख़ैर उस बात का ज़िक्र आगे करेंगे।
अभी बोर्ड की परीक्षाओं के परिणाम आने शुरू हुये हैं और कई राज्यों के परिणाम आ भी चुके हैं। जैसा की पिछले कई साल से चलन चल रहा है, अब माता पिता अपने बच्चों के परिणाम को अपनी ट्रॉफी समझ कर हर जगह दिखाते फ़िरते हैं।
मुझे लगता है कभी कभी कुछ चीज़ों का न होना बहुत अच्छा होता है। जैसे हमारे समय ये सोशल मीडिया नहीं हुआ करता था। बस घर के सदस्य, कुछ और रिश्तेदारों तक आपके परिणाम की ये ख़बर रहती। बाकी जगह ख़बर फ़ैलते थोड़ा समय लगता और तब तक बात पुरानी हो जाती तो बात होती नहीं।
पिताजी शिक्षक रहे हैं और शायद उन्हें जल्दी ही पता लग गया था की मेरा और पढ़ाई का रिश्ता कैसा होने वाला है। लेक़िन उन्होंने एकाध बार ही नम्बरों के लिये कुछ बोला होगा। इसके बाद भी उन्होंने मुझे हर परीक्षा में सम्मिलित होने के लिये प्रोत्साहित किया। जिसके चलते मेरा पहली बार अकेले मुंबई-शिरडी-पुणे यात्रा का संयोग बना।
पिछले हफ़्ते से सोशल मीडिया और व्हाट्सएप पर माता पिता अपने बच्चों के नंबर बता रहें हैं। कुछेक ने तो बाकायदा मार्कशीट भी डाल दी। बहुत अच्छी बात है की बच्चों की मेहनत रंग लाई। उनको बहुत बहुत बधाई। मैं माता पिता को ऐसा करने से रोकने वाला कौन होता हूँ लेक़िन ये पूरे सर्कस से थोड़ा दुखी हूं।
मेरा माता-पिता से सिर्फ़ एक ही प्रश्न है अगर आपके बच्चे के नंबर कम आते तो भी क्या आप उतने ही उत्साह से ये ख़बर सबको बताते? अगर आप बताते तो आपको मेरा सादर प्रणाम। अगर नहीं तो इस इम्तिहान में आप फेल हो गये हैं।
लेक़िन मुझे बहुत ख़ुशी होती है ऐसे पालकों के बारे में जानकर बड़ी ख़ुशी होती है जो अपनी संतान को नंबर से नहीं आँकते। जो भी परिणाम है वो सबके सामने। अगर बहुत ख़राब आया है तो भी। ऐसे माता पिता की संख्या भी अधिक है जो ऊपर ऊपर तो कह देते हैं उन्हें नम्बरों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता लेक़िन दिल ही दिल में ये मनाते रहते हैं कि इतने प्रतिशत तो आ ही जायें। मेरे मामले में माता पिता का तो पता नहीं लेक़िन मैं तो बस किसी तरह पास होने की उम्मीद ही करता।
अभिनेता अनुपम खेर ने इससे जुड़ा किस्सा सुनाया था। जब वो परीक्षा में फेल हो गये थे तो उनके पिताजी ने उसका जश्न मनाया था। उस दिन से उनका असफ़ल होने का डर जाता रहा। आजकल माता पिता जब नम्बरों को पूरी दुनिया को बताते है (सिर्फ़ अच्छे नंबर आने पर ही) तो वो अनजाने में ही अपने बच्चों के ऊपर और प्रेशर डाल रहे होते हैं।
मैं ऐसे कई बच्चों को जानता हूँ जो एक या दो नंबर कम आने पर बहुत निराश हो जाते हैं क्योंकि घर पर इसके चलते हंगामा होगा। बच्चों के लिये दुःख होता है और माता पिता पर तरस आता है। अच्छे परिणाम से ही क्या आपकी संतान अच्छी मानी जायेगी?
आजकल जितने प्रतिशत बच्चों के आ रहे हैं उसको देख कर लगता है मेरा परिणाम तो नेगेटिव में होना चाहिये। मुझे याद है जब जान पहचान वालों के बच्चे बोर्ड परीक्षा देते थे तो उनका घर पर आना जाना बढ़ जाता था। कारण? वो पिताजी से ये पता करना चाहते थे कि फलाँ विषय की कॉपी कहाँ चेक होने जा रही है और वो ट्रेन का टिकट कटाकर पहुँच जाते। नंबर बढवाये जाते जिससे परिणाम अच्छे आयें। आज वो बच्चे लोग अच्छी पोस्ट पर हैं, कुछ विदेशी नागरिकता लेकर वहाँ पर \’सफलता\’ के झंडे गाड़ रहे हैं। वो यहाँ कैसे पहुँचे ये उन्हें मालूम तो होगा लेक़िन क्या वो इस बारे में कभी सोचते होंगे? शायद।
जैसा मैंने पहले ज़िक्र किया था विदेशी तोहफों के बारे में, ऐसे ही एक सज्जन को परिवार के बहुत से लोगों से कोफ़्त हुआ करती थी। उन लोगों से मिलना, उनका आना जाना सब बिल्कुल नापसंद। लेक़िन जैसे ही ये ग्रुप के लोग धीरे विदेशी धरती को अपनी कर्मभूमि बनाने लगे साहब के रंग भी बदल गये। वही नापसंद लोग उनके पसंदीदा बन गये।
ये मैं इसलिये बता रहा हूँ की आज अगर आपके नंबर कम आये हैं तो निराश मत हों। समय और नज़रिया बदलते देर नहीं लगती। जो आज आपको आपके नंबर के चलते आपको अपमानित महसूस करा रहे हैं वो आपको भविष्य के लिये तैयार ही कर रहे हैं। और कल आपने जब कुछ मक़ाम हासिल कर लिया तो यही लोग आपके गुण गायेंगे।
साल 2000 में शाहरुख खान की फ़िल्म आयी थी जोश । फ़िल्म में उनके साथ थे चंद्रचूड़ सिंह, शरद कपूर और प्रिया गिल। फ़िल्म की कास्ट को लेकर चर्चा तब शुरू हुई जब ऐश्वर्या राय को फ़िल्म में लिया गया लेक़िन शाहरुख खान की हीरोइन के रूप में नहीं बल्कि बहन के रोल में। जहाँ फ़िल्म के निर्देशक मंसूर खान इस कास्ट को लेकर बहुत आशान्वित थे, जनता के लिये नये कलाकारों को ऐसे रोल में देखना एक नया अनुभव था।
पहले तो दोनों कलाकार इसके लिये मान गए वही बड़ी बात थी। इसके कुछ ही महीनों बाद शाहरुख – ऐश्वर्या के नई फ़िल्म आयी मोहब्बतें जिसमें दोनों एक रोमांटिक रोल में थे। इसके बाद इसी जोड़ी ने संजय लीला भंसाली की देवदास में भी काम किया। लेक़िन जैसी शाहरुख़ की काजोल, जूही या माधुरी के साथ जोड़ी बनी और पसंद भी की गई वैसी उनकी और ऐश्वर्या की जोड़ी नहीं बन पाई। और जो तीन-चार फिल्में साथ में करीं भी तो उसमें रोमांटिक जोड़ी नहीं रही।
पिछले दो दिनों से फिल्मी पोस्ट हो रहीं हैं तो आज किसी और विषय पर लिखने का मूड़ था। लेक़िन सुबह मालूम हुआ हरी भाई ज़रिवाला एवं वसंतकुमार शिवशंकर पादुकोण का जन्मदिन है, तो उनके बारे में न लिखता तो ग़लत होता। हिंदी फिल्मों के सबसे उम्दा कलाकारों और निर्देशकों में से एक या शायद एकलौते जिनकी कोई इमेज नहीं रही।
बहुत ही बिरले कलाकार होते हैं जो किसी भी रोल को निभा सकते हैं। हरिभाई अर्थात हमारे प्रिय संजीव कुमार जी ऐसे ही कलाकार रहे हैं। गाँव का क़िरदार हो या शहर बाबू का या पुलिस वाले का। हर रोल में परफ़ेक्ट। हर रोल में उतनी ही मेहनत।
वसंतकुमार शिवशंकर पादुकोण अर्थात गुरुदत्त जी भी ऐसे ही निर्देशक रहें हैं। आज मैं सिर्फ़ संजीव कुमार जी के बारे में लिख रहा हूँ। गुरुदत्त जी के बारे में विस्तार से बाद में।
अग़र वो जया भादुड़ी के साथ अनामिका में रोमांटिक रोल में थे तो परिचय में बाप-बेटी के क़िरदार में और फ़िर शोले में ससुर और बहू के रोल में। लेक़िन दोनों को साथ देखकर आपको कुछ अटपटा नहीं लगेगा। और न ही आपको ये बूढ़े ठाकुर को देखकर लगेगा की वो सिर्फ़ 37 साल के हैं। राखी भी ऐसी ही एक अदाकारा रही हैं जो अमिताभ बच्चन की प्रेयसी बनी तो शक्ति में उन्हीं की माँ का भी रोल किया है।
ये संजीव कुमार का हर तरह के रोल की भूख ही होगी की उन्होंने अपने सीनियर कलाकार शशि कपूर के पिता का रोल यश चोपड़ा की यादगार फ़िल्म त्रिशूल में करना स्वीकार किया।
आजकल हिंदी फिल्मों का हीरो फ़िल्म में बड़ा ज़रूर होता है लेक़िन बूढ़ा नहीं। मुझे हालिया फिल्मों में से दो फिल्में वीरज़ारा और दंगल ही याद आतीं हैं जिसमें क़िरदार जवानी से बुढ़ापे तक का सफ़र तय करता है। संजीव कुमार की शोले हो या आँधी उनका क़िरदार दोनों ही उम्र में दिखा औऱ क्या क़माल का निभाया उन्होंने।
आज के समय में कलाकार कला से ज़्यादा अपनी इमेज की चिंता में रहते हैं। संजीव कुमार की कोई भी फ़िल्म देख लीजिये लगता है जैसे क़िरदार उनके लिये ही लिखा गया था। उनके हर तरह के रोल करना ये सिखाता भी है की जो भी काम मिले उस काम को बखूबी निभाओ। कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता।
उनके दो रोल आँधी और अँगूर दोनों बहुत पसंद हैं। इत्तेफ़ाक़ से दोनो के निर्देशक गुलज़ार साहब हैं। वैसे अग़र आज संजीव कुमार जी होते तो शायद वो औऱ गुलज़ार साहब मिलकर न जाने और कितने क़माल की फ़िल्में करते।
जहाँ आँधी में संगीत का उसके पसंद किये जाने के पीछे बड़ा योगदान है, अंगूर तो सिर्फ़ और सिर्फ़ उनकी एक्टिंग के लिये प्रिय है। वो वाला सीन जिसमें वो गलती से अपने हमशक्ल के घर आ जाते हैं और उसकी पत्नी (मौष्मी चटर्जी) उन्हें अपना पति समझ कर उनसे बात करती है। इस पूरे पाँच मिनट के सीन में संजीव कुमार जी कितने उम्दा कलाकार थे, ये बख़ूबी दिखता है। जिस तरह से वो बताइये से बताओ, बताओ पर आते हैं या बहादुर के बाप बनने की ख़बर पर उनकी प्रतिक्रिया – सब एक्टिंग की मास्टरक्लास है। जब हमारे आज के हीरो जिम से फुर्सत पायें तो कुछ देखें।
जब छोटा था तब से एक पारिवारिक मित्र घर आते थे। जब भी उन्हें देखता लगता है उन्हें कहीं देखा है। वो बिल्कुल संजीव कुमार जी की तरह लगते और जैसे उनके बाल सफ़ेद रहते इनके भी वैसे ही रहते। और वैसा ही चश्मे का फ्रेम।
वैसे तो संजीव कुमार जी के एक से बढ़कर एक गाने हैं, ये मौसम के हिसाब का गाना है और एक बहुत ही कर्णप्रिय गीत है। मौसम, गीत दोनों का आनंद लें।
8 जुलाई 1987 को जब गुलज़ार साहब की फ़िल्म इजाज़त रिलीज़ हुई थी तब तो शायद पता भी नहीं होगा फ़िल्म के बारे में। शायद गुलज़ार साहब को भी थोड़ा बहुत जानना शुरू किया होगा। मैंने शायद इसलिये लगा दिया की ठीक ठीक याद नहीं है फ़िल्म के बारे में और गुलज़ार साहब के बारे में भी। इतना ज़रूर पता है फ़िल्म सिनेमाघर में नहीं देखी थी लेक़िन छोटे पर्दे पर ही देखी।
तैंतीस साल पहले इस फ़िल्म में लिव-इन रिश्ते दिखाये गये थे। मतलब जब एक साल बाद 1988 हम क़यामत से क़यामत तक में आमिर खान और जूही चावला की प्यार की जंग देख रहे थे उससे भी एक साल पहले ये फ़िल्म एक बहुत ही अलग बात कर रही थी। हाँ इस फ़िल्म QSQT से जुड़ा सब बिल्कुल साफ़ साफ़ याद है।
रियल ज़िन्दगी में आते आते इस तरह की ज़िंदगी को और ज़्यादा समय लग गया। मुझे अभी भी याद नहीं इस फ़िल्म का संगीत कैसे सुनने को मिला। टीवी और रेडियो ही एकमात्र ज़रिया हुआ करते थे तो दोनों में से किसी एक के ज़रिये ये हुआ होगा।
फ़िल्म का कैसेट ज़रूर याद है। फ़िल्म में कुल चार गाने थे और सभी आशा भोंसले के गाये हुये। कहानी तीन किरदारों की लेक़िन दोनो महिला चरित्र को तो गाने मिले लेकिन एकमात्र पुरुष क़िरदार को एक भी गाना नहीं मिला। ये गुलज़ार साहब ही कर सकते थे। कैसेट में फ़िल्म के डायलाग भी थे औऱ इससे सीखने को मिला एक नया शब्द।
शब्द है माज़ी। जैसे रेखा नसीरूद्दीन शाह से अपनी क़माल की आवाज़ में पूछती हैं, माज़ी औऱ नसीर साहब जवाब देते हैं, माज़ी मतलब past, जो बीत गया उसे बीत जाने दो उसे रोक के मत रखो। अगर आप डायलॉग सुन लें तो आपको फ़िल्म की कहानी पता चल जाती है। जैसा की गुलज़ार की फिल्मों में होता है, ये मानवीय संवेदनाओं से भरी हुई है। इसमें कौन सा क़िरदार ग़लत है ये सोचना मुश्किल हो जाता है।
फ़िल्म का एक और डायलॉग जो नसीरुद्दीन शाह का है और माज़ी वाले डायलॉग से ही जुड़ा है। सुधा को वो माया के बारे में कहते हैं, \”मैं माया से प्यार करता था – ये सच है। और उसे भूलने की कोशिश कर रहा हूँ – ये सही है। लेक़िन इसमें तुम मेरी मदद नहीं करोगी तो बड़ी मुश्किल होगी क्योंकि मुझसे ज़्यादा तो वो तुम्हें याद रहती है।\”
कहने को दो लाइन ही हैं लेक़िन उनके क्या गहरे अर्थ हैं। जो सच है और जो सही है। शायद ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा भी।
जब फ़िल्म पहली बार देखी तो इससे जुड़ी हर चीज़ से जैसे इश्क़ हो गया। गीत संगीत से पहले ही हो रखा था। देखने के बाद सभी कलाकारों से, थोड़ा ज़्यादा रेखा से, एक जुड़ाव सा हो गया। उस समय जब हम समाज की एक अलग तस्वीर देख रहे थे, तब इस फ़िल्म ने एक नया नज़रिया, नई सोच पेश करी।
फ़िल्म के गीत कैसे बने, कैसे आर डी बर्मन ने मेरा कुछ सामान का मज़ाक उड़ाया था धुन बनाने से पहले, इनके बारे में बहुत चर्चा हुई। लेक़िन एक और कारण था शायद रेखा को बाकी से ज़्यादा पसंद करने का। इस फ़िल्म में उनके किरदार का नाम था सुधा। शायद उन्ही दिनों धर्मवीर भारती जी की गुनाहों का देवता पढ़ी थी और शायद इस नाम की उनकी नायिका का जादू सर चढ़ कर बोल रहा था। लेक़िन अभी भी फ़िल्म के गाने देखते हैं तो रेखा से नज़र नहीं हटती।
मेरा कुछ सामान के बोल हैं ही कुछ इस तरह के की पहली बार सुनने में सबको समझ में भी नहीं आते। मुझे भी नहीं समझ आया होगा की आख़िर कवि कहना क्या चाहता है। लेक़िन आप फ़िल्म देखिये तो समझ आने लगता है। बहरहाल, मुझे इसके गाने बेहद पसंद हैं तो ऐसे ही एक रात सुन रहा था। उन दिनों घर में एक रिशेतदार भी आये हुये थे। उन्होंने काफ़ी देरतक चुपचाप सुना और आख़िर बोल ही पड़े – इतना माँग रही है तो बंदा सामान लौटा क्यूँ नहीं देता?
फ़िल्म के इसी गाने के लिये गुलज़ार साहब और आशा जी को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इन 33 सालों में फ़िल्म से, इसके संगीत से, इसके किरदारों से इश्क़ और गहरा हो गया है। हिंदी फिल्मों में अब पहले जैसी बात तो रही नहीं। न पहले जैसा प्यार रहा न पहले जैसे कलाकार। लव स्टोरी के नाम पर क्या क्या परोसा जा रहा है वो सबके सामने है। औऱ दूसरी तरफ़ है इजाज़त।
फ़ेसबुक और ट्विटर पर अगर आप भ्रमण पर निकल जाये तो मिनिट घंटे कैसे बन जाते हैं पता ही नहीं चलता। एक क्लिक से दूसरे और फ़िर तीसरे और सिलसिला चल निकला। समय रहते रुकना और वापस यथार्थ में लौटना एक कठिन काम बन जाता है। चूँकि मैं डिजिटल में काम करता हूँ तो ये मेरे कार्यक्षेत्र में आता है। इसलिये काम के लिये ही सही मेरी सर्फिंग चलती रहती है।
पिछले दो दिनों में दो ऐसी पोस्ट पढ़ीं जिनके बारे में लिखने का मन बन गया। आज उस पोस्ट के बारे में जिसमें 90 के दशक उन फिल्मों की लिस्ट थी जो हिट थीं लेक़िन बकवास थीं और एक लिस्ट वो फ़िल्में जो अच्छी तो थीं लेक़िन चली नहीं।
अब जैसा अमूमन होता है, दस साल बाद सबको अक्ल होने का घमंड हो ही जाता है। तो वही लोग जिन्होंने इन फिल्मों को हिट कराया, आज उसको बक़वास कहने लगे। अगर आप आज उन फिल्मों के कलाकारों से पूछेंगे तो वो भी शायद यही कहेंगे आज वो ये फिल्में नहीं करते। लेक़िन दोनो – दर्शक और कलाकार लगभग 20 वर्षों के अनुभव के बाद इस ज्ञान को प्राप्त कर पाये हैं।
ट्विटर पर भी ऐसा ही एक खेला चलता है। अग़र आपको जब आप 15 वर्षीय थे, उसको कोई सलाह देनी होती तो क्या देते? अरे भाई आज तीस साल बाद मैं अपने अकेले को काहे को – पूरे भोपाल शहर को ही ढ़ेर सारी समझाईश दे देता। लेक़िन मेरे जैसे तो लाखों 40-45 साल के भोपाली युवा होंगे जिनके पास ज्ञान का भंडार होगा। अगर 30 साल बाद भी नहीं मिला तो अब निक्कल लो मियां।
ऐसा हमेशा होता है। आप ने बीस साल पहले कुछ निर्णय लिये जो आज शायद गलत लगें। लेक़िन अगर हम अपने हर निर्णय को लेकर ऐसे ही सवाल उठाते रहेंगे तो फ़िर लगेगा हमने कुछ भी सही नहीं किया। जैसे ग्रेजुएशन के बाद मैने कानून पढ़ने का मन बनाया लेक़िन अंततः वो विचार त्याग कर इतिहास में एमए किया।
हम सब वक़्त के साथ समझदार होते जाते हैं। आज भले ही हमें अपना पुराना निर्णय ग़लत लगे लेक़िन उस समय के जो हालात थे और आपके पास जो ऑप्शन थे उसमें से आपको जो सही लगा आपने वो किया। बीस साल बाद चूँकि आपकी समझ बढ़ गयी है तो आप उस वक़्त के निर्णय को ग़लत कैसे कह सकते हैं? भले ही ये बात एक फ़िल्म के बारे में है, लेक़िन उस समय जब आप टिकट खिड़की पर धक्का खा कर वो फ़िल्म देखने जा रहे थे तो कोई तो कारण रहा होगा।
फ़िल्म डर का मैंने किस्सा बताया था। पिछले दिनों डर दोबारा देखने का मौक़ा मिला तो लगा इस फ़िल्म को एडिटिंग की सख्त ज़रूरत है। लेक़िन मैं तब भी ये कहूँगा की फ़िल्म अच्छी है। इसमें मेरे जूही चावला के फैन वाला एंगल आप नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
फ़िल्मों के हिट या फ्लॉप होने के कई कारण होते हैं। उस समय तो सोशल मीडिया भी नहीं था जो फ़िल्म के हिट या फ्लॉप होने का ज़िम्मा ले ले। नहीं तो आप सोचिये यश चोपड़ा की लम्हे और आमिर खान-सलमान खान की अंदाज़ अपना अपना जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर ढ़ेर हो गयीं लेक़िन कई फूहड़ कॉमेडी वाली फिल्में हिट हो गईं। और यही मेरा इन सभी समझदार व्यक्तियों से सवाल है – आप ने उस समय किन फिल्मों का साथ दिया?
आज की बात करें तो दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की फ़िल्म सोन चिड़िया की बेहद तारीफ़ हुई।सबने इसको साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक बताया। लेक़िन फ़िल्म अपनी लागत भी वसूल नहीं कर पाई। क्या इन समझदार व्यक्तियों ने इस फ़िल्म का साथ दिया या दस साल बाद एक और ऐसे पोल में फ़िर अपनी राय देंगे?
इतने वर्षों में बहुत सी अच्छी फिल्में देखी हैं और ढ़ेर सारी बर्बाद फ़िल्में भी। बहुत से ऐसे निर्णय लिये जो बिल्कुल सही लगे और कुछ ऐसे भी जो उस समय, उन परिस्थितियों के हिसाब से सही थे। आज ऐसे निर्णय को रिव्यु करने का मौक़ा मिले तो कुछ अलग होगा। लेक़िन ये खट्टे मीठे अनुभव ही तो हमको बनाते हैं।
आपको क्या लगता है जो लोग आज फ़िल्म राजा हिंदुस्तानी को बक़वास क़रार दे रहे हैं, वो फ़िल्म आमिर खान के सशक्त अभिनय को देखने गये थे? लेक़िन उसी आमिर खान और निर्देशक धर्मेश दर्शन की फ़िल्म मेला क्यों नहीं देखने गये? शायद चार साल के अंतराल में समझदारी आने लगी थी?
राम जाने। (आप नीचे 👇जो ये गाना है उसे ज़रूर से सुने। ये एक क्लासिक है और लोगों ने इसके बारे में अपनी राय इतने वर्षों के बाद बदली नहीं है। आप इस बारे में कक्कड़ परिवार के किसी सदस्य या बादशाह से न पूछें)
हमारे इस छोटे से जीवन में ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं जिनसे हम अच्छे खासे प्रभावित होते हैं और उन्हें अपना गुरु मानने लगते हैं। शिक्षा के दौरान हमारे शिक्षक इस पद पर रहते हैं और बाद में हमारे काम से जुड़े हुए लोग। कुछ ऐसे भी लोग मिल जाते है इस यात्रा में जो बस कहीं से प्रकट हो जाते हैं और कुछ सीख दे कर चले जाते हैं।
इन सबमे सबसे अहम शिक्षक – हमारे माता पिता कहीं छूट से जाते हैं। वो रहते तो हैं हमारे आसपास लेकिन हम उन्हें उस रूप में नहीं देखते और सोचते हैं उन्हें मेरे काम या काम से संबंधित ज़्यादा जानकारी नहीं होगी तो वो मेरी मदद कैसे करेंगे। ऊपरी तौर पर शायद ये सही दिखता है लेकिन हर समस्या भले ही दिखे अलग पर उसका समाधान बहुत मिलता जुलता है।
मसलन अगर आप एक टीम लीड कर रहें हो तो सबको हैंडल करने का आपका तरीका अलग अलग होगा। कोई प्यार से, कोई डाँट से तो कोई मार खाकर। हाँ आखरी वाला उपाय ऑफिस में काम नहीं आएगा तो उसके बारे में न सोचें। लेकिन क्या ये किसी की ज़िंदगी बदल सकता है?
भोपाल के न्यूमार्केट में घूम रहे थे परिवार के साथ कि अचानक भीड़ में से एक युवक आया और बीच बाजार में पिताजी के पैर छूने लगा। सर पहचाना आपने? सर आपने मार मार कर ठीक कर दिया नहीं तो आज पता नहीं कहाँ होता। पिताजी को उसका नाम तो याद नहीं आया क्योंकि उन्होंने इतने लोगो की पिटाई लगाई थी लेकिन खुश थे कि उनकी सख्ती से किसी का जीवन सुधार गया। लेकिन वो एक पल मुझे हमेशा याद रहेगा। और शायद शिक्षक के प्रति जो आदर और सम्मान देख कर ही शिक्षक बनने का खयाल हमेशा से दिल में रहा है।
ऐसा एक बार नहीं कई बार हुआ है जब पिताजी कहीं जाते हैं तो उनके छात्र मिल जाते हैं। पिताजी एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे सेवानिवृत्त होने से पहले और काफी चर्चा थी उनके एक सख्त शिक्षक होने की। आज भी उनसे अच्छा रसायन शास्त्र कोई नहीं पढ़ा सकता। उस समय जब कोचिंग संस्थानों में शिक्षक की बहुत डिमांड थी तब संचालक उनसे कहते थे आप नोट्स दे दीजिए। कुछ किताब लिखने के लिए भी मनाने आते। लेकिन पिताजी सबको मना कर देते। चाहते तो अच्छी मोटी रकम जमा कर सकते थे लेकिन नहीं। उन्हें मुफ्त में पढ़ाना मंज़ूर था लेकिन ये सब नहीं।
जब ये सब सब होता था तब लगता था क्यों नहीं कर लेते ये सब जब सभी लोग ये कर रहे हैं। जवाब कुछ वर्षों बाद मिला। उनसे नहीं लेकिन अपने आसपास हो रहीे घटनाओं से।
ये शायद उनकी इस ईमानदारी का ही नतीजा है कि मेरे अन्दर की ईमानदारी आज भी जिंदा है। फ़िल्म दंगल में आमिर खान अपनी छोटी बेटी से कहते हैं कहीं भी पहुंच जाओ ये मत भूलना की तुम कहाँ से आई हो। अपनी जड़ें मत भूलना। लेकिन ये जीवन की दौड़ में भागते दौड़ते हम ये भूल जाते हैं और याद रखते हैं सिर्फ आज जो हमारे पास है।
माताजी से अच्छा मैनेजमेंट गुरु नहीं हो सकता। घर में अचानक मेहमान आ जायें और खाना खाकर जाएंगे तो आप को समझ नहीं आएगा क्या करें। पर माँ बिना किसी शिकन के मेनू भी तैयार कर लेतीं और सादा खाना परोसकर भी सभी को खुश कर लेतीं।
आजकल तो घर में खाने लोग ऐसे जाते हैं जैसे कभी हम होटल में जाया करते थे। इसको समय का अभाव ही कह सकते हैं क्योंकि रोज़ रोज़ ये बाहर का खाना कोई कैसे खा सकता है ये मुझे नहीं समझ आता। मजबूरी में कुछ दिन चल सकता है लेकिन हर दिन? लेकिन जो ऊपर समय वाली मजबूरी कही है दरअसल वो सच नहीं हो सकती है क्योंकि मेरी टीम में ऐसे लड़के भी हैं जो अकेले हैं और कमाल का खाना बनाते हैं।
किसी भी बालक के पहले गुरु उसके माता-पिता होते हैं। जैसे एक मोबाइल फोन होता है उसमें पहले से एक बेसिक ऑपरेशन के लिये सब होता है और उसको इस्तेमाल करने वाला अपनी जरूरत के हिसाब से उसमें नई एप्प इंस्टॉल करता है। ठीक वैसे ही माता पिता अपने जीवन की जो भी महत्वपूर्ण बातें होती हैं वो हमें देते हैं। आगे जीवन के सफ़र जो मिलते जाते हैं या तो वो नई एप्प हैं या वो पुरानी अप्प अपडेट होती रहती है।
हम अपने माता पिता के अनुभव का लाभ ये सोचकर नहीं लेते की उनका ज़माना कुछ और था और आज कुछ और है। हम ये भूल जाते हैं कि अंत में हम जिससे डील कर रहें वो भी एक इंसान ही है। मुझे स्कूली शिक्षा में बहुत ज़्यादा विश्वास न पहले था और अब तो बिल्कुल भी नहीं रहा। लेक़िन मुझे तराशने में सभी का योगदान रहा है, ऐसा मेरा मानना है। मुझे पत्रकारिता के गुर सिखाने वाले कई गुरु, डिजिटल सीखाने वाले भी, भाषाओं का ज्ञान देने वाले और न जाने क्या क्या। लेक़िन जीवन के जिन मूल्यों को लेकर मैं आज भी चल रहा हूँ वो मुझे मेरे पहले गुरु से ही मिले हैं। हाँ अब मैं उन्ही मूल्यों को आधार बनाकर अपने आगे का मार्ग खोज रहा हूँ और इसमें मेरे नये गुरु मेरा साथ दे रहे हैं।
ऐसी है एक शिक्षक बीच मे प्रकट हो गए और आज मैं जो भी कुछ हूँ वो उनकी ही देन है। लेकिन आज उन्होंने हम सबके जीवन में उथल पुथल मचा रखी है।
आज फ़िल्म निक़ाह देख रहे थे तब इस पोस्ट को लिखने का ख़्याल आया। इस विषय पर लिखना है ये तो पहले से नोट किया हुआ था। लेक़िन आज फ़िल्म देखकर इसको मूर्तरूप देने का काम हो ही गया।
फ़िल्म एक बहुत ही संजीदा विषय, तलाक़ की बात करती है और फ़िल्म के गाने भी एक से बढ़कर एक। लेक़िन न मैं तलाक़ या फ़िल्म के संगीत के बारे में लिखने वाला हूँ। फ़िल्म में दीपक पाराशर विदेश से लौटकर आते हैं और सबके लिये तोहफ़े लाते हैं। फ़िल्म 1982 की है और उस समय विदेश जाना और वहाँ से तोहफ़े लाना जैसे एक रिवाज़ हुआ करता था। आपका उस तोहफ़े को अपनी ट्रॉफी समझ कर डिस्प्ले करना भी।
हमारे जानने वालों में बमुश्किल एक या दो लोग थे जो विदेश में रहते थे और कभी कभार भारत भी आते। आने की ख़बर पहले से मिलती तो उनके भारत आने के बाद घर पर आने की प्रतीक्षा रहती क्योंकि वो आयेंगे तो कुछ न कुछ ज़रूर लायेंगे। जब हम बड़े हो रहे थे तो उस समय विदेशी माल की बड़ी एहमियत होती।
तो एक बार हमारे वो पारिवारिक मित्र तोहफ़े में एक कटलरी सेट ले आये जिसमें चम्मच, काँटे और छुरी शामिल थे। घर पर अच्छे अच्छे टी सेट या डिनर सेट पहले से थे तो ये कटलरी सेट वाला तोहफ़ा भी उन्हीं के साथ रखा गया। विदेशीमाल था तो उसका इस्तेमाल ख़ास मौके पर, ख़ास लोगों के लिये होता। अच्छा जब ये भारतीय मूल के विदेशी नागरिक सड़क पर खड़े होकर पानी पूरी या किसी होटल में बैठ कर व्यंजन का मज़ा उठाने की बात करते तो वो पूरा अनुभव बड़ा ही रोमांटिक लगने लगता।
ख़ास मौक़े की बात भी इसी फ़िल्म में दिखाई गई है जब सलमा आगा राज बब्बर से मिलने उनके दफ़्तर जाती हैं। वो अपने सहायक को कहते हैं चाय ज़रा अच्छे वाले टी सेट में लायें। ऐसा ही हमें भेंट किया गया कटलरी सेट के साथ होता। अब मुझे ख़ास मेहमान की पहचान समझ नहीं आती तो मेरा तर्क ये रहता कि हम अपने को ही ख़ास मानकर क्यूँ न इसका इस्तेमाल करें। लेक़िन ऐसा कम ही हुआ और शायद इसलिये इतने वर्षों बाद भी उस सेट के एक दो पीस इधर उधर मिल जायेंगे।
एक और गिफ़्ट (तोहफ़े से अब गिफ़्ट हो गया) जिसका सालों साल इस्तेमाल हुआ वो थी दीवाल घड़ी। वैसी दिवाल घडी आजतक देखने को नहीं मिली। उसको किसी न किसी तरह पिताजी ने चलाये रखा। अच्छा हम जब ये कटलरी या घड़ी में खुश होते रहते, पता चलता लोगों ने टीवी, वीसीआर और न जाने क्या क्या विदेशी माल गिफ़्ट करवा लिये स्वयं को। इतना विदेशी माल का बोलबाला था।
इसी से जुड़ी एक और बात बताना चाहूँगा। फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ रहा था जिसकी लेखिका एक रेसिपी बता रही थीं (मुझे देखने से अगर लगता है की मैं सिर्फ़ खाने का शौक़ीन हूँ, तो संभल जाइए। मुझे खाना बनाने का भी शौक़ है और ये लॉक डाउन की देन नहीं है)। उसमें उन्होंने भी ऐसी ही कुछ बात लिखी थी। उन्होंने कहा की वो अच्छा वाला, महँगा वाला तेल जिसे आपने किसी ख़ास रिशेतदार के लिये बचा कर रखा है उसको इस्तेमाल करें क्योंकि आपका वो रिशेतदार आने वाले कुछ समय के लिये नहीं आ पायेगा तो अच्छा होगा की आप उस महँगे तेल में अपने लिये ही कुछ पका लें।
बहरहाल विदेशी तोहफ़े से मामला इधर उधर जा रहा है। तो जब भी कोई विदेश से आता कुछ न कुछ लाता। तोहफ़े से ज़्यादा ये सोच कर अच्छा लगता की उन्होंने हमारे बारे में सोचा (ये बड़े होने के बाद की समझदारी थी। उस समय तो बस ये देखना रहता कि क्या लाये हैं)। एक बार मेरे और छोटे भाई के लिये वीडियो गेम आया। मेरा गेम ऐसा कुछ खास नहीं था लेक़िन भाई का वीडियो गेम बड़ा अच्छा था। इसलिये ये किसी औऱ को भी पसंद आ गया क्योंकि कुछ समय बाद ये गेम घर से ग़ायब ही गया था। हम अभी भी उस शख़्स के बारे में सोचते हैं जिसने ये किया।
अगर आप किसी बड़े शहर में रहते हैं तो आप देखेंगे की किसी त्यौहार या छुट्टी के मौक़े पर जब लोग घर वापस जाते हैं तो अपने सामर्थ्य अनुसार सबके लिये कुछ न कुछ लेकर जाते हैं। जब ट्रेन से जाना होता था तब ऐसे कई लोग दिखते। जब थोड़ी समझ आयी तो हम भी बहन इस पूरे तोहफ़ा वितरण समारोह की नक़ल करते और हँसते। क्योंकि अक़्सर ये एक खानापूर्ति भी लगती। चलो उनके लिये भी कुछ ले लेते हैं। उस तरह से।
अब परिवार के इतने सारे लोग बाहर रहते हैं, या आते जाते रहते हैं की इसका कोई हिसाब नहीं। जब मुझे विदेश जाने का मौक़ा मिला तो ये समझ ही नहीं आये की क्या लिया जाये। और अब ऐसी कोई भी चीज़ नहीं है जो यहाँ नहीं मिलती है। लेक़िन अपनी समझ से कुछ न कुछ ले लिया। क्या लें इसकी परेशानी मुझे मिली एक गिफ़्ट में भी दिखी। विदेश से लौटे एक परिचित ने मुझे एक ऐसी चीज़ भेंट करदी जिसका मेरे जीवन में कोई उपयोग ही नहीं था। उसका वही हश्र हुआ जो दीवाली पर सोनपापड़ी के साथ होता है। फर्क़ सिर्फ़ ये रहा की ये डब्बा वापस नहीं आया।
उपर जो दोनों बातें हैं – एक फ़िल्मी और दूसरी असल ज़िन्दगी की – दोनो से यही ज्ञान मिलता है कि हम ख़ास मौक़े का इंतज़ार न करें। हम अक्सर कई ओढ़ने पहनने की चीजें या खाने पीने की चीजें अच्छे समय के लिये बचाकर देते हैं। वो अच्छा समय कब आयेगा इसका कोई पता नहीं होता है। तो क्यों न अभी जो मौक़ा है उसको ख़ास बनायें। आज बढ़िया ओढ़िये, पहनिये और खाइये कल की कल देखी जायेगी।
अगर आपने हॉटस्टार पर आर्या वेबसीरीज़ नहीं देखी है तो आप सुरक्षित हैं। अगर आप देख चुके हैं और आप ये पढ़ रहें हैं तो आप जानते हैं कि आप भी सुरक्षित हैं। कहानी है रईसों की लेक़िन ये इधर उधर \”मुँह नहीं मारते\”। सब घरवाले घरवाली के साथ ही मौज मस्ती करते हैं।
इस वेबसीरीज़ में सबसे उम्रदराज नानाजी और उनके नाती और बीच में बाकी सब – लगे रहते हैं। नानाजी को एक जवान फिजियो से मसाज मिलता रहता है या कहिये दोनो एक दूसरे को मसाज देते रहते हैं। नाती को पार्टी में मिली बारटेंडर से इलू इलू होता है। नातिन अपने फिरंग मौसाजी पर फिदा है। कुल मिलाकर बड़ा आशिक़ मिजाज़ परिवार है।
अब चूँकि रईस हैं तो गालियों का (हिंदी) वाली, बहुत कम इस्तेमाल है। अंग्रेज़ी वाला F तो हर दूसरे वाक्य में सुनने को मिलेगा। अब रईसों के दुख को हैंडल करने के तरीक़े भी अजीब ही हैं। पिता की मौत पर बेटा वापस घर आता है लेकिन कमरे के बजाये स्विमिंग पूल के पास पहुंच जाता है।
चलिये ठीक है। बहुत दुखी है। लेकिन ये क्या। चलते चलते अचानक वो तिरछा होकर पूल में गिर जाता है। चलते चलते होश न होना और पूल में चलते जाना तो देखा था, ये नई चीज़ देखने को मिली। डायरेक्टर साहब ने बहुत ही रिसर्च करके, इम्पैक्ट के लिये ये पूरा सीन लिखा होगा। वैसे पुत्तर को स्विमिंग से या पूल से बहुत प्यार है। वो ज़्यादा समय वहीं बिताता है और उनकी बारटेंडर दोस्त भी एकदम बिंदास होकर पूल में छलांग लगाने से पहले दोबारा नहीं सोचती। बाकी तो जो होता है वो होता है।
एक एपिसोड में सुष्मिता सेन को ख़बर मिलती है परिवार के सदस्य की मौत की। उस समय मैडम बढ़िया फैशन वाली पौशाक पहने रहती हैं (ये पूरी सीरीज़ में देखने को मिलेगा)। उनकी लुक पूरी सीरीज़ में परफ़ेक्ट है और बनाने वालों ने इसका भी तरीक़ा निकाल लिया। उनकी एक सहेली का ब्यूटी पार्लर है और वो वहाँ आती जाती रहती हैं।अभी दुखी सुष्मिता सेन पर वापस। अब वो रईस हैं तो दुःख अलग तरीके से दिखाना है। यूँ ऐसे ही आँसू बहाना बहुत ही मिडिल क्लास है। तो मैडम पूरे कपड़े बदल कर (नहीं ये सब दिखाया नहीं गया है) अपनी वर्जिश वाली ड्रेस पहन कर आती हैं। उसके बाद वो उल्टा लटकती हैं और तब उनके आँसू निकलते हैं।
वैसे सुष्मिता सेन का अभिनय देखकर आपके आँसू ज़रूर निकल सकते हैं। आप ये भी सोच सकते हैं क्यूँ उन्होंने ये सीरीज़ करी और क्यूँ लेखकगण एक सीधीसादी कहानी को संभाल नहीं पाये। एक घिसीपिटी कहानी को घिसापिटा ट्रीटमेंट ही ले डूबा। गाली और सीन की जगह इसमें दारू और सिगरेट को मिली है। सब जब मिलते हैं जाम टकराते रहते हैं, क्या बच्चे क्या बड़े और क्या बूढ़े।
इस सीरीज़ में नारकोटिक्स ऑफिसर समलैंगिक है लेक़िन ये बस कुछ मिनटों में रफा दफा कर दिया जाता है। और अगर इस दौरान आपको झपकी लग गयी हो तो आप इसको मिस कर देंगे। लेक़िन ये कहानी में कोई इतना बड़ा फेरबदल करनेवाला मुद्दा भी नहीं है तो आपने कुछ मिस नहीं किया।
मुझे ये सीरीज़ सुष्मिता सेन और राम माधवानी के लिये देखनी थी। प्रोमो देख कर उम्मीद सी जग गई थी। और हॉटस्टार की \”स्पेशल ऑप्स\” बहुत बढ़िया सीरीज़ थी। लेक़िन माधवानी और बाक़ी लोगों के बस की बात नहीं। समस्या ये है की इस शो का दूसरा भाग भी बनता दिख रहा है।
सुष्मिता सेन के घर में उनकी रसोई संभालने वाली महिला जो लगभग हर एपिसोड में रहीं, उनके बारे में कुछ ज़्यादा बताया नहीं गया। शायद पूरी सीरीज़ में तीन किरदार ही रहे जिसपर लेखकगण मेहरबान नहीं रहे। शायद ये तीनों रईस नहीं थे इसलिये?
ये सीरीज़ मुझे देखने का मौक़ा थोड़ी देर से मिला लेक़िन लगभग नौ घंटे ख़राब हो गए। अब ऐसी वेबसीरीज़ बन ही रही हैं, बनती ही रहेंगी। इनसे बचना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। तो क्या पूरी सीरीज़ में कुछभी अच्छा नहीं है? ज़रूर है। इस सीरीज़ में कई पुराने गाने, बिना बिगाड़े हुये इस्तेमाल हुये है। जैसे अमित कुमार का गाया हुआ बड़े अच्छे लगते हैं। और भी कई गाने हैं। लेकिन अगर आप गाने ही सुनना चाहते हैं तो टीवी बंद करके कहीं और सुन लीजिये। काहे को अपना कीमती समय बर्बाद कर रहे हैं।
सीरीज़ का एक डायलॉग इसको बनाने वालों पर बिल्कुल फिट बैठता है। \”भरोसा वही तोड़ते हैं जिनपे भरोसा होता है।\”
नोट: ये पूरी कहानी मैंने ट्वीट करी थी और अब उसको जोड़ कर यहाँ पेश कर रहा हूँ। जब ज़माना रीसाइक्लिंग का है तो मैंने भी कोशिश करली। अगर आपने ट्वीटर पर नहीं पढ़ी तो आपका नुकसान होने से बच गया।
अंग्रेज़ी भाषा ही मेरा पढ़ाई का माध्यम रही और उसके बाद नौकरी भी अंग्रेज़ी की सेवा में शुरू की। अब भाषा का ज्ञान होना कोई ग़लत बात नहीं है और अगर ये आपकी आजीविका का साधन बनती है तो और भी अच्छा।
अगर 2017 नवंबर भोपाल यात्रा न की होती तो क्या आज 2020 जून में मैं ये ब्लॉग हिंदी में लिख रहा होता? ये बहुत ही गहरा प्रश्न है जिसका की जवाब ढूँढने लग जायें तो समय बर्बाद ही करेंगे। वैसे हम अक्सर ऐसे ही प्रश्नों में उलझ कर ही अपना समय बर्बाद करते हैं और मिलता है सिफ़र अर्थात 0। जैसा की मैं इस समय कर रहा हूँ।
तो अंग्रेज़ी से वैसे तो मेरा कोई बैर नहीं है। लेकिन अंग्रेजी भाषा में कुछ पेंच हैं जैसा की धर्मेंद्र जी ने फ़िल्म चुपके चुपके में समझाया था। जैसे चाचा, मामा, फूफा सब अंकल में सिमट जाते हैं, बड़ा अटपटा सा लगता है। लेक़िन उसी अंग्रेज़ी में क़माल का शब्द है फ़ैमिली – परिवार। हिंदी में आज से 20 वर्ष पहले परिवार में चाचा, मामा, ताऊ सब आते थे (अभी नहीं आते हैं)। लेक़िन अब न्यूक्लियर फैमिली हो गयी है और रिश्तेदार एक्सटेंड फ़ैमिली। मामा, चाचा के बच्चे कजिन हो गए हैं। मैं जब छोटा था तब सबको अपने परिवार में गिनता, पिताजी के पास एक कार भी नहीं थी लेक़िन रिश्तेदारों की कार भी अपनी गिनता। वो तो जब गैराज खाली रहता तब समझ में आया कि अपनी चीज़ क्या होती है।
ये जो ऊपर इतना समझाने का प्रयास कर रहा हूँ उसकी असल बात तो अब शुरू हो रही है। हर परिवार में सब तरह के स्वभाव वाले लोग होते हैं। यहाँ परिवार से मेरा मतलब है चाचा, मामा, ताऊ – अंग्रेज़ी वाली फैमिली। एक दो लोग होते हैं जिनसे आप बहुत आसानी से बात कर सकते हैं किसी भी बारे में और एक दो लोग होते हैं जिनके होने से आप असहज हो जाते हैं। और नमूने तो भरे होते हैं (उनके बारे में बाद में)।
जैसे मेरे रिश्ते के भाई बहन जो हैं इसमें से कुछ से बहुत नियमित रूप से मुलाक़ात होती रही और कुछ से सालाना वाली। जिनसे नियमित होती रही उनके मुकाबले सालाना वालों से संबंध कहीं बेहतर रहे। और सालाना वालों में से भी कुछ से ही ऐसे संपर्क बने रहे कि आज भी फ़ोन करते समय बात शुरू नहीं करनी पड़ती। इसके अलावा अब एक नीति बना ली है और उसी पर अमल करता हूँ।
भाषा ज्ञान से चलते हैं संस्कार पर क्योंकि आज का विषय यही है। हम अपने बचपन से अपनी अंतिम साँस तक अपने संस्कार के लिये जाने जाते हैं। अब ये संस्कार आप को घर से भी मिल सकते हैं या आप किसी को ये करता देख कर भी इसे अपना लेते हैं। मतलब फलाँ व्यक्ति खडूस है क्योंकि उसका व्यवहार ही वैसा है या फलाँ व्यक्ति को सिर्फ़ पैसों से मतलब है क्योंकि ये उसके संस्कार ही हैं कि उसको पैसे के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। या कोई ऐसा व्यक्ति जो सबसे अच्छे से बात करता है, सबकी मदद करता है लेक़िन लोग उसका सिर्फ़ फायदा ही उठाते हैं। बाक़ी दो श्रेणी के व्यक्तियों की तरह ये आख़िरी श्रेणी वाला व्यक्ति इसके बाद भी अपना स्वभाव तो नहीं बदल सकता। तो वो बहुत सारे अप्रिय अनुभव के बाद भी वही करता है जो उसका दिल कहता है।
हमारे जीवन में हर एक अनुभव का अपना एक महत्व होता है। भले ही वो कितने भी कटु या कितने भी मीठे क्यों न हों, उन अनुभव से हमें सीख ही मिलती है। कोशिश हमारी ये होनी चाहिये कि उन कटु अनुभव का रस हमारे जीवन में न आये और हम अपने अनुभव जैसा अनुभव उस किसी भी व्यक्ति को हमसे मिलने पर न होने दें।
हम सब कुछ जानते नहीं हैं लेक़िन प्रयास करें तो बहुत कुछ जान सकते हैं। इस प्रयास में – अज्ञानता से ज्ञान के इस प्रयास में आप को बस सही लोगों से मदद मांगनी है। जो ये जानते हैं ज्ञान बाँटने से बढ़ता है, वो आगे आकर आपकी मदद करेंगे। सावधान रहना है आपको ऐसे लोगों से, (अ) ज्ञानी व्यक्तियों से, जो अंदर से खोखले हैं और आपको भी उसी और धकेल देंगे। इन महानुभावों को पहचाने और दूर रहें।
Any new series and your expectations go up and Aarya was no exception. With big names like Sushmita Sen and Ram Madhvani behind the project and it was billed as Sen\’s comeback.
The promos looked promising and two dialogues from the promo caught my attention. The first was \’Dhande main mard bache hi nahin hain\’ and second was \’Bharosa wohi todte hain Jin Par Bharosa Toda Jaata Hai\’. The writer in me was really looking forward to more such dialoguebaazi in the web series.
Eleven day late, I finally watched the series over two nights. All my initial enthusiasm came crashing down in the opening episode itself. But the optimist me was hoping for a revival in the episodes ahead.
Should I be happy that I delayed the torture by 11 days or sad that I gave in too soon?
The plot Aarya is about a family where everything that can go wrong is wrong. Again these are all high society families and they have a pharmaceutical business and they deal in drugs as well. A deal, well not exactly a deal, but drug consignment is stolen and this triggers killings and stage is set for Aarya to take over.
Performance Its average for all. Sushmita Sen leads the pack and is the biggest disappointment. She has a stock expression and is a complete misfit in the lead character. Everytime she appears on the screen it gives you feeling of watching Sonam Kapoor (minus the little bit of acting Sen manages). She is decked up always.
Chandrachur Singh is bumped off in the second episode itself so he had very little to do. He comes back in bits and pieces in videos. Sikander Kher who has a soft corner for Sen never gets to do much.
Writing The biggest let down by far. I so wished that was not case but have lost count of series where writing is the main culprit. Almost all the characters have a story running and it gets really messy. You think of any character and they have a story. If it was mentioned in the passing instead of developing another story, the series would have wrapped up in five episodes. But there are so so so many sub plots. The kids have their stories. The grandfather too has one. Why was the grandmother left out? Ditto for the domestic help who is present in all the episodes. May be a lust angle, if not love, involving Sikandar Kher?
Direction With a messy script direction becomes a task and it shows. The story drags and you wish someone had focussed on the writing more instead of the shooting technique. Ram Madhvani\’s treatment leaves room for improvement – make it rooms for improvement.
The series was a disaster which was avoidable had the writers tried something new. As with all the series these days, there are love making scenes and surprise, surprise, the young and the old all get to \’perform\’ if you know what I mean. There is hint of gay angle in the story as well but that is just touched upon. I wish the writers did the same with other sub plots as well. The problem is even with a tried and tested formula, the script falls flat on its face. There is a sequel in the offing and I am going to give it a miss (whenever it happens).
ट्विटर पर कल किसी ने एक सवाल पूछा की अगर आपकी ज़िंदगी कोई फ़िल्म होती तो आप उसको क्या रेटिंग देते। अर्थात आप उसको 5 में से कितने स्टार * देते। वैसे तो ये पूरा कार्यक्रम मज़े के लिये किया था लेक़िन लोगों के जवाब काफ़ी चौकानें वाले थे।
लगभग 90 प्रतिशत जवाब वहाँ पर नेगेटिव थे। कुछ ने अपने को – में रेटिंग दी तो कुछने अपने को 0। बहुत ही कम लोग थे जो अपनी ज़िंदगी से ख़ुश दिखे। मुझे जवाब देने वालों के बारे में कोई जानकारी तो नहीं है लेक़िन इतना कह सकता हूँ इनमें से ज़्यादातर एक मध्यम वर्गीय परिवार के तो होंगे ही। ठीक ठाक स्कूल/कॉलेज भी गये होंगे और शायद बहुत अच्छा नहीं तो ठीक ठाक कमा भी रहे होंगे। फ़िर इतनी निराशा क्यूँ?
ज़िन्दगी से शिक़ायत होना कोई बुरी बात नहीं लेक़िन अगर मैं स्वयं अपने बारे में अच्छा नहीं सोचूंगा तो राह चलता कोई भी व्यक्ति जिसके पास अपने ही कई झमेले होमगे, ऐसा क्यूँ करेगा। हम में से किसी की भी ज़िन्दगी परफ़ेक्ट नहीं होगी लेक़िन ये हमारी सोच ही इसे बेहतर बना सकती है।
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कुछ साल पहले की बात है। मैं अपने तत्कालीन बॉस से किसी विषय पर चर्चा कर रहा था। बात करते करते मैंने उन्हें कुछ कह दिया। शायद दीवार फ़िल्म में जैसा शशि कपूर जी अमिताभ बच्चन जी से कहते हैं और जवाब में अमिताभ बच्चन कहते हैं \”उफ़्फ़ तुम्हारे ये उसूल, ये आदर्श\”।
हमारे बीच बातचीत टीम के सदस्यों को लेकर चल रही होगी और मैं उनका मुखिया होने के नाते उनके लिये ही कुछ बोल रहा होऊँगा इसका मुझे पक्का यक़ीन है। लेक़िन बॉस ने जो कहा उससे मुझे थोड़ा दुख भी हुआ और थोड़ा आश्चर्य भी।
पिछले कुछ हफ़्तों से घर में एक बड़े समारोह की तैयारी चल रही थी। कोरोना के चलते ये अब एक इंटरनेट पर होने वाली गतिविधि बन गया था। इसके लिए हमें बहुत से पुराने पारिवारिक मित्रों को ढूंढना पड़ा और कई रिश्तेदारों से भी संपर्क में आने का मौक़ा मिला। बहुत से ऐसे लोग जिनसे हम वर्षों से मिले नहीं, और बहुत से ऐसे जिनसे हम कई बार मिलते रहे हैं – सब मिले।
इस समारोह में कई बार ऐसा हुआ कि जब किसी से बात करी तो उस दिन वो बॉस से हुई बात याद आ गयी। मेरे कुछ कहने पर उन्होंने कहा \”अरे यार कहाँ तुम ये मिडिल क्लास वैल्यू को लेकर बैठे हुये हो। इनको कोई नहीं पूछता\”। वो शायद मुझे चेता रहे थे कि आज इन चीज़ों का कोई मतलब नहीं है तो मुझे भी बहुत ज़्यादा इमोशनल नहीं होना चाहिये।
जबसे इस कार्यक्रम के सिलसिले में बात करना शुरू हुआ तो मुझे उनकी याद आ गयी और याद आया अपना जवाब। मैंने उन्हें कहा, \”सर ये किसी के लिये भी दकियानूसी या बेकार हो सकती हैं, लेक़िन मेरे लिये ये बहुत अनमोल हैं क्योंकि इन्ही को मानते हुये मैं जीवन में आगे बढ़ा हूँ औऱ मेरा व्यक्तित्व इनसे ही बना है। मेरा विश्वास इनमें है किसी और का हो न हों। और मैं चाहता भी नहीं की कोई मुझे इनके सही, ग़लत होने का कोई सबूत दे\”।
पिछले दिनों जिनसे भी बात हुई सबने मेरे माता-पिता के बारे में ख़ूब सुंदर बोल बोले, लिखे और उनके प्रति अपना आदर, प्रेम सब व्यक्त किया। किसी ने बहुत ही छोटी सी बात बताई की अगर कोई आपको बुलाये तो क्या है या हाँ की जगह जी कह कर जवाब दिया जाये ये सीख उन्हें पिताजी से मिली तो किसी ने उनके व्यक्तित्व की सरलता बताई जिसके चलते कोई बड़ा या कोई छोटा, सब उनसे अपनी बात कर सकते थे।
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ग्लास आधा भरा है या आधा खाली ये आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।
आज वैसे तो मन था एक और मीडिया से जुड़ी पोस्ट लिखने का लेक़िन कुछ और लिखने का मन हो रहा था। तो मीडिया की अंतिम किश्त कुछ अंतराल के बाद।
फ़िर क्या लिखा जाये? ये सवाल भटकाता ही है क्योंकि लिखने को बहुत कुछ है मगर किस विषय पर लिखें हम? ये सिलसिला वाला डायलॉग अमिताभ बच्चन की आवाज़ में कुछ और ही लगता है और साथ में रेखा। फिल्मी इतिहास में इससे ज़्यादा रोमांटिक जोड़ी मेरे लिये कोई नहीं है।
वैसे ही जब किताबों की बात आती है तो धर्मवीर भारती जी की \’गुनाहों का देवता\’ एक अलग ही लेवल की किताब है। देश में इतनी उथलपुथल मची हुई है और मैं इस किताब की चर्चा क्यों कर रहा हूँ? अब देखिए देश और दुनिया की हालत तो आप तक पहुँच ही रही होगी। तो मैं काहे की लिये उसपर आपका और अपना समय गावउँ। वैसे भी दिनभर समाचार का ओवरडोज़ हो जाता है तो शाम को इससे परहेज़ कर लेता हूँ।
खबरें पता रहती हैं लेक़िन उसके आगे कुछ नहीं करता। तो वापस आते हैं क़िताब पर। किसी देवी या सज्जन ने ये क़िताब पहली बार पढ़ी और उन्हें कुछ खास अच्छी नहीं लगी। ये बात उन्होंने सोशल मीडिया पर शेयर भी कर दी। बस फ़िर क्या था, दोनों तरफ़ के महारथी टूट पड़े। कुछ ने क़िताब को अब तक की सबसे बेहतरीन रोमांटिक और ट्रैजिक किताब बताया तो कुछ लोगों ने भी यही बोला की उनको किताब कुछ खास नहीं लगी और ये भी समझ नहीं आया कि क्यों लोग इसके दीवाने हैं।
कुछ पाठकों का कहना था कि कोई भी क़िताब उम्र के अलग अलग समय पर अलग अलग प्रभाव छोड़ती है। मसलन गुनाहों का देवता आपकी जवानी में आपको बहुत।प्रभावित करेगी क्योंकि उम्र का वो दौर ही ऐसा होता है। लेक़िन वही किताब आप जब 30-35 के होते हैं तब न तो वो इतनी ख़ास लगती है और उसमें कही बातें भी हास्यास्पद लगती हैं।
ये बात है तो बिल्कुल सही। लेक़िन तब भी मैं इससे इतेफाक नहीं रखता। इसका कारण भी बड़ा ही सादा है – जैसे आप किसी रिश्ते को उसके शुरुआती दौर में अलग तरह से देखते हैं और कुछ समय के बाद आपका नज़रिया बदल जाता है। वैसे ही किताब के साथ है। आपने उसको प्रथम बार जब पढ़ा था तब आपकी मानसिक स्थिति क्या थी और आज क्या है। दोनों में बहुत फ़र्क़ भी होगा। समय और अनुभव के चलते आप कहानी, क़िरदार और जो उनके बीच चल रहा है उसको अलग नज़रिये से देखते, समझते और अनुभव करते हैं।
मेरे साथ अक्सर ये होता है की पहली बार अगर कोई क़िताब पढ़ी या फ़िल्म देखी तो उसमें बहुत कुछ और देखता रहता हूँ। लेक़िन दोबारा देखता हूँ तब ज़्यादा अच्छे से फ़िल्म समझ में भी आती है और पहले वाली राय या तो और पुख़्ता होती है या उसमें एक नया दृष्टिकोण आ जाता है।
हालिया देखी फिल्मों में से नीरज पांडे जी की अय्यारी इसी श्रेणी में आती है। जब पहली बार देखा तो बहुत सी चीज़ें बाउंसर चली गईं। लेक़िन इस बीच जिस घटना से संबंधित ये फ़िल्म थी उसके बारे में कुछ पढ़ने को मिला और उसके बाद फ़िल्म दोबारा देखी तो लगा क्या बढ़िया फ़िल्म है। वैसे फ़िल्म फ्लॉप हुई थी क्योंकि कोई भी दो बार क्यों इस फ़िल्म को सिनेमाहॉल में देखेगा जब पहली बार ही उसे अच्छी नींद आयी हो।
किताबों में हालिया तो नहीं लेक़िन अरुंधति रॉय की \’गॉड ऑफ स्माल थिंग्स\’ एकमात्र ऐसी किताब रही है जिसको मैं कई बार कोशिश करने के बाद भी 4-5 पेज से आगे बढ़ ही नहीं पाया। शायद वो मुझे जन्मदिन पर तोहफ़ा मिली थी। फ़िर किसी स्कॉलर दोस्त को भेंट करदी थी पूरा बैकग्राउंड बता कर क्योंकि दुनिया बहुत छोटी है और इसलिये भी की दीवाली पर सोनपापड़ी वाला हाल इस किताब का भी न हो।
बहरहाल ऐसा हुआ नहीं। लेक़िन ऐसी किताबों की संख्या दोनो हाँथ की उंगलियों से भी कम होंगी ये सच है। वहीं कुछ ऐसी किताबें, फिल्में भी हैं जिनको उम्र छू भी नहीं पाई है। जब बात फ़िल्मों की हो रही है तो एक बात कबुल करनी है – मैंने आजतक मुग़ल-ए-आज़म और दीवार नहीं देखी हैं। दोनो ही फिल्मों के गाने औऱ डायलॉग पता हैं लेक़िन फ़िल्म शुरू से लेकर अंत तक कभी नहीं देखी।
जब भी मौक़ा मिला तो कुछ न कुछ वजह से रह जाता। उसके बाद मैंने प्रयास करना भी छोड़ दिया और धीरे धीरे जो थोड़ी बहुत रुचि थी वो भी जाती रही। अब मुग़ल-ए-आज़म रंगीन हो गई है तो देखने का और मन नहीं करता। मधुबाला जी ब्लैक एंड व्हाइट में कुछ अलग ही खूबसूरत लगती थीं।
तो बात किताब से शुरू हुई थी और फ़िल्म तक आ गयी। जिस तरह मेरे और कई और लोगों का मानना है गुनाहों का देवता एक एवरग्रीन किताब है और अगर किसी को पसंद नहीं आयी तो…
वैसे ही क्या मुग़ल-ए-आज़म या दीवार न देखना क्या गुनाहों की लिस्ट में जोड़ देना चाहिये? या कुछ ले देके मामला सुलझाया जा सकता है? दोनों ही फिल्में निश्चित रूप से क्लासिक होंगी लेक़िन मुझे उनके बारे में नहीं पता। हाँ मैंने कुछ और क्लासिक फ़िल्में देखी हैं जैसे दबंग 3, जब हैरी मेट सेजल और ठग्स ऑफ हिन्दुतान को भी रख लीजिये (इतना संजीदा रहने की कोई ज़रूरत नहीं है)। मुस्कुराइये की आधा साल खत्म होने को है!
क्या ऐसी कोई फ़िल्म या किताब है जिसके लोग क़सीदे पढ़ते हों लेकिन आपको कुछ खास नहीं लगी या आपने वो पढ़ी ही नही? या कोई फ़िल्म जिसे आपने देखने की कोशिश भी नहीं करी? कमेंट कर आप बता सकते हैं और मुझे कंपनी दे सकते हैं।
पुराने ऑफिस में ये धमाल चल रहा था तो नौकरी ढूँढने का काम शुरू किया। मुझे एक शख्स मिले जो एक बिल्कुल ही अलग क्षेत्र से आते थे लेक़िन अब मीडिया में कार्यरत थे। उनसे एक मुलाकात हुई थी और बात फ़िर कुछ रुक सी गयी थी। अचानक एक शाम उन्होंने मिलने के लिये बुलाया।
इस मुलाक़ात के समय से ख़तरे की घंटी बजना शुरू हुई थी लेक़िन मैंने उसे नज़रअंदाज़ किया। जो घंटी थी वो थी दोनों ही शख्स – पहले वाले महानुभाव और अब ये – बात ऐसे करते की आप झांसे में आ जाते। ख़ैर मुलाकात हुई और उन्होंने कंपनी के शीर्ष नेतृत्व से मिलने के लिये बुलाया।
माई बाप सरकार
जबसे मैंने पत्रकारिता में कदम रखा है तबसे सिर्फ़ शुरुआती दिनों में एक अखबार में काम किया था तब न्यूज़रूम का मालिकों के प्रति प्रेम देखा था। उसके बाद से एक अलग तरह के माहौल में काम किया जहाँ आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि मायने नहीं रखती थी। लगभग 18 वर्षों बाद मैं वापस उस माहौल में पहुँच गया।
इतने वर्षों में मालिकों के पास और महँगी गाड़ियाँ आ गईं थीं और सबसे नया मोबाइल फोन। लेक़िन मानसिकता वही माई बाप वाली जारी थी। माहौल पूरा अजीबोगरीब था। आपको ऑफिस में किसी से बात नहीं करनी थी और दुनिया इधर की उधर हो जाये आपके काम के घंटे पूरे होने चाहिये।
नई जगह जॉइन करने के दूसरे दिन बाद समझ में आ गया था ग़लती हो गई है। अब हम मध्यम वर्गीय परिवार के लिये नौकरी बहुत ज़रूरी होती है। अगर किसी कारणवश आप घर पर बैठ भी जायें तो ज़्यादा दिन तक ये चलता नहीं। तो मैंने भी इन सब विचारों को ताक पर रखकर काम पर ध्यान देना शुरू किया।
एक दो अच्छे सहयोगी मिले जो अच्छा काम करने की इच्छा रखते थे। लेकिन माहौल ऐसा की आपके हर कदम पर नज़र रहती। आप कितने बजे लंच के लिये गये, कब वापस आये ये सब जानकारी मैनेजमेंट के पास रहती थी।
सब चलता है
आफिस पॉलिटिक्स से मेरा कभी भी पाला नहीं पड़ा था। लेक़िन इस नए संस्थान में ये संस्कृति बेहद ही सुचारू रूप से चालु थी। मेरा एक मीटिंग में जाना हुआ जहाँ और भी विभागों से जुड़े संपादक मंडल के लोगों का आना हुआ। जैसे ही मालिक का प्रवेश हुआ तो सब ने नमस्ते के साथ चरण स्पर्श करना शुरू किया। मेरे लिये ये पूरा व्यवहार चौंकाने वाला था और मैं अपनी पहली नौकरी के दिन याद करने लगा।
उस समय भी मालिक को सिर्फ़ न्यूज़रूम में कदम रखने की देरी थी की सब खड़े हो जाते। निश्चित रूप से मालिकों के ईगो को इससे बढ़ावा मिलता होगा इसलिये उन्होंने कभी भी ये ज़रूरी नहीं समझा कि इस पर रोक लगाई जाये। इस नई जगह पर भी यही चल रहा था।
आसमान से गिरे और ख़जूर में अटके वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। मैं सिर्फ़ इस इंतज़ार में था की मुझे जल्दी से उस शहर भेज दिया जाये जहाँ से मुझे नया काम शुरू करना था। जब ऐसी दूरी हो जाये तो थोड़ी राहत तो मिलती है। एक बार फ़िर नई टीम बनानी थी। लोग खोजे गये और ये कार्यक्रम शुरू हुआ। नये ऑफिस को लेकर ढ़ेर सारे वादे किये गये। ऑफिस इस सोशल मीडिया कंपनी के ऑफिस की टक्कर का होगा, ये होगा, वो होगा। लेक़िन सब बातें।
मेरा प्रत्याशी
ये जो शख्स थे ये एक कैंडिडेट के पीछे पड़े हुये थे की इनको लेना है। मैंने थोड़ी पूछताछ करी तो कुछ ज़्यादा ही तारीफें सुनने को मिलीं इन महोदय के बारे में और मैंने मना कर दिया। पहले तो शख्स बोलते रहे तुम्हारी टीम है तुम देखो किसको लेना है। लेक़िन उन्होंने इन महोदय को फाइनल कर लिया और नौकरी भी ऑफर कर दी।
अच्छा ये शख्स की ख़ास आदत थी। ये सबकी दिल खोलकर बुराई करते। क्या मालिक, क्या सहयोगी। ऐसी ऐसी बातें करते कि अगर यहाँ लिखूँ तो ये एडल्ट साइट हो जाये। मुझे इन सब में कोई दिलचस्पी नहीं थी और जब अंततः शहर छोड़ने का सशर्त आदेश मिला तो लगा अब ये सब चक्कर ख़त्म। लेक़िन अभी तो कुछ और नया शुरू होने वाला था।
शर्त ये थी कि हम दो लोग जो उस ऑफिस में शीर्ष अधिकारी होंगे वो किसी केबिन में नहीं बैठेंगे। क्यों नहीं बैठेंगे ये पता नहीं, लेक़िन ये बात बार बोली गयी और हमें भी ये स्वीकार्य थी। आज़ादी बड़ी बात लग रही उस समय।
नया शहर पुरानी आदतें
नया शहर, कुछ पुराने, ढ़ेर सारे नये लोगों के साथ काम शुरू किया। मुझे लग रहा था अब शांति से काम होगा लेक़िन मैं एक बार फ़िर गलत था। कुछ दिनों के अंदर पता तो लग गया था की शख्स जी दरअसल हर चीज़ पर कंट्रोल रखने में दिलचस्पी रखते हैं। आप की किसी दूसरी कंपनी में काम को लेकर अगर कोई मीटिंग हो तो उनको सब पता होना चाहिये और सब जगह के ईमेल, फ़ोन नंबर उन्हें दिए जाने चाहिये। लेक़िन निर्णय लेने में इनके पसीने छूटते क्योंकि इनके हाँथ में भी कुछ नहीं था। कोई बड़ी विदेशी कंपनी हो तो ये सब कुछ स्वयं ही करते। आपको बस साथ में जाकर नोट लेना होता।
अब मैं दूसरे शहर में था तो फ़ोन उनका सबसे बड़ा सहारा था। सुबह शाम फोन पर फ़ोन, मैसेज पर मैसेज। मेरी ये आदत नहीं रही कि उनको फ़ोन पर हाज़री लगवाउँ तो मैंने फ़ोन पर बातें कम करदीं और मूड नहीं होता तो बात नहीं करता। लेक़िन साहब को ये नहीं भाया और उन्होंने टीम से एक बंदे को अपना संदेशवाहक बनाया। इसका पता तब चला जब मैंने दो तीन लोगों की एक मीटिंग बुलाई थी। बाहर निकलने पर उन्होंने फोन करके पूछा मीटिंग कैसी रही। उनकी तरफ से संदेश साफ था – मेरे पास और भी तरीकें हैं खोज ख़बर रखने के।
एक दो महीने काम ठीक से चलना शुरू हुआ था की शख्स ने फ़रमाइश करना शुरू कर दिया कि जिन महोदय को इन्होंने रखा है उनको और बडी ज़िम्मेदारी दी जाये। इन दो महीनों में इन महोदय का सारा खेल समझ में आ चुका था। काम में इनकी कोई रुचि नहीं थी। टीम की महिला सदस्यों के आगे पीछे घूमना और फ़ालतू की बातें करना इनका पेशा था। शख्स के जैसे ये भी बोल बच्चन और काम शून्य।
मैं किसी तरह इसको टालता रहा। लेक़िन शख्स को जो कंट्रोल चाहिये था उसकी सबसे बड़ी रुकावट मैं था। मैं किसी भी विषय में निर्णय लेना होता तो बिना किसी की सहायता से ले लेता। अब अग़र उस ऑफिस का मुखिया मैं था तो ये मेरे अधिकार क्षेत्र में था। लेक़िन उनको ये सब नागवार गुजरता क्योंकि उनकी पूछपरख कम हो जाती।
जैसी उनकी आदत थी, वैसे वो मेरे बारे में मेरे अलावा पूरे ऑफिस से बात करते और अपना दुखड़ा रोते। एक दो बार वो आये भी नये ऑफिस में और मुझे अपनी तरफ़ रखने के लिये सब किया। लेक़िन मुझे ऐसे माहौल में काम करने की आदत नहीं थी और न मैंने वो चीज़ इस नये ऑफिस में आने दी थी। हमारी एक छोटी सी प्यारी सी टीम थी और सब एक अच्छे स्वस्थ माहौल में काम कर रहे थे।
अंदाज़ नया खेल पुराना
तब तक इस शख्स का भी संयम जवाब दे रहा था। उन्होंने नया पैंतरा अपनाया और अब व्हाट्सएप में जो ग्रुप था वहाँ मेसेज भेजते और वहीं खोज ख़बर लेते। इसके लिये भी मैंने उनको एक दो बार टोका। जब नहीं सुना तो मैंने भी नज़रंदाज़ करना शुरू कर दिया। काम हो रहा था और सबको अपना काम पता था। लेक़िन उनको परेशानी ये थी कि दूसरे शहर में हम लोग क्या कर रहे थे उनको इसका पूरा पता नहीं मिलता।
मेरे वरिष्ठ सहयोगी को मैंने बोल रखा था अग़र कोई बात तुम्हें मुझसे करनी हो या मुझे तुमसे तो सीधे बात करेंगे। बाक़ी ऊपर वालों को मैं संभाल लूँगा।
आज जब सब वर्क फ्रॉम होम की बात करते हैं और इसके गुण गाते हैं तो मुझे याद आता है दो साल पहले का वो दिन। हुआ कुछ ऐसा की जिस सदस्य की रात की ड्यूटी थी उसको किसी कारण अपने गृहनगर जाना पड़ा। मुझे पता था और मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं थी कि वो काम दुनिया के किस हिस्से से हो रहा था। काम हो रहा था ये महत्वपूर्ण था।
ऑफिस में शख्स को ये बात पता चली और कुछ दिनों में वो साक्षात दर्शन देने आ गये। उन्होंने सबकी क्लास ली और कड़ी चेतावनी दी कि अब से लैपटॉप से आपकी लोकेशन भी ट्रैक की जायेगी। मेरे समझाने का कोई फायदा नज़र नहीं आ रहा था। उसपर से शीर्ष नेतृत्व ने कहीं से एक स्टडी निकाली जिसके मुताबिक़ घर से काम करने से फ़ायदा कम और नुकसान ज़्यादा था। आज पता नहीं उस स्टडी का क्या हाल होगा।
दोस्त के नाम पर…
शख्स जैसा व्यक्ति मैंने आज तक नहीं झेला था। वो सोशल मीडिया पर टीम के सदस्यों को अपना दोस्त बनाते और उसके बाद उनकी जासूसी करते। मसलन कौन कहाँ घूमने गया है, उसके साथ कौन है और कौन किसकी कौनसी फ़ोटो को लाइक कर रहा है। ये सब करने के बाद वो बताते फलाँ का चक्कर किसके साथ चल रहा है। आप कंपनी के बड़े अधिकारी हैं, काम की आपके पास कमी है नहीं। इन सब में क्यों अपना टाइम बर्बाद कर रहे हैं? उसके बाद जब वो ये कहते कि वो रात को फलाँ धर्मगुरु का उपदेश सुनकर ही सोते हैं तो लगता गुरुजी को पता नहीं है उनके शिष्य कितने उच्च विचार रखते हैं।
शिकंजा धीरे धीरे कसता जा रहा था। इसी सिलसिले में कंपनी ने एक और अधिकारी की नियुक्ति करी अपने दूसरे ऑफिस से। मैं अक़्सर लोगों को पहचानने में ग़लती करता हूँ और इस बार भी वही हुआ। इस पूरे नये ऑफिस में सभी लोग बाहर के थे – मतलब कंपनी के नये मुलाज़िम थे। कंपनी को अपना के संदेशवाहक रखना था और वो ये साहब थे।
ये साहब ने भी गुमराह किया कि वो इस ऑफिस में काम करने वालों के हितेषी हैं लेक़िन उन्होंने भी अपनी पोजीशन का भरपूर फ़ायदा उठाया, कंपनी के नियमों की धज्जियां उड़ाईं और खूब जम के राजनीति खेली।
एक दिन शख्स का फ़िर फोन आया और वो महोदय की पैरवी करने लगे। उनको वो टीम में एक पोजीशन देना चाहते थे और अभी भी मैं उसके ख़िलाफ़ था। उन्होंने मेरे कुछ निर्णय पर भी सवाल उठाने शुरू किये और एक दिन हारकर मैंने उन्हें वो तोहफा दे दिया जिसका उन्हें एक लंबे समय से इंतज़ार था। अगर भविष्य में ये शख्स किसी बड़ी देसी या विदेशी कंपनी के बडे पद पर आसीन हो जायें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। और जिस दिन ये होगा उस दिन से वो कंपनी बर्बाद होना शुरू हो जायेगी।
इस कंपनी के लगभग एक वर्ष बहुत ही यादगार रहे। बहुत सी कड़वी यादें थीं तो कुछ मीठी भी। नौकरी बहुत महत्वपूर्ण होती है लेक़िन उस नौकरी का क्या फ़ायदा जो आपको चैन से सोने भी न दें। सीखा वही जो इससे पहले सीखा था – कॉरपोरेट में कोई किसी का सगा नहीं होता।
मीडिया कीचड़ है
मीडिया इंडस्ट्री नई तकनीक के साथ आगे तो बहुत निकल गया लेक़िन इंसानियत में बहुत पीछे चला गया है। लोगों को कम तन्ख्वाह देना और उनका ख़ून चूस लेना जैसे एक नियम से है। ये सभी पर लागू नहीं होता लेक़िन अधिकतर संस्थायें ऐसी ही हैं। उसपर भाई भतीजावाद भी जम कर चलता है। आप का \’दूसरा\’ टैलेंट आपका भविष्य तय करता है। ऐसे दमघोंटू माहौल में जो रह जाते हैं और काम कर पाते हैं और बाकी लोगों जैसे नहीं बनते उनको मेरा नमन। ये मेरी ही कमी है की मुझे काम के अलावा और कुछ, जैसे चापलूसी, राजनीति करना या लोगों का शोषण करना, नहीं आता। जिनके साथ मैंने काम किया है वो शायद इससे भिन्न राय रखते होंगे। उनसे मेरा सिर्फ़ इतना कहना है वो ये पता करलें जो मेरे साथ थे वो सब इस समय कहाँ हैं। जवाब इसी में है।
अपने काम करने के तीन वर्ष मेरे लिये बहुत ही कष्टदायक रहे। अगर इसमें मेरे काम की गलती होती तो मैं मान भी लेता। लेक़िन इतनी घटिया राजनीति और उससे भी घटिया मानसिकता वाले लोगों और मालिकों के साथ काम किया है की अब उनसे दूर रहना ही बेहतर है। पहले लगता कुछ नहीं बोलना चाहिये काहे को अपने लिये परेशानी खड़ी करना। लेक़िन फ़िर लगता अगर किसी को काम करना होगा तो वो काम करने की काबिलियत देखेगा। बाक़ी चीजों के लिये मैं सही कैंडिडेट नहीं हूँ।
जिस दिन मैं चुपचाप ऑफिस से और उसके बाद शहर से निकला तो बहुत दुखी था। टीम के साथ बहुत सारे काम करने का सपना था। लेक़िन बहुत से अधूरे सपने लेकर वापस घर आ रहा था और मेरे लिये यही सबसे बड़ा सुकून था।
ये भी गुज़र जायेगा। आप इसे उम्मीद कहें या आशा, हमारे जीवन में इसका एक बहुत ही बड़ा रोल होता है। जैसे अभी इस कठिन दौर में ही देखिये। सबने सरकार से उम्मीद लगा रखी है और ऐसे में जब उम्मीद पर कोई खरा न उतरे तो दुख होता है।
ये तो बात हुई सरकार की। लेकिन हम अपने आसपास, अपने परिवार, रिश्तेदारों में ही देखिये। सब कुछ न कुछ उम्मीद ही लगाये बैठे रहते हैं। जब बात ऑफिस की या आपके सहयोगियों की आती है तो ये उम्मीद दूसरे तरह की होती हैं और अगर कोई खरा नहीं उतरता तो बुरा भी लगता है और अपने भविष्य की चिंता भी।
पिछले दिनों मेरे एक पुराने सहयोगी से बात हो रही थी नौकरी के बारे में। ऐसे ही बात निकली कैसे लोग अपनी ज़रूरत में समय आपको भगवान बना लेते हैं और मतलब निकलने पर आपकी कोई पूछ नहीं होती। ये सिर्फ़ नौकरी पर ही लागू नहीं होता मैंने निजी जीवन में ऐसे कई उदाहरण देखे हैं। इससे संबंधित मैंने अपना अनुभव साझा भी किया उनके साथ। बात खत्म हो गयी लगती थी।
लेकिन पिछले दो दिनों से डिप्रेशन के विषय में बहुत सारी कहानियां पढ़ी। ये मनगढ़ंत नहीं बल्कि लोगों की भुगती हुई बातें थीं। आज फ़ेसबुक पर नज़र पड़ गयी और मैंने एक पोस्ट पढ़ना शुरू किया। जैसे जैसे पढ़ता गया लगा मेरे ही जैसे कोई और या कहूँ तो लगा मेरी आपबीती कोई और सुना रहा था। सिर्फ़ जगह, किरदार और इस समस्या से उनके निपटने का अंदाज़ अलग था। उनके साथ ये सब उनके नये संपादक महोदय कर रहे थे और मैं एक संपादक कंपनी के मैनेजमेंट के हाथों ये सब झेल रहा था।
इस बारे में मैंने चलते फ़िरते जिक्र किया है लेक़िन मुझे पता नहीं क्यों इस बारे में बात करना अच्छा नहीं लगा। आज जब उनकी कहानी पढ़ी तो लगा अपनी बात भी बतानी चाहिये क्योंकि कई बार हम ऐसे ही बहुत सी बातें किसी भी कारण से नहीं करते हैं। लेक़िन अब लगता है बात करनी चाहिये, बतानी चाहिये और वो बातें ख़ासकर जो सिर्फ़ और सिर्फ़ अच्छाइयों के बारे में न हों।
चक्र की शुरुआत
साल 2014 बहुत ही बढ़िया रहा। टीम ने बेहतरीन काम किया था। चुनाव का कवरेज बढ़िया रहा। कुल मिलाकर एक अच्छे दौर की शुरुआत थी।आनेवाले दो साल भी ठीक ठाक ही गुज़रे। ठीक ठाक ऐसे की जब आप अच्छा काम करके एक मक़ाम पर पहुँच जाते हैं तो आपसे उम्मीद बढ़ जाती है। आप भी एक नशे में रहते हैं और जोश खरोश से लगे रहते हैं। ये जो प्रेशर है ये आपकी ज़िंदगी का हिस्सा बन जाता है और साथ में दे देता है आपको कई बीमारियों की सौग़ात बिल्कुल मुफ्त। आप उस समय एक अलग दुनिया में होते हैं। पैसा भी होता, नाम भी और शोहरत भी। मेरी टीम हार जगह अव्वल आ रही थी। लेक़िन इसके यहाँ तक पहुंचने की मैंने एक कीमत अदा करी थी जिसका खुलासा 2016 में डॉक्टर ने किया।
मुझे याद है इस समय मेरी टीम में कई नये सदस्यों का आना हुआ। हमने और अच्छा काम किया। मुझे बाक़ी टीम से बात करने को कहा जाता की अपना फॉर्मूला उनके साथ साझा करूं। लेक़िन मेरे पास कोई फॉर्मूला नहीं था। मेरे पास सिर्फ़ टीम थी और उनपर विश्वास की कुछ भी हो सकता है। मेरी टीम में इतना विश्वास देख मेरे एक वरिष्ठ ने चेताया भी की ये कोई तुम्हारे साथ नहीं देंगे। तुम पीठ दिखाओगे और ये तुम्हारी बुराई शुरू कर देंगे। मुझे इससे कोई ख़ास फर्क़ नहीं पड़ता था (ये झूठ है ये मुझे बाद में समझ आया).
ख़ैर 2016 में कंपनी बदलाव के दौर से गुज़र रही थी। सीनियर मैनेजमेंट के सभी लोगों ने नौकरी छोड़ दी थी और नये लोगों की तलाश शुरू थी। ये जो नये महानुभाव आये ये दरअसल इसी कंपनी के पुराने मुलाज़िम थे और इन्हें अब एक वरिष्ठ अधिकारी बनाकर लाया जा रहा था। मैं इनके साथ पहले काम कर चुका था जब ये पहले कंपनी का हिस्सा थे। जब पता चला कौन होगा नया बंदा तो लगा अच्छा है। मैं कितना ग़लत था ये आनेवाले दिनों में मुझे पता चला।
बदले बदले से मेरे सरकार नज़र आते हैं
इन महानुभाव के आने के बाद बदलाव धीरे धीरे होने लगे। चूँकि मेरी टीम सबसे बड़ी थी तो शुरआत हुई कुछ और सीनियर लोगों को रखने से। मुझसे कहा गया की ये मेरे सहयोगी ही होंगे और टीम अच्छे से मैनेज हो पायेगी। इन्होंने जेफ़ बेजोज़ की पिज़्ज़ा थ्योरी का भी उदाहरण दिया। इस तरह से पहले सहयोगी आ गये। अच्छा इन सबके लिये जो भर्ती हो रही थी उसमें मेरा कोई रोल नहीं था। मतलब वो लोग जो मेरे साथ काम करनेवाले थे उनका इंटरव्यू मैंने लिया ही नहीं। न मुझे उनके बारे में कोई जानकारी दी गयी।
इसके बाद दूसरे सज्जन की भर्ती की बात होने लगी। इन के साथ महानुभाव ने पहले काम किया था। चूँकि किसी कारण से उन्हें भी वो नौकरी छोड़नी पड़ी तो महानुभाव कि मानवता जगी हुई थी। इनको भी रख लिया गया। अब जो इनके पहले सज्जन थे वो ये दूसरे महापुरुष के आने से काफी विचलित थे। वो रोज़ मुझे सुबह सुबह फ़ोन करके इन महापुरुष की गाथाएं सुनाते।
ख़ैर। अब दोनों आ गये थे तो काम का बंटवारा होना था। पहले सज्जन को एक भाषा दे दी गई और दूसरे महापुरुष को राष्ट्रीय भाषा का दायित्व दिया गया। बस एक ही मुश्किल थी – महापुरुष ने इस भाषा में कभी कुछ किया नहीं था। लेकिन ये पूरा ट्रेलर था और फ़िल्म अभी बाकी थी। मुझे बहुत कुछ समझ आ रहा था और ये स्क्रिप्ट में क्या होने वाला है ये भी।
जब महानुभाव से मिलता तो पूछता मेरे लिये कोई काम नहीं बचा है। वो कहते बाकी दो भाषायें हैं उनके बारे में सोचो और स्पेशल प्रोजेक्ट पर ध्यान दो। तुम संपादक हो। इन सबमें क्यों ध्यान दे रहे हो। तुम स्ट्रेटेजी बनाओ। धीरे धीरे खेल का अंदाज़ा हो रहा था।
प्लान B
अगर पहले मेरे पास 20 काम थे तो 18 मुझसे ले लिये गये और दो रहने दिये। अब काम करना है तो करना है तो जो बाक़ी दो बचे थे उसमें भी अच्छा काम हो गया और सबकी अपेक्षाओं के विपरीत परिणाम रहे।
इस पूरे समय जो अंदर चल रहा था उसको समझ पाना थोडा मुश्किल हो रहा था। टीम का हर एक सदस्य किसी भी भाषा का हो मेरे द्वारा ही चयनित था। इसमें से बहुत बड़ी संख्या में लोगों का पहला जॉब था। अचानक उनसे बात बंद और कभी कभार बातचीत का मौका मिलता। पहले अजीब सा लगा लेक़िन मैंने भी जाने दिया क्योंकि आफिस में मैं किसी कैम्प में नहीं था। शराब पीने का कोई शौक़ नहीं था और अगर कभी पार्टी में दोस्त मिले तो बात अलग। महानुभाव को इन सबकी बहुत आदत थी। उनके साथ चंद लोगों का ग्रुप रहता था और मुझे न उसका हिस्सा बनने की कोई ख्वाहिश थी न कोई मलाल। ये उनके घर के पास रहते थे और लगभग हर हफ़्ते मिलते। मुझे इन सबसे वैसे ही कोफ़्त होती और खोखले लोगों से सख्त परहेज़। लेकिन इनकी अपनी एक दुनिया थी और उसमें ये सब साथ, बहुत खुश और बहुत कामयाब भी।
दिसंबर 2016 में टीम के साथ एक पार्टी थी। ये एक लंबे समय से टल रही पार्टी थी और कभी किसी न किसी के रहने पर टलती जा रही थी। आखिरकार दिन मुक़र्रर हुआ लेक़िन इत्तेफाक ऐसा हुआ की महानुभाव ने उसी दिन दूसरे शहर में मेरी ही दूसरी टीम के साथ पार्टी रखी थी। काम के बंटवारे के चलते उनकी पार्टी में एक बंदा नहीं जा पाया और उनको पता चला की मुम्बई की मेरी टीम पार्टी कर रही है इसके लिये उसको आफिस में रहना होगा।
दूसरे दिन महानुभाव ने मेरी पेशी लगाई। दरअसल वो बहुत समय से किसी मौके की तलाश में थे कि कैसे मुझे रास्ते से हटाया जाये। इस घटना के बाद उनकी ये मंशा उन्हें लगा पूरी होगी। लेकिन बात थोड़ी गड़बड़ ऐसे हो गयी की उनको लगा की पार्टी कंपनी के पैसे से हुई थी। जब मैंने कहा की ये मेरे तरफ़ से दी हुई पार्टी थी तो उन्होंने टीम के सदस्यों के ख़िलाफ़ एक्शन लेने की बात करी। मैने उनसे कहा कि अगर ऐसा है तो मुझसे शुरू करें और अपना त्यागपत्र भेज दिया।
महानुभाव ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं करी लेकिन उन्होंने पता ज़रूर लगाया कि जो मैंने कहा था उसमें कितनी सच्चाई थी। बाद में पता चला की इस घटना के कुछ दिनों बाद मेरे त्यागपत्र को मंज़ूर करने की सोची। लेक़िन उन्हें ऐसा नहीं करने की सलाह दी गई। मुझे भी साथ में सलाह दी गयी की मैं अपना त्यागपत्र वापस ले लूँ लेक़िन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया।
अभी तो पार्टी शुरू हुई है
अब ऑफिस जाने का मतलब हुआ करता था टाइम पास। काम न के बराबर था। मैनेजमेंट शायद ये सोच रहा था की बंदे को काम ही नहीं देंगे तो झकमारकर खुद ही नौकरी छोड़ देगा। लेकिन हम भी ढीठ ठहरे। निकालना हो तो निकालो हम नहीं जानेवाले।
इसी दौरान कहानी में एक और ट्विस्ट आया। महानुभाव ने अपनी पता नहीं किस कला से विदेश में पोस्टिंग पा ली। मतलब अब कोई औऱ आनेवाला था टार्चर करने के लिये।
जैसा कि हमेशा किसी भी बदलाव के साथ होता है, पहले से ज्ञान दिया गया कुछ भी नहीं बदलेगा। सब वैसे ही चलेगा। लेक़िन मालूम था ये सब बकवास है और आने वाले दिन और मज़ेदार होने वाले हैं। मज़ेदार इसलिये क्योंकि मेरे पास खोने के लिये कुछ बचा नहीं था। 70-80 की टीम में से अब सिर्फ़ शायद दो लोग मेरे साथ काम कर रहे थे। बाक़ी बात करने से कतराते थे। अब था सिर्फ़ इंतज़ार। कब तक मैं या दूसरी पार्टी खेलने का दम रखती थी।
जल्द ही वो दिन भी आ गया। नहीं अभी और ड्रामा बाकी था। नये महाशय ने मेल लिखा पूरी टीम को। बहुत से बदलाव किये गये थे। जिन राष्ट्रीय भाषा वाले महाशय का मैंने ज़िक्र किया है ऊपर, अब वो मेरे बॉस बन गये थे। मुझे उनको रिपोर्ट करना था और अपने काम का लेखा जोखा उनको देना था। जिस वेबसाइट को मैंने शुरू किया, जिसको टीम के साथ नई ऊचांइयों तक पहुंचाया की वो एक ब्रांड बन गयी, उसका मैं संस्थापक संपादक रहा और अब मुझे किसी और को रिपोर्ट करना था। उसको जो कभी मेरे नीचे काम कर रहा था। जुलाई की उस शाम मुझे उतना बुरा तब नहीं लगा जितना तब लगा जब मेरी एक टीम मेंबर मेरे पास आकर रोने लगीं। कहने लगीं आपके साथ ये लोग ठीक नहीं कर रहे। ख़ैर मैंने उनको समझाया लेक़िन उस बहाने शायद अपने आप को भी समझाया। ये बहुत ही कष्ट वाला दिन था।
अपना ढीठ पना तब भी दिखाया और अपने नये बॉस से काम माँग कर किया। काम करने में कोई परहेज तो था नहीं इसलिये जो मिला कर लिया। महाशय ने छोटी मोटी स्टोरीज़ लिखने को दीं और मैंने लिख भी दीं। मुम्बई में बारिश के चलते मैंने ऑफिस जाने में असमर्थता बताई तो दरियादिली दिखाते हुये महाशय ने घर से काम करने की आज्ञा दी।
और फ़िर…
महीने के आख़िरी दिन मुझे कंपनी की HR का फ़ोन आया। नहीं शायद मैसेज था ये पूछने के लिये की मैं आज ऑफिस कब आनेवाला हूँ। मैंने जवाब में उनसे पूछा की क्या कंपनी का सामान लौटाने का समय आ चुका है। उन्होंने कहा हाँ और मुझे अपना त्यागपत्र भेजने को कहा। जिस दिन ये सब चल रहा था ठीक उस दिन मैंने घर शिफ़्ट किया था। नये घर में सामान आ ही रहा था जब ये शुभ समाचार आया।
इस तरह के अंत की मुझे उम्मीद तो नहीं थी। लेक़िन ऑफिस से निकाले जाने वाली ट्रेजेडी से बच गया। 2014-2017 तक का जो ये सफर रहा इसमें शिखर बहुत ज़्यादा रहे। हर सफ़र का अंत होता है तो इसका भी हुआ। बस महानुभाव, महाशय जैसे किरदारों को ये मौका नहीं मिला कि वो मुझे सामने से जाने को कहें और शायद ये मेरी लिये सांत्वना है। मैंने बहुत सारे किस्से सुने हैं कैसे लोगों को लिफ्ट में घुसने नहीं दिया या उनका पंच कार्ड डिसएबल कर दिया। कई दिनों नहीं कई महीनों तक मैं बहुत ही परेशान रहा। क्या वो डिप्रेशन था? मुझे नहीं पता लेक़िन मेरे लिये वो महीने बहुत मुश्किल थे। वो तो मेरे परिवार से संवाद ने इसको बड़ी समस्या नहीं बनने नहीं दिया।
इसके कुछ दिनों बाद ही मुझे विपश्यना के कोर्स करने का मौका मिल गया और शायद संभलने का मौका भी। लेक़िन अंदर ही अंदर ये बात खाती रहती की सब अच्छा चल रहा था और कितना कुछ करने को था। मुझे ये भी समझ में नहीं आ रहा था क्यों मैंने सब इतनी आसानी से जाने दिया? क्यों मैंने लड़ाई नही लड़ी। लेक़िन कुछ लोगों के चलते सब ख़त्म हो गया। और उस टीम का क्या? उन्हें ढ़ेर सारी शुभकामनाएं। मुझे मेरा सबक मिल गया। लेक़िन अभी एक औऱ सबक मिलना बाकी था।
आज ढ़ेर सारा ज्ञान प्राप्त हुआ, हो रहा है। कोई अनहोनी घटना होती है और सब जैसे मौके का इंतज़ार कर रहे होते हैं। सोशल मीडिया, व्हाट्सएप आज मानसिक तनाव से कैसे बचें इससे भरा हुआ है। और सही भी है। सुशांत सिंह राजपूत का इस तरह अपने जीवन का अंत कर लेना एक बार फ़िर से हमारे मानसिक स्वास्थ्य के प्रति नज़रिये पर प्रश्न लगता है।
हमलोग बाहरी दिखाई देने वाली बातों पर ध्यान देते हैं। अगर हमें सब सही लगता है तो हम मान लेते हैं कि सब ठीक ठाक है। ये उन लोगों केलिये ठीक है जो आपको ठीक से जानते नहीं। लेक़िन उन लोगों को भी समझ न आये जो आपके क़रीबी हैं तो या तो आप अच्छे कलाकार हैं या आपको जानने वाले बेवकूफ। अगर ऊपरी परत खुरच कर देखी जाये तो शायद अंदर की बात पता चले। लेक़िन हम लोग चूँकि मानसिक स्वास्थ्य के बारे में कम जानते हैं, तो सेक्स के जैसे इस विषय पर बात नहीं करते या कतराते हैं। ये अलग बात है की सेक्स के विषय में हमें लगता है हम काफ़ी कुछ जानते हैं लेक़िन वहाँ भी ज्ञान आधा अधूरा ही रहता है। अगर हम किसी विषय के बारे में ग़लत क़िताब पढ़ेंगे तो हमारा ज्ञान सही कैसे होगा?
आज से क़रीब बीस वर्ष पहले मेरे एक रिशेतदार अपने काम के चलते या यूँ कहें अपने कुछ काम के न होने के बाद डिप्रेशन का शिकार हो गए। उस समय पहली बार ये शब्द सुना था लेक़िन बहुत ज़्यादा जानकारी नहीं मिली (ये भी कोई बात करने का विषय है)। उन्होनें कई मानसिक रोग विशेषज्ञ को दिखाया और ठीक हो गए। लेकिन इस विषय पर बात करना मना नहीं था तो खुल कर बात भी नहीं हुई।
सरकारी घर के समीप एक मानसिक रोग विशेषज्ञ रहते थे। जानते हैं लोग उन्हें क्या कह कर बुलाते थे? पागलों का डॉक्टर। अब जब इस कार्य को कर रहे डॉक्टर को इज़्ज़त नहीं मिलती तो मरीजों को कैसे मिलेगी? और फ़िर हमारा समाज। यहाँ आप पर लेबल लग गया तो निकालना मुश्किल होता है। ऐसे में कौन ये कहेगा की उन्हें कोई मानसिक परेशानी/बीमारी है? दरअसल हमनें बीमारी के अंग भी निर्धारित कर लिये हैं। फलाँ, फलाँ अंग में हो तो ये बीमारी मानी जायेगी। आपका दिमाग़ इस लिस्ट में नहीं है न ही आपके गुप्तांग।
सुशांत सिंह राजपूत शायद एक या दो फिल्मों से जुड़े लोगों में से थे जिन्हें मैं ट्विटर पर फॉलो कर रहा था। उसके पीछे एकमात्र कारण ये था की वो बहुत ही अलग अलग विषय पर ट्वीट करते थे। इस पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री में शायद वो आख़िरी शक़्स थे जिनसे मुझे ऐसे किसी कदम की उम्मीद होगी। मेरे लिये और मेरे जैसे कइयों के लिये सुशांत सिंह की ट्वीट ही उनके बारे में बताती थी। लेक़िन जो उनके क़रीब थे उनको तो ये मालूम होगा की सुशांत सिंह किस परेशानी का सामना कर रहे थे।
My 50 DREAMS & counting…! 😉 ———————— 1. Learn how to Fly a Plane ✈️ 2. Train for IronMan triathlon 🏃🏻♂️ 3. Play a Cricket Match left-handed 🏏 4. Learn Morse Code _.. 5. Help kids learn about Space. 🌌 6. Play tennis with a Champion 🎾 7. Do a Four Clap 👏 Push-Up ! (1/6) … pic.twitter.com/8HDqlTNmb6
उनके ट्वीट पढ़ कर लगता सुशांत सिंह ज़िन्दगी से भरे हुये हैं। उन्होंने अपनी एक 50 कामों की लिस्ट शेयर करी थी जो उन्होंने करने की ठानी थी। उसमें से कुछ तो उन्होंने कर भी लिये थे। उनकी रुचि फ़िल्म से इतर भी थी इसलिये भी उनके बारे में पढ़ना अच्छा लगता है। नहीं तो अक्सर जो जिस फील्ड में होता है उसी के बारे में बोलता रहता है।
चीजें अभी भी नहीं बदली हैं। फ़िल्म लव यू ज़िन्दगी में आलिया भट्ट अपने परिवार को जब बताती हैं अपनी मानसिक अवस्था के बारे में तब वो एक तरह का शॉक देती हैं अपने परिवार को। क़माल की बात ये है की आलिया भट्ट और दीपिका पादुकोण ने खुलकर अपने डिप्रेशन के बारे में बात करी लेक़िन सुशांत सिंह नहीं कर पाये।
फ़िल्म इंडस्ट्री से लोग थोक के भाव निकल कर आ रहे हैं जो इस बारे में टिप्पणी कर रहे हैं। लेक़िन अग़र सुशांत इतने लंबे समय से डिप्रेशन से लड़ रहे थे तो क्यों इंडस्ट्री ने उनका साथ नहीं दिया? क्यों परिवार ने भी उनका साथ नहीं दिया? अमूमन ऐसी कोई आ अवस्था हो तो परिवार को उसके साथ होना चाहिये था।
मेरा ये मानना है हम सब आज के इस दौर में डिप्रेशन से पीड़ित हैं। कइयों का ये बहुत ही शुरुआत के दौर में ही ख़त्म हो जाता है और कइयों का एडवांस स्तर का होता है। परिवार और दोस्तों के चलते ये आगे नहीं बढ़ता और व्यक्ति ठीक हो जाता है। जो आज बड़ी बड़ी बातें कर रहे हैं अगर वो पहले ही जग जाते तो शायद सुशांत हमारे बीच होते। मुझे दुख है सुशांत जैसे व्यक्ति जिन्होंने कई बुरे दिन भी देखे होंगे उन्होंने हार मानली।
ऐसा कितनी बार होता है जब हम किसी से मिलते हैं, किसी जगह जाते हैं या कोई फ़िल्म देखते हैं, लेकिन हम सबकी राय अलग अलग होती हैं। जैसे मैं किसी से मिला तो मुझे वो व्यक्ति बहुत अच्छा लगा लेक़िन कोई और उस व्यक्ति से मिला तो उसकी राय बिल्कुल विपरीत।
जब बात फ़िल्म की आती है तो ऐसा अक्सर होता है की आपको कोई फ़िल्म बिल्कुल बकवास लगी हो लेक़िन आपको ऐसे कई लोग मिल जायेंगे जिन्हें वो अब तक कि सबसे बेहतरीन फ़िल्म लगी हो। राय में 19-20 का अंतर समझ में आता है लेक़िन यहाँ तो बिल्कुल ही अलग राय है, बिल्कुल उल्टी राय है। तो अब ऐसे में क्या किया जाये? फ़िल्म देखी जाये या लोगों की राय मानकर छोड़ दी जाये?
फ़िल्मी बातें
चूँकि बात फिल्मों की चल रही है तो मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा। फ़िल्म थी ठग्स ऑफ हिंदुस्तान। आमिर खान की फ़िल्म थी और पहली बार वो अमिताभ बच्चन जी के साथ थे। इसलिए देखने की इच्छा तो बहुत थी। लेक़िन फ़िल्म की रिलीज़ से दो दिन पहले से ऐसी खबरें आनी शुरू हो गईं की फ़िल्म अच्छी नहीं बनी है और बॉक्स ऑफिस पर डूब जायेगी।
फ़िल्म रिलीज़ हुई और पहले दिन सबसे ज़्यादा कमाई वाली हिंदी फिल्म बनी। लेक़िन उसके बाद से कमाई गिरती गयी और फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर वो क़माल नहीं दिखाया जो उम्मीद थी। लेक़िन क्या फ़िल्म वाक़ई में इतनी ख़राब थी? लोगों की माने तो ये सही था। फ़िल्म की कमाई भी यही दर्शा रही थी।
मैंने फ़िल्म लगभग ख़ाली सिनेमाघर में देखी थी। लेक़िन फ़िल्म मुझे और मेरे साथ जो बच्चों की फ़ौज गयी थी, सबको अच्छी लगी। लेक़िन एक बहुत बडी जनता ने इन खबरों को माना औऱ फ़िल्म देखने से परहेज़ किया।
एक समय था जब मैं भी फिल्मों के रिव्यु पढ़कर ये निर्णय लेता था कि फ़िल्म देखनी है या नहीं। अब निर्णय रिव्यु से ज़्यादा इस पर निर्भर करता है की कहानी क्या है। अगर ज़रा भी लगता है की फ़िल्म कुछ अच्छी हो सकती है तो फ़िल्म देख लेते है। फ़िल्म ख़राब ही निकल सकती है लेक़िन अगर वो अच्छी हुई तो?
ऐसे ही इस साल की शुरुआत में कोरियन फ़िल्म पैरासाइट आयी थी। जिसे देखो उसकी तारीफ़ के क़सीदे पढ़े जा रहा था। किसी न किसी कारण से फ़िल्म सिनेमाघरों से निकल गयी और मेरा देखना रह गया। उसके बाद फ़िल्म ने ऑस्कर जीते तो नहीं देखने का और दुख हुआ। जब आखिरकार फ़िल्म प्राइम पर देखने का मौका मिला तो समझ ही नही आया कि इसमें ऐसा क्या था की लोग इतना गुणगान कर रहे थे। उसपर से ऑस्कर अवार्ड का ठप्पा भी लग गया था। लेक़िन फ़िल्म मुझे औसत ही लगी। आपने अगर नहीं देखी हो तो देखियेगा। शायद आप की राय अलग हो।
फ़िल्म vs असल जिंदगी
अगर बात फ़िल्म तक सीमित होती तो ठीक था। लेक़िन जब आप लोगों की बात करते हैं तो मामला थोड़ा गड़बड़ हो जाता है। बहुत ही कम बार ऐसा होता है जब सबकी नहीं तो ज़्यादातर लोगों की राय लगभग एक जैसी हो।
फिल्मों से अब आते हैं असली दुनिया में जहाँ लोगों को भी ऐसे ही रफा दफा किया जाता है या उनके गुणगान गाये जाते हैं। दोनों ही स्थितियों में जो याद रखने लायक बात है वो ये की आपकी व्यक्तिगत राय मायने रखती है। सोशल मीडिया पर मैं ऐसे कई लोगों को जनता हूँ जिनके ढ़ेर सारे फॉलोवर्स हैं। सब उन्हें बेहद प्यार करते हैं लेक़िन उनका एक दूसरा चेहरा भी है जो ज़्यादा लोगों ने नहीं देखा है।
शुरुआती दिनों में जो मेरे बॉस थे मेरा उनके साथ काम करने का अनुभव बहुत ही यादगार रहा। लेक़िन मेरे दूसरे सहयोगी की राय मेरे अनुभव से बिल्कुल उलट। उन्होंने मुझे ये बताया भी लेक़िन न तो मैं उनके बुरे अनुभव से या वो मेरे अच्छे अनुभव से राय बदलने वाले थे।
हम अक़्सर जब तक किसी से मिलते नहीं हैं तो उनके बारे में सुन सुनकर अपनी एक धारणा, अच्छी या बुरी, बना लेते हैं। लेक़िन सच्चाई तो तभी पता चलती है जब उनसे मिलते हैं। बहुत बार जैसा सुना होता है इंसान वैसा ही निकलता है। कई बार उल्टा भी होता है। इसके लिये जरूरी है की हम उस व्यक्ति को दूसरे के अनुभवों से न देखें या परखें। हम ये देखें उनका व्यवहार हमारे साथ कैसा है।
लोगों का काम है कहना
एक और फ़िल्मी उदाहरण के साथ समझाना चाहूँगा। फ़िल्म मिली में अमिताभ बच्चन के बारे में तरह तरह की बातें होती हैं जब वो उस सोसाइटी में रहने आते हैं। सब उन्हें अपने नज़रिये से देखते हैं और उनके बारे में धारणा बना लेते है। यहीं तक होता तो ठीक था। लेक़िन यही सब बातें सब करते हैं और उनकी एक विलेन की छवि बन जाती है। लेक़िन जब जया बच्चन उनसे मिलती हैं तो पता चलता है वो कितने संजीदा इंसान हैं।
पिछले दिनों फ़ेसबुक पर किसी ने पूछा की सबसे दर्द भरा गीत कौनसा लगता है। मैंने अपनी पसंद लिखी लेक़िन मुझे एक जवाब मिला कि वही गीत उनके लिये बहुत अच्छी यादें लेकर आता है। गीत वही, शब्द वही लेक़िन बिल्कुल ही अलग अलग भाव महसूस करते हैं।
अग़र सबके अनुभव एक से होते तो सबको शांति, प्यार और पैसा एक जैसा मिलना चाहिये। लेक़िन जिस शेयर मार्केट ने करोड़पति बनाये, उसी शेयर बाजार ने लोगों को कंगाल भी किया है। अगर किसी को किसी धर्म गुरु के द्वारा शांति का रास्ता मिला है तो किसी को लोगों की निस्वार्थ भाव से सेवा करके। सबके अपने अनुभव हैं जो अलग हैं और यही इनकी खूबसूरती भी है।
सुनी सुनाई बातों पर यक़ीन न करें। अपनी धारणा अपने अनुभव के आधार पर बनाये।
हर शहर की अपनी खासियत होती है। मुम्बई में इसकी भरमार है। आज भले ही मुम्बई अलग कारणों से समाचार में छाया हुआ है, लेक़िन इस मायानगरी में कई सारी खूबियां भी हैं और जो भी यहाँ आया है या तो मुम्बई उसके दिल में बस गयी है या ये शहर उसको रास नहीं आया।
जब मैं पहली बार 1996 में आया था तब मुझे शहर के बारे में ज़्यादा पता नहीं चला क्योंकि मैं एक परीक्षा देने आया था और ज़्यादा घूमना नहीं हो पाया। लेक़िन जब पीटीआई दिल्ली से यहाँ भेजा गया तो इसको जानने का सिलसिला शुरू हुआ जो आज भी जारी है।
इसी क्रम में मेरा परिचय हुआ फुटपाथ लाइब्रेरी से। हमारा ऑफिस फ़्लोरा फाउंटेन में था और नज़दीक ही कम से कम तीन ऐसी लाइब्रेरी थीं। मुझे पहले इसकी उपयोगिता समझ में नहीं आयी। लेकिन लोकल ट्रैन से सफ़र करने के बाद समझ में आ गया। मात्र 10 रुपये में कोई भी किताब आपको एक महीने के लिये मिलती है। एक महीने का समय काफ़ी होता है। ऑफिस में कई और लोगों ने भी इस लाइब्रेरी को जॉइन किया था तो आपस में किताबों की अदला बदली भी होती। मैंने इस लाइब्रेरी से बहुत सी किताबें पढ़ी।
भोपाल में ऐसी लाइब्रेरी से परिचय हुआ था जब दादाजी के साथ पास के मार्किट जाते थे। वो वहाँ से अपनी कोई किताब लेते और हमें टॉफी खाने को मिलती। बाद में लाइब्रेरी जो भी मिली वो बड़ी ही व्यवस्थित हुआ करती थीं। ब्रिटिश कॉउंसिल लाइब्रेरी में जाने का अलग ही आनंद था। पूरी लाइब्रेरी एयर कंडिशन्ड और अच्छी बैठने की सुविधा भी।
आज मुझे मुम्बई की फुटपाथ वाली लाइब्रेरी की याद राजेश जी की फ़ोटो देख कर आई। राजेश मुम्बई के अंधेरी, मरोल इलाके में अपनी ये लाइब्रेरी चलाते हैं। मुंबई में रहने वाले और लोकल से सफ़र करने वाले ज़्यादातर लोगों ने कभी न कभी राजेश जी की जैसी लाइब्रेरी का आनंद लिया होगा। ये मोबाइल के पहले की बात है। अब तो सब मोबाइल हाथ में लिये वीडियो देखते।ही नज़र आते हैं।
राजेश जी ये लाइब्रेरी चलाने के लिये तो बधाई के पात्र हैं ही, उनका ज़िन्दगी के प्रति नज़रिया भी बहुत ही सुंदर है। आज जब सब अपने ही बारे में सोचते रहते हैं, तो राजेश जी की बातें सुनकर लगता है हमें अभी और बहुत कुछ सीखना बाकी है।
जब उनसे पूछा गया वो कितना कमा लेते हैं तो राजेश ने कहा, \”लोग पैसा कमाते हैं ताकि वो उस पर ख़र्च कर सकें जो उनकी खरीदने की इच्छा है।\” किताबों की तरफ़ इशारा करते हुये उन्होंने कहा, \”मुझे जो चाहिये था मैं उससे घिरा हुआ हूँ।\”
लॉक डाउन के दौरान ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले जब लोगों ने सामान होने के बाद भी जमाखोरी करी। ऐसे में बैटर इंडिया वेबसाइट ने जब उनकी कोई मदद करने की पेशकश हुई तो राजेश ने कहा, \”बड़ी संख्या में मज़दूर मर रहे हैं। उनकी मदद करिये। मेरा पास खाने को है और मैं घर पर आराम से हूँ।\”
शायद मेरे लिये भी और आप सभी पाठकों के लिये भी ये पहला अवसर होगा जब बाहर की गर्मी का अंदाज़ा भी नहीं लगा और गर्मी अब विदा लेने को तैयार है। कोरोना के चलते पूरी गर्मी शायद चार बार बाहर निकलना हुआ होगा। हर बार गर्मी के चलते रोड पर कम लोग रहते इस बार कोरोना ने सब को घर पर बिठा कर रखा। बाहर निकलो तो किसी फ़िल्मी सीन की तरह लगता। पूरी रोड सुनसान। कोई गाड़ी नहीं, कोई लोग नहीं। सारी दुकानों के शटर बंद और इक्का दुक्का गाड़ियाँ दिख जायें तो आपकी किस्मत।
पिछले कितने सालों से एक रूटीन से बन गया था की गर्मी की छुट्टी के कुछ दिन भोपाल में बिताये गये। सब इक्कट्ठा होते और बच्चों की धमाचौकड़ी शुरू। भरी दोपहरी में क्रिकेट चालू और शाम होते होते पार्टी का माहौल। न किसी को नींद की चिंता न किसी और काम की।
काम से छुट्टी
वैसे एक काम जो हमने बच्चों के ऊपर लाद दिया वो है कूलर में पानी भरना। ये सुबह और रात की ड्यूटी थी जिसे बच्चे बख़ूबी निभाते भी। दरअसल वो एक रिश्वत होती है – पानी भर दो और फ़िर देर तक खेलने को मिलेगा।
मुझे याद है जब हम इस उम्र में थे तब कूलर वगैरह ऐसी ज़रूरत नहीं हुआ करते थे। जो पहला कूलर जो आया वो एक रूम कूलर था गुलमर्ग के नाम से। जैसा नाम वैसा काम। थोड़ी देर चलने के बाद बढ़िया ठंडक। चूंकि उसकी बॉडी लोहे की थी तो उसके किनारों से बिजली का झटका भी लगता।
पूरे घर में एक कूलर था और सब बस उसकी हवा खाते और अपने अपने गरम कमरे में चले जाते। जब कई वर्षों बाद डेजर्ट कूलर आये तब बाकी कमरों के लिये भी लिये गये। लेक़िन इनकी ठंडक गुलमर्ग के मुकाबले कुछ भी नहीं थी।
कूलर की ठंडक
गर्मियों के हर साल के काम सब फिक्स। पहले कूलर निकालो, उनकी सफ़ाई करो, उनके कूलिंग पैड्स देखों और बदलना हो तो बदलो। अच्छा आप जब कूलिंग पैड कहते हैं तो लगता है कुछ बहुत ही नायाब चीज़ होगी। लेक़िन असल में होता भूसा ही है। हाँ अगर आप कहते ख़स की टट्टी तो सब फ़िल्म चुपके चुपके में धर्मेंद्र के Go गू क्यूँ नहीं होता, बोलने पर जैसे ओम प्रकाश की पत्नी साड़ी के पल्लू से अपनी नाक ढँक लेती हैं, सब कुछ वैसे ही करते।
ख़स की जगह अब कूलिंग पैड आ गए हैं। साथ में ख़स का इत्र भी मिलता है जिसे आप साइड पैनल की घास में डालिये और ठंडक के साथ खुशबू का आनंद लीजिये। एक बार ये इत्र कुछ ज्यादा ही डल गया और उसके बाद सबका ऐसा सिरदर्द हुआ की रात को सोना मुश्किल हो गया।
अब तो कूलर की बॉडी भी प्लास्टिक की आने लगी है तो रखरखाव न के बराबर है। नहीं तो पहले कूलर को हर दो साल में पेंट करते जिससे उसकी बॉडी की उम्र बढ़ाई जा सके। लेकिन अब कूलर आते हैं वो प्लास्टिक का ढाँचा हैं। इनकी उम्र लंबी हो ही नहीं सकती।
जब हम लोग बाहर निकल गये तो पिताजी के जिम्मे ये काम आया और वो अप्रैल से ये तैयारी शुरू कर देते। मई में फौज जो आने वाली है। इस साल फौज ने अपना समय स्क्रीन के सामने गुज़ारा है।
आइसक्रीम वाली गर्मी
एक और काम जो इस साल गर्मियों में नहीं के बराबर हुआ है वो है गन्ने का रस पीना और आइस क्रीम/कुल्फ़ी खाना। कई बार रात में सब भोजन के बाद इक्कट्ठा होते किसी आइसक्रीम की दुकान पर और देर रात जब तक पुलिस की गाड़ी नहीं आती तब तक गप्पें चलती रहती।
और तपती धूप हो या ठंडी शाम, गन्ने के रास का एक गिलास और उसके साथ वो मसाला। मुझे नहीं पता जितनी बेफिक्री से किसी भी दुकान पर रुककर इसका आनंद लिया जाता था वैसे मैं कब कर पाऊँगा। फ़िलहाल उन क्षणों की याद ही मन तृप्त कर रही है। 😇
ये पोस्ट तमाम उन गर्मियों की छुट्टियों पर किये जाने सभी कार्यक्रमों को समर्पित।
When Covid crisis was still in its very early stage and so was lockdown, I was very optimistic India will ride this one too and not only that, India will come out as a better country. After nearly 70 days my optimism has not gone into negative but it has hit a new low.
The initial optimism got a major boost when within days a Pune-based company developed low costing test kits. For me that was a good sign of what future had in store. But there has been little development on that front. Yes we are making lots of PPE suits everyday but that\’s no innovation. Thats a result of facilities lying idle and they being used for making PPE suits. There were tweets that Mahindra group has worked on a desi ventilator and also supplying the same to the government. I hope the company is doing that.
Coming back to first good news to come within days of Covid crisis hitting India. The lady who was part of this testing kit was all over news as she delivered a child only after the kit was launched. But that was the last of that affordable kit I heard. The company executives were on channels discussing their capacity and how it can be ramped up. But there is nothing about the company that is making news these days – specially about affordable test kits when states are demanding more test kits and some like Delhi and Mumbai have suspended tests. The initial estimate of Rs 1,200 per test is not a reality. The tests cost between Rs 2,200 to Rs 4,500.
Secret Data
As media student, I do try to understand whats happening in other parts of the world. One thing that struck me was availability of data. For example in United States, worst affected by coronavirus, the data was very transparent and available at: https://coronavirus.jhu.edu/map.html
Similarly, Singapore also had a very open policy on sharing the data with public. All the information about the patients, where they came from and how many more persons caught the virus was available on internet on their website https://covidsitrep.moh.gov.sg/. In the early days there was a website which followed the Singapore model but not to the T. Sadly the website went off the net following some issues with the server and now its gone.
Unfortunately, it will take more time (not yet known how much) from the provider to know what exactly happened and when it can be fixed.
Our team at https://t.co/xqv2zfj9Dn will continue to work passionately for the dashboard. We are all together in this.
There is this government website https://www.mohfw.gov.in/ which gets updated every 24 hours with fresh data at 8 AM. Again its very basic, pathetic representation of data. Please don\’t get me wrong. But everyday you share the numbers without any more info as to how many new cases reported, how many cured etc etc. What I see on the screen is what you see in the pic above.
Data and stories
As a journalist I have found data to be great tool to tell stories but only if its presented in a simple form for the readers to understand. I would be lying if I say that I would not expect a kick ass, transparent, great UI website from the The Ministry of Health and Family Welfare (MoHFW). Why? Because we have the expertise and so much has been said about digital India that I would be wasting my and your time too to talk about it.
Now all the states have different ways of collecting data and presenting. There is no uniformity which is not surprising. But remember my optimism in the early days – I was hoping we will have a uniform data representation. But with different parties in power in different states, it becomes a big ego issue for all. Kerala perhaps has the best dashboard. Very informative and easy navigation. If you haven\’t do checkout their website: https://dashboard.kerala.gov.in/index.php
Kerala state Covid-19 dashboard is most informative dashboards giving out all the necessary data and information.
Maharashtra has copied the Johns Hopkins UI and has only made it data centric. Check out their website here.
Madhya Pradesh government had to face a rather embarassing situation after a hacker exposed flaws in the dashboard. The Shivraj Singh Chauhan government went back to the drawing board and there is no update available as I write this. May be it is available and I need to work on my search skills.
In India, the state of Madhya Pradesh created a #Covid19 dashboard with: – name of quarantined people – their device id and name – os version – app version code – the gps coordinates of their current location – the gps coordinates of their officehttps://t.co/lRKaqGmc8Ppic.twitter.com/EKgdhKqL7p
This piece is not about comparing the dashboards or choose the best. My point is crisis is the best opportunity to learn. What have we learnt? States were fudging data, some hospitals were delaying the data. Why can\’t we have a centralised template which is shared with all the states and all the data collection is uniform. This not only applies to health but to any field where data is collected.
If I am living in Mumbai or Kolkata my driving licence from either of the state transport department should be identical. Just like a passport or (many wont agree) an Aadhaar card. Sometimes I feel this difference actually allows people to fudge the documents and not get caught. But each state during covid-19 collected data as per their local laid down guidelines.
As I was writing this post came the news that West Bengal has come up with guidelines for covid victims. The state allowed families to pay their last respects to the departed soul and many other provisions. Shouldn\’t all states follow the same guidelines? How come a covid victim dying in West Bengal is any different from one dying in Tamil Nadu? Should MoHFW frame these guidelines? If yes, will all the states follow it?
Late Comers
The initial lockdown days were spent trying to order the essentials. The tried and tested and trusted apps suddenly stopped taking orders. If anyone came across any site taking orders it was shared on various groups. Reliance Smart was one such website taking orders. But what a shock when I finally managed to find the site. So the company which has stores all across India had a pathetic site. There was no mobile version of the site and this I realised after I struggled on the mobile device.
The website from a company which had all the money, resources in the world to launch the either an app or a better version of the website within days of Lockdown 1. But the company took its sweet time and the new avatar of Reliance Smart which not takes you to Jio Mart was launched sometime in May.
The second company was not a disaster but again took time to realise online is where they were going to get their business from. D-Mart had a not so great UI but the company did not waste too much time in upgrading the website and now its much better version of the website I first visited in April 2020.
Am I still hopeful or has hope given way to despair? Yes because I still believe it was the one big chance to set things in order. I know these are big changes and will take time and may be I am proved wrong. It was the time to think out of the box and come up with solutions to various problems in the country. Two most important systems in the life of any citizen anywhere in world – health and education – both need immediate overhaul. But barring digital classroom which again had very limited access, there was nothing big bang that happened. Wait there was one – digital payments and it was wonderful to see making payments without any human touch was a reality. Will the changes I was expecting reflect in coming years? I would like to hope so.
शास्त्रीय संगीत की समझ बिल्कुल नहीं है बस जो अच्छा लगता है वो सुन लेते हैं। मैंने पहले बताया था कैसे मेरा तबला सीखने का प्रयास विफल रहा उसके बाद सीखने का मन भी नहीं हुआ। लेकिन संगीत तो घर में चलता ही रहता था/है। शास्त्रीय नही तो फ़िल्मी ही सही।
घर में जितने सदस्य सबकी उतनी पसंद। आज के जैसे उस समय तो सबके पास मोबाइल या टेप तो होता नहीं था। एक रेडियो, टेप या टीवी हुआ करता था और सब उसी को देखते सुनते। इसका परिणाम ये हुआ की हर तरह का कार्यक्रम देखने, सुनने को मिला। उसमें से सबने अपनी अपनी पसंद चुन ली। किसी को किशोर कुमार तो किसी को मोहम्मद रफ़ी या कुमार सानू पसंद था। अपने गायक के गाना सुनने को मिल जाये तो लगा लॉटरी जीत ली।
आज जो डिमांड सर्विस है – आपको जब उदित नारायण का कोई गाना देखना हो तो देख लीजिये, उसमें वो मज़ा कभी नहीं आएगा जैसा तब आता था जब आप अपने किसी काम में व्यस्त हों और अचानक आपको बुलाया जाये कोई नया गाना आने पर। अच्छा उसमें भी अगर सलमान का गाना (जो बहन को पसंद है) या अनिल कपूर (जो भाई को पसंद है), अगर मैंने पहले देख लिया तो वो भी एक नोकझोंक का कारण बन जाता था।
अब तो नया गाना आने के पहले से उसके बारे में बताना शुरू कर देते हैं और फ़िल्म रिलीज़ होने के पहले ही गाने देख देख कर बोर हो जाते हैं। नतीजा ये होता है की फ़िल्म में गाना देखने का मज़ा ही ख़त्म हो जाता है।
बात शुरू शास्त्रीय संगीत से हुई थी और पहुंच कहीं और गयी। अब वापस शास्त्रीय संगीत की तरफ़ चलते हैं। उन दिनों दिन के अलग पहर की राग के कैसेट निकले थे। मैंने कुछ ख़रीद लिये और सुने और इससे मेरा परिचय हुआ किशोरी अमोनकर जी से। उनकी आवाज़ में ये राग जयजयवंती बहुत ही सुंदर लगती। जब मुम्बई में उनसे साक्षात मिलने का मौका मिला तो मुझे लगा मानो कोई मनोकामना पूरी हो गयी। लेक़िन शास्त्रीय संगीत के सीमित ज्ञान के चलते मैंने उनसे उस संबंध में कोई बात नहीं करी। बाद में एक सहयोगी ने बताया अच्छा हुआ नहीं पूछा क्योंकि किशोरी ताई वहीं क्लास ले लेती मेरी।
ऐसा नहीं है फ़िल्म संगीत के बारे में बहुत जानकारी है लेक़िन कामचलाऊ से ज़्यादा है। इसके बावजूद जब पार्श्व गायिका साधना सरगम जी (उनकी आवाज़ में जादू है) के एक एल्बम के लांच में गया तो भी बात नहीं कर पाया। उनको साक्षात सुनने को मिला वही बहुत था। भीमसेन जोशी जी के कार्यक्रम के बारे में तो बता ही चुका हूँ।
आज इस यात्रा पर क्यों?
दरअसल दूरदर्शन पर आज देश राग वाला वीडियो देख रहा था। तब लगा की अपने ही देश के कितने सारे शास्त्रीय संगीत के महारथियों के बारे में जानकारी ही नहीं। और ये सिर्फ़ संगीत तक ही सीमित नहीं है। हम अपने ग्रंथों के बारे में ज़्यादा नहीं जानते। वेदों के नाम मालूम है लेकिन उन वेदों में क्या ज्ञान है, कैसे हम इसका लाभ ले सकते हैं उस जानकारी से बहुत से लोग अनजान हैं।
हम बाहर के कई कलाकारों, उनकी अलग अलग विधायों के बारे में तो जानते हैं लेक़िन अपने घर के बारे में अनजान हैं। उस ज्ञान से कोई आपत्ति नहीं है। अच्छी बात है अगर किसी को पता है मोज़ार्ट या बीथोवन के बारे में और आप उनको सुनते हैं। लेकिन अपनी विरासत के बारे में भी कुछ ऐसी ही जिज्ञासा रखें। जानते हैं तो बाकी लोगों के साथ शेयर करें (मेरे साथ भी)।
जो हमें विरासत में मिला है उसमें कोई कमी न करते हुये बल्कि कुछ अपना भी जोड़ते हुये, इसको हमें भी आने वाली पीढ़ियों को सौंपना है। ये जो प्रक्रिया है ये बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि ये निरंतर चलने वाली है।
कई बार हम लोग किसी मुसीबत में होते हैं और किसी मदद की उम्मीद करते हैं। आपको लगता है वो व्यक्ति जिसके लिये आपने क्या क्या नहीं किया वो आपकी मदद ज़रूर करेगा। फ़िर परिस्थियाँ ऐसी बनती हैं कि वो आपकी मदद नहीं कर पाता और आपको दो टूक शब्दों में बता भी देता है की वो कुछ नहीं कर सकता।
इसके विपरीत आप ऐसे किसी व्यक्ति से मिलते हैं जो आपको आश्वासन तो देता रहता है पर करता कुछ नहीं है। लेक़िन तब भी आपका मन ख़राब होता है पहले व्यक्ति से क्योंकि उसने साफ़ मना कर दिया लेक़िन दूसरे व्यक्ति के लिये आप ऐसी कोई भावना नहीं रखते क्योंकि उसने आपके अंदर आशा को जीवित रखा है।
उम्मीद की किरण
दोनों में से कौन सही है? मेरे लिये तो पहला व्यक्ति सही है क्योंकि उसने सच तो कहा। झूठी उम्मीद तो नहीं दिखाई। ये कहने के लिये भी हिम्मत चाहिये विशेषकर तब जब कोई आपसे उम्मीद लगाये बैठा हो। कोई मुझे ये कहे तो दुख तो ज़रूर होगा। लेक़िन वो उस व्यक्ति से लाख गुना बेहतर है जो कहता है चलिये देखते हैं। कई बार दूसरा वाला व्यक्ति भी सही होता है। कैसे?
लेखक ओ हेनरी की कहानी द लास्ट लीफ़ (आखिरी पत्ती) आपने शायद पढ़ी हो या देखी हो। एक बीमार लड़की ने अपनी जीवन की साँसें उसकी खिड़की से दिखने वाले एक पेड़ से जोड़ दी हैं और उसका ऐसा मानना है की जिस दिन आख़िरी पत्ती गिरेगी उस दिन उसका जीवन भी समाप्त हो जायेगा। उसके घर के करीब रहने वाला एक पेंटर जो अपनी मुश्किलों में उलझा हुआ है, उस लड़की की खिड़की पर पत्ती पेंट करता है। जब आखिरी पत्ती गिरती नहीं है तो लड़की की कुछ उम्मीद बंधनी शुरू होती है और कुछ दिनों में वो ठीक हो जाती है।
मेरे जीवन में दो बार ऐसे क्षण आये जब मैंने लोगों से मदद माँगी। दोनों ही बार उन लोगों की संख्या ज़्यादा थी जिन्होंने कुछ किया ही नहीं। उनको मेल लिखा, फ़ोन किया और मैसेज भी। लेक़िन उन्होंने ये भी ज़रूरी नहीं समझा की वो उसका जवाब दें। बात करने की तो नौबत तक नहीं पहुंची।
मानवता सबसे पहले
मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है। लेक़िन अगर हम सामने वाले के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करें तो उससे ज़्यादा ग़लत बात क्या हो सकती है। ज़रूरी नहीं है की जो भी आपके पास मदद के लिये आये आप उसकी मदद कर ही पायें। कई बार सिर्फ़ उनको ज़रूरत होती है किसी की जो उनकी बातें सुने और उनकी हिम्मत बढ़ाये।
जिस कठिन समय से हम सब किसी न किसी रूप में साथ हैं, ऐसे में हमें ही एक दूसरे का साथ देना है। अगर आप किसी को जानते हैं या आपको उनकी परेशानी का अंदाज़ा है तो आप उनसे बात करिये।
बस हमें वो उम्मीद बंधानी है। ये भी गुज़र जायेगा। उन सभी को जिनसे हम मिलते हैं (या आने वाले दिनों में मिलेंगे) या बात करते हैं। अगर कोई आकर आपसे अपनी तक़लीफ़, परेशानी बताता है तो आप ये मानिये वो आप पर विश्वास करता है। उसके विश्वास का मान रखिये और उसको प्रोत्साहित करें कि वो इस मुश्किल में अकेले नहीं है। हर मदद पैसे से नहीं होती। किसी की तकलीफों के बारे सुनना भी मदद ही है।
धीरे धीरे सब सामान्य होता जायेगा और फ़िर एक दिन ऐसा भी आयेगा जब कोरोना सिर्फ़ एक याद बनकर रह जायेगा। लॉक डाउन और उस समय की कहानियाँ अतीत का हिस्सा बनकर रह जायेंगी। हमारे जीवन की सभी घटनाओं के साथ ऐसा ही होता आया है फ़िर वो चाहे कितनी भी अच्छी या कितनी ही दुख देने वाली ही क्यों न हों। लेकिन क्या ये लॉक डाउन इतनी जल्दी यादों में ही सिमट जायेगा?
यही ज़िन्दगी का संदेश है। शो मस्ट गो ऑन (ये तमाशा चलता रहना चाहिये). सभी ने पैदल चलते हुये हमारे श्रमिकों की फ़ोटो या वीडियो देखें हैं। चिलचिलाती गर्मी में माँ सूटकेस खींच रही है और बेटा उस पर सो रहा है या बिटिया पिताजी को सायकल पर बिठा कर गाँव तक पहुंच गई। ऐसी कई घटनाओं से चैनल, वेबसाइटें या समाचार पत्र भरे पडे हैं। इन सभी भाई, बहनों को भी सलाम और उनके जज़्बे को भी नमन। इतनी मुश्किलें झेलकर भी उन्होंने कहीं भी कानून व्यवस्था में कोई अड़चन डाली।
सामने हैं मगर दिखते नहीं
लेक़िन एक तबका जो सामने रहता भी है लेक़िन उसकी समस्याओं की अनदेखी हो जाती है वो है हमारा मध्यम वर्गीय परिवार। हम ऐसे कितने परिवारों को जानते हैं जो शायद श्रमिकों जितनी ही मुश्किलें झेल रहे हैं लेक़िन अपना दर्द बयां नहीं कर रहे? कई लोगों की नौकरी चली गयी है और आगे नौकरी जल्दी मिलने की संभावना भी नहीं के बराबर है। बहुत से लोगों की तनख्वाह कम हो गयी है। लेक़िन उनके बाक़ी खर्चे जैसे बच्चों की पढ़ाई, लोन की किश्त आदि में तो कोई कमी नही हुई है। कई को इन्हीं महीनों में नौकरी मिलना तय हुआ था। लेकिन अब कोई उम्मीद भी नहीं है।
कई प्राइवेट कंपनियों में अप्रैल-मई का समय आपके सालाना बोनस एवं प्रोमोशन का समय होता है। कर्मचारी बस इसी का इंतजार करते रहते हैं की इस बार उन्हें क्या मिल रहा है। पूरे वर्ष वो अपना अच्छे से अच्छा काम करते हैं और साल के आख़िर में उन्हें पता चलता है की उन्हें ये कुछ तो मिलेगा नहीं और नौकरी भी नहीं रहेगी। लेकिन आपको इनकी कहानी सुनने को नहीं मिलेगी। क्योंकि ये तबका इसे अपनी नियति मान चुका है। काम करो, ढ़ेर सारा टैक्स भरो और सुविधा एक नहीं। लेकिन ये तब भी पीछे नहीं हटते। जुटे रहते हैं क्योंकि उनको अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देनी है ताकि वो अच्छी नौकरी पा सकें। यही उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य रहता है।
क्या हल है
तो क्या ग़रीबों को उनके हाल पर छोड़ दें? बिल्कुल नहीं। आप उनको जितनी सुविधाएं देना चाहते हैं दीजिये ताकि उनका जीवन और बेहतर हो और वो भी देश की प्रगति का हिस्सा बने। लेक़िन ज़रा उन लोगों के बारे में भी तो सोचिये जो कर तो भरते रहते हैं लेक़िन उनको सुविधाओं के नाम पर कुछ नहीं मिलता। मैं उनके लिये उनकी छत पर हेलिपैड बनवाने की बात नहीं कर रहा हूँ लेक़िन बुनियादी सुविधाएं। अच्छी सड़क, रहने की साफ सुथरी जगह, अच्छी शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं। इस पूरे कोरोना वायरस वाले घटनाक्रम से ये तो पता चलता है हमारी खामियाँ क्या हैं, कहाँ कुछ सुधारने की गुंजाइश है और कहाँ सब बदलने की। जो इस बार भी हम चूक गये तो…
वो जो चले गये उनके पास एक आसरा है, एक उम्मीद है। जो रह गये उन्हें नहीं पता उनकी जमापूंजी कितने दिनों तक चलेगी और उसके बाद क्या होगा। सच मानिये तो अभी तक हमको इसका आभास भी नहीं है की ये दो महीने कितनों की ज़िंदगी में एक ऐसा तूफ़ान लाया है जिसका असर वर्षों तक दिखेगा।
याद तो वो रह जाता है जो ख़त्म हो जाता है, इस पूरे घटनाक्रम को कई लोग अभी कई वर्षों तक जियेंगे। ये वो सफ़र है जो अभी शुरू भी नहीं हुआ है। निराश होने का विकल्प लेकर ही न चलें। सफ़र (अंग्रेज़ी वाला नहीं) का आनंद लें, मंज़िल की चिंता न करें। प्रयास करें अपने स्तर पर सुधार करने का। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं सोनू सूद। उनसे प्रेरणा लें और जो आप कर सकते हैं वो करें।
पत्रकारिता में जब शुरुआत हुई तो सभी चीजें नौकरी पर ही सीखीं। किसी संस्थान से कोई डिग्री, डिप्लोमा तो किया नहीं था, तो कैसे लिखने से लेकर, क्या लिखना, क्या नहीं लिखना ये सब सीखा। शुरुआत अखबार से करी थी तो ख़बर हमेशा जगह की मोहताज़ रहती थी। कभी जगह कम मिली तो बड़ी ख़बर छोटी हो जाती, लेकिन जब जगह ज़्यादा होती तो जैसे नासिर साब कहते, \”आज खुला मैदान है, फुटबॉल खेलो\”।
अख़बार में काम करते करते एक और चीज़ सीखी और जिसे प्रोफेशनल होने का लिबास पहना दिया – वो थी गुम होती सम्वेदनशीलता। उदाहरण के लिये जब किसी दुर्घटना की ख़बर आती तो पहला सवाल होता, फिगर क्या है। यहाँ फिगर से मतलब है मरने वालों की संख्या क्या है। अगर नंबर बड़ा होता तो ये फ्रंट पेज की ख़बर बन जाती है, अगर छोटी हुई तो अंदर के पेज पर छप जाती है या जैसे किसानों की आत्महत्या की खबरें होती हैं, छुप जाती हैं।
कुछ वर्षों पहले मुम्बई में मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी ने भी एक बार मुझे ये समझाया। \”लोगों को किसी दूसरे की ट्रेजेडी, दुख से एक अनकहा जुड़ाव रहता है। वो खुद दुखी होते हैं और यही हमारी सफलता है। तुम बस इसको समझ जाओ और इसको बेचो\”। उन्होंने कुछ गलत भी नहीं कहा था। 1984 में जब इंदिरा गांधी का निधन हुआ था तो उस समय उनके अंतिम संस्कार से लेकर बाकी सभी काम दूरदर्शन पर दिखाये जाते थे। उस दिन जब अस्थिसंचय का काम चल रहा तो शायद माँ ने टीवी बंद करने को कहा था। लेकिन मैंने बोला देखने दीजिये। पहली बार देख रहे हैं ये सब।
शायद ये सही भी होगा। अभी पिछले दिनों जब अभिनेता इरफ़ान खान और ऋषि कपूर जी की दुखद मृत्यु हुई तो सबने इसको बढ़चढ़ कर कवर किया। रही सही कसर उस बंदे ने पूरी करदी जिसने उनके अंतिम संस्कार के वीडियो बनाये और शेयर करने शुरू कर दिये। मुझे यकीन है इसको एक बड़ी जनता ने देखा भी होगा।
कोरोना वायरस के बाद ऐसी खबरों की जैसे बाढ़ आ गयी है। एक मोहतरमा भारत भ्रमण कर ऐसी खबरों का नियमित प्रसारण कर रही हैं। मुझे इन खबरों से कोई परहेज नहीं है। लोगों को परेशानी हो रही है और ये बताना चाहिये। लेक़िन क्या यही सब पत्रकार क्या अपने जानकारों के ज़रिये किसी भी तरह से इन लोगों की मदद नहीं कर सकते? सभी की मदद करना एक पत्रकार के लिये संभव नहीं होगा लेकिन वो किसी संस्था के ज़रिये ये काम कर सकते हैं। लेकिन किसी की ऐसी कहानी के ऊपर अपनी रोटियां सेंकना या अपने मालिकों के एजेंडे को आगे बढ़ाना कहाँ तक उचित है? अगर आपने Delhi Crime देखा हो तो उसमें एक पत्रकार पुलिस अफसर को बताती है की कैसे उनके संपादक महोदय ने दिल्ली पुलिस की नींद हराम करने की ठानी है। ये उनका एजेंडा है।
मेरा हमेशा से ये मानना रहा है की अगर आपको समस्या मालूम है तो समाधान की कोशिश करें। समस्या कितनी बड़ी है या छोटी है, उसके आकार, प्रकार पर समय न गवांते हुये उसका समाधान तलाशें। जब मेरा MA का पेपर छूट गया था तो समाधान ढूंढने पर मिल गया और मैंने साल गवायें बिना पढ़ाई पूरी करली। ऐसा कुछ खास नहीं हुआ लेक़िन ये एक अच्छी वाली फ़ील के लिये था।
तो क्या पत्रकार ही सब करदें? फ़िर तो किसी सरकार, अधिकारी की ज़रूरत नहीं है। नहीं साहब। लेकिन क्या आप हमेशा पत्रकार ही बने रहेंगे या कभी एक इंसान बन कर कोई मुश्किल में हो तक उसकी मदद करने का प्रयास करेंगे?
(इस फ़ोटो को देखने के बाद अपने को लिखने से रोक न सका)
ये शायद पिछली गर्मियों की बात है। शायद इसलिये बोल रहा हूँ क्योंकि याद नहीं किस साल की बात है लेक़िन है गर्मियों की क्योंकि ये भोपाल की बात है जहाँ सालाना गर्मियों में हमारा अखिल भारतीय सम्मेलन होता है। सुबह की चाय पर चर्चा चल रही थी गानों के बारे में और मैंने बताया ऋषि कपूर जी के एक गाने के बारे में।
आज उनके निधन के बाद वही गाने देख रहे थे तो वो किस्सा याद आ गया। अभी दो दिन पहले ही कर्ज़ देखी थी तब इसका पता नहीं था कि ऋषि जी ऐसे अचानक ही चले जायेंगे। हमारी पीढ़ी में अगर खानों के पहले कोई रोमांटिक हीरो था तो वो थे ऋषि कपूर। उनकी फिल्में देख कर ही बड़े हुये। उनकी हर फ़िल्म का संगीत कमाल का होता था। फ़िर वो चाहे बॉबी हो या दीवाना।
अगर 70, 80 और कुछ हद तक 90 को भी शामिल करें तो इन तीस सालों के बेहतरीन रोमांटिक गीत में से ज़्यादातर ऋषि कपूर जी के होंगे। अब जब बाकी सब कलाकार मारधाड़ में लगे हों तो कोई तो ऐसा चाहिये जो अच्छा संगीत सुनाये और साथ में नाचे भी। ये ज़िम्मेदारी ऋषि कपूर जी की फिल्मों ने बख़ूबी निभाई।
हिंदी फ़िल्म जगत में उनकी पहले दौर की फिल्में बेहद हल्की फुल्की, फॉर्मूला फिल्में रहीं। लेक़िन जब वो एक ब्रेक लेने के बाद वापस आये तो वो एक एक्टर के रुप में ज़्यादा पहचाने गये। और जब वो वापस आये तो जैसे अपने अंदर के सारे डर छोड़ आये कहीं पीछे और अब वो कुछ भी करने को तैयार थे। अगर उनकी पहली पारी अच्छे गीत संगीत के लिये याद रखी जायेगी तो दूसरी पारी बतौर एक उम्दा कलाकार के लिये।
ऋषि कपूर और अमिताभ बच्चन वो बहुत ही चुनिंदा लोगों में शामिल हैं जिन्हें ज़िंदगी ने दूसरे मौके दिये और इन दोनों ने उन मौकों का पूरा फ़ायदा उठाया और एक नये अंदाज़ में दूसरी पारी की शुरुआत करी। हम सभी को ऐसे मौके दुबारा नहीं मिलते। कोरोना के चलते क्या हम सभी को एक दूसरा मौका मिला है? मतलब कुछ नया सीखने का नहीं लेक़िन अपनी सोच और अपने देखने के नज़रिये में थोड़ा बदलाव?
एक बात और ऋषि कपूर जी की जो मुझे बेहद अच्छी लगती थी वो है उनका बेबाक़पन। न बातों को घुमाना फिराना और न ही उनपर कोई शक्कर की परत चढ़ाना। ये भी तभी संभव है जब आपको इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता की आपके इस तरह से बात करने से कोई नाराज़ भी हो सकता है। इस का मैंने कई बार पालन करना चाहा लेक़िन बुरी तरह असफल रहा।
हम लोग अपनी राय तो कई मामलों में रखते हैं लेकिन इस डर से की कहीं उससे किसी की भावनाओं को ठेस न पहुँचे, उसको बताते समय थोड़ा हल्का कर देते हैं। लेकिन ऋषि कपूर जी तो सार्वजनिक रूप से ऐसा करते थे। तो क्या सबका डर छोड़ कर बस जो दिल में है वही ज़ुबान पर रखें? मेरे हिसाब से तो ये अच्छा है की आप जो सोचते हैं वही बोल दें। इससे कम से कम आपको बार बार कुछ नया तो नहीं बोलना पड़ेगा।
कई बार ऐसा होता है की लिखने को बहुत कुछ होता है लेक़िन समझ नहीं आता क्या लिखें। मेरे साथ अक्सर ये होता है क्योंकि आईडिया की कोई कमी नहीं है बस विषय चुनने का मुद्दा रहता है। मैंने इससे बचने का अच्छा तरीक़ा ये निकाला कि लिखो ही मत तो कोई परेशानी नहीं होगी।
लेक़िन जब से 2017-18 से लिखने का काम फ़िर से शुरू किया है तब से ऐसा लगता है लिखो। जिन दिनों ये उधेड़बुन ज़्यादा रहती है उस दिन थोड़ा सा ध्यान देना पड़ता है। विचारों की उस भीड़ में से कुछ ढूंढना और फ़िर लिखने पर बहुत बार तो ये हुआ की पोस्ट लिखी लेक़िन मज़ा नहीं आया। उसे वहीं छोड़ आगे बढ़ जाते हैं। फ़िर कभी जब समय मिलता है तब ऐसी अधूरी पोस्ट पढ़कर खुद समझने की कोशिश की जाती है आख़िर क्या कहना चाह रहे थे। और हमेशा मैं ऐसी सभी पोस्ट को डिलीट कर देता हूँ।
आज भी मामला कुछ ऐसा ही बन रहा था। एक तरफ़ इरफ़ान खान जी के निधन से थोड़ा मन ठीक नहीं था, तो सोचा आज उनके बारे में लिखा जाये। लेक़िन फ़िर ये ख़्याल आया की क्या लिखूँ? ये की शादी के बाद श्रीमतीजी को जब पहली बार मुंबई आयीं थी उनको लेकर मेट्रो सिनेमा में उनकी फ़िल्म मक़बूल देखी थी और श्रीमतीजी को उस दिन मुझे किस तरह की फिल्में पसंद हैं इसका एक नमूना देखने को मिल गया था?
वैसे इसे एक इत्तेफाक ही कहूँगा की बीते कुछ दिनों से उनका ज़िक्र किसी न किसी और बात पर हो रहा था। जैसे मैं श्रीमतीजी से कह रहा था की उनकी फिल्म क़रीब क़रीब सिंगल देखनी है फ़िर से (इसका लॉक डाउन से कोई लेना देना नहीं है)। पहली बार देखी तो अच्छी लगी थी और उनका वो चिरपरिचित अंदाज़। फ़िल्म की स्क्रिप्ट और डायलाग भी काफ़ी अच्छे थे।
वैसे ही श्रीमती जी की एक मित्र ने मेरी एक काफ़ी पुरानी पोस्ट पढ़ कर उन्हें फ़ोन किया था। इत्तेफाक की बात तो ये है जिस पोस्ट का वो ज़िक्र कर रहीं थीं उसमें इरफ़ान जी के इंटरव्यू में उन्होंने क्या कहा था उसका ज़िक्र था।
पिछले दिनों एक बार और उनके बारे में बिल्कुल ही अजीब तरीक़े से पढ़ना हुआ। अजीब आज इसलिये लग रहा है और कह रहा हूँ क्योंकि आज वो नहीं हैं। दरअसल मैं पढ़ रहा था कंगना रानौत पर लिखी हुई एक स्टोरी पढ़ रहा था जो क़रीब दो साल पुरानी थी। उससे पता चला की जिस इंटीरियर डिज़ाइनर ने कंगना का मनाली वाला बंगला डिज़ाइन किया है उन्होंने उससे पहले इरफ़ान जी का मुम्बई वाला घर डिज़ाइन किया था। कंगना को वो पसंद आया और इसलिये उन्होंने उन डिज़ाइनर साहिबा की सेवाएँ लीं।
जैसा मेरे साथ अक्सर होता है मुझे ये जानने की उत्सुकता हुई की इरफ़ान जी का घर कैसा है। बस इंटरनेट पर ढूंढा और देख लिया और पढ़ भी लिया। इंटीरियर डेकोरेशन का मुझे कभी शौक़ हुआ करता था लेक़िन बाद में नये शौक़ पाल लिये तो वो सब छूट गया। लेक़िन उस दिन फ़िर से थोड़ी इच्छा जगी। अब श्रीमतीजी इसको कितना आगे बढ़ने देती हैं, ये देखना पड़ेगा।
आज जब इऱफान खान जी के निधन की ख़बर आयी तो ये बातें याद आ गयी। कुछ समय के लिये बहुत बुरा भी लगा। लेक़िन किसी चैनल पर कोई कह रहा था हमें उनके काम को, उनके जीवन को सेलिब्रेट करना चाहिये।
बस फ़िर क्या था। उनकी क़रीब क़रीब सिंगल टीवी पर चालू। योगी बने इरफ़ान खान और न जाने कितने किरदारों के ज़रिये वो हमेशा हमारे बीच रहेंगे। उनको कोई भी क़िरदार दे दीजिये उसमें वो अपने ही अंदाज़ में जान फूँक देते थे।